भारत जगद्गुरु था और आगे भी रहेगा।

August 1958

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(स्वामी विवेकानन्द)

एक भाव हिन्दू-धर्म में संसार के अन्य धर्मों की अपेक्षा विशेष है। उसके प्रकट करने में ऋषियों ने संस्कृत भाषा के प्रायः समग्र शब्द-समूह को निःशेष कर डाला है। वह भाव यह है कि “मनुष्य को इसी जीवन में ईश्वर की प्राप्ति करनी होगी।” अद्वैत मत के ग्रंथ अत्यंत प्रमाणयुक्त तर्क के साथ इसमें इतनी बात और जोड़ देते हैं कि-”ईश्वर को जानना ईश्वर हो जाना है।”

इस भाव से वह उदार और अत्यन्त प्रभावशाली मत प्रकट होता है- जो न केवल वैदिक ऋषियों द्वारा घोषित हुआ है, जिसे न केवल विदुर और धर्म व्याध आदिकों ने ही कहा है, वरन् अभी कुछ समय पूर्व दादूपंथी सम्प्रदाय के त्यागी संत निश्चलदास ने भी अपने ‘अपने सागर में’ स्पष्टतापूर्वक कहा है-

जो ब्रह्मविद् वही ब्रह्म ताकी वाणी वेद। संस्कृत और भाषा में करत भरम का छेद॥

इस प्रकार द्वैतवादियों के मत के अनुसार ईश्वर का साक्षात्कार करना, या अद्वैतवादियों के कहने के अनुसार ब्रह्म हो जाना-यही वेदों समस्त उपदेशों का एकमात्र लक्ष्य है। उनमें जो अन्यान्य उपदेश दिये गये हैं वे इसी लक्ष्य की ओर प्रगति के लिये सोपान स्वरूप हैं। भाष्यकार भगवान शंकराचार्य की महिमा यही है कि उनकी प्रतिभा ने व्यास के भावों की ऐसी अपूर्व व्याख्या प्रकट की।

निरपेक्ष रूप से केवल ब्रह्म ही सत्य है। सापेक्ष सत्य की दृष्टि से भारतवर्ष और अन्य देशों के सभी विभिन्न मत उसी ब्रह्म के भिन्न-भिन्न रूपों के आधार पर बने होने के कारण सत्य हैं। बात केवल यही है कि कुछ मत, और अन्य मतों की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ हैं। और जब वेद ही उस सत्य निर्विशेष ब्रह्म की शिक्षा देने वाले एकमात्र शास्त्र हैं, और ईश्वर संबंधी अन्य सब मत केवल उसी के छोटे मर्यादित दर्शनमात्र हैं, जबकि ‘सर्वलोक हितैषिणी’ श्रुति भगवती धीरे से भक्त का हाथ पकड़ लेती है, और एक श्रेणी से दूसरी में, और क्रमशः अन्य सभी श्रेणियों में से जहाँ-जहाँ से पार होना आवश्यक है वहाँ से ले जाकर उस निर्विशेष ब्रह्म तक पहुँचा देती है, तब यह कहना सर्वथा संगत ही है कि संसार के सभी धर्म, मतमतान्तर उसी नामरहित, सीमारहित, नित्य वैदिक धर्म के अंतर्गत हैं।

सैकड़ों जीवन तक लगातार प्रयत्न कीजिये, युग तक अपने जीवन के अन्तस्तल को खोजिये-तो भी आपको एक भी ऐसा उदार धार्मिक विचार दिखाई नहीं देगा जो कि आध्यात्मिकता की उस अनन्त खान (वैदिक-धर्म) में पहले से ही समाविष्ट न हो।

अब हिन्दुओं की मूर्ति-पूजा कही जाने वाली तथाकथित प्रथा को लीजिये। प्रथम तो आप उसी पूजा के विभिन्न प्रकारों को सीखिये और यह निश्चय कीजिये कि वे उपासक यथार्थ में पूजा कहाँ कर रहे हैं-प्रतिमा में, मंदिर में या अपने देह-मंदिर में? पहले यह तो निश्चय कर लीजिये कि वे क्या कर रहे हैं? (क्योंकि निन्दा करने वालों में से 90 प्रतिशत से अधिक लोग इस बात को नहीं जानते।) तब वेदान्त दर्शन की दृष्टि से यह बात अपने आप समझ में आ जायगी।

फिर भी हम कहेंगे कि ये कर्म अनिवार्य रूप से आवश्यक नहीं है। मनुस्मृतिकार ने प्रत्येक मनुष्य के लिये चतुर्थ आश्रम ग्रहण करने की आज्ञा दी है। चाहे वह वैसा करे या न करे उसे सभी का त्याग तो करना ही चाहिये।

यूरोप और अमरीका में ईसाई पादरियों ने समाज का जो चित्र खींचा है वह अत्यंत ही वीभत्स और डरावना है। वे भारतीय समाज का कुत्सित, पर काल्पनिक चित्र खींचकर वहाँ की जनता से भारत में ईसाई-धर्म का प्रचार करने के लिये चन्दा वसूल करते हैं। पर मैं अपने प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि जैसा पादरी लोग कहते हैं उसके अनुसार न तो हम भारतवासी ‘राक्षस’ हैं और न वे लोग ‘देवता’ ही माने जा सकते हैं। पादरी लोग भारत के नैतिक पतन, बालहत्या, हिन्दू विवाह पद्धति के दोषों के सम्बन्ध में जितना कम बोलें उतना ही उनके लिये भला है। हम कई देशों के ऐसे यथार्थ चित्र खींच सकते हैं, जिनके सामने पादरियों द्वारा खींचे हुये हिन्दू समाज के सभी काल्पनिक चित्र फीके पड़ जायेंगे। परन्तु मेरे जीवन का उद्देश्य वैतनिक धर्म-प्रचारक बनने का नहीं है। हिन्दू-समाज सर्वथा निर्दोष है, ऐसा दावा और कोई करे तो करे, मैं तो कदापि न करूंगा। अपने समाज की त्रुटियों की जानकारी मुझे औरों की अपेक्षा अधिक है। परन्तु तो भी मैं इन विदेशी मित्रों (पादरियों) से कह देना चाहता हूँ कि यदि आप सच्ची सहानुभूति के साथ सहायता देने के लिये आते हैं, तो ईश्वर आप को सफल बनाये। परन्तु यदि आप इस दलित राष्ट्र के मस्तक पर समय-कुसमय सतत गालियों की बौछार करके अपने निज राष्ट्र की नैतिक श्रेष्ठता की घोषणा करना आपका उद्देश्य है, तो मैं आपको साफ-साफ बतला देना चाहता हूँ कि यदि आज भी किंचित न्याय के साथ तुलना की जायगी तो नैतिक आचार में हिन्दू लोग संसार की अन्य जातियों की अपेक्षा अत्यधिक उन्नत पाये जायेंगे।

भारत में धर्म पर प्रतिबन्ध नहीं रखा गया था। किसी भी मनुष्य को अपने इष्टदेव या सम्प्रदाय या गुरु के चुनने में कोई रोक-टोक नहीं की जाती थी। इसी कारण यहाँ धर्म की जैसी वृद्धि हुई वैसी कहीं नहीं हुई थी।

दूसरी ओर यह हुआ कि धर्म के इन असंख्य भेदों में सामंजस्य रखने के लिये एक स्थिर बिन्दु की आवश्यकता हुई और भारतवर्ष में समाज ही एक ऐसा बिन्दु माना गया। परिणामस्वरूप समाज कड़ा और कठोर तथा लगभग अचल बन गया। कारण यह है कि स्वाधीनता ही उन्नति का एकमात्र उपाय है।

इसके विपरीत पश्चिमी देशों में विभिन्न भावों के विकास का क्षेत्र, समाज रखा गया और स्थिर बिन्दु या धर्म। मतैक्य ही योरोपीय धर्म (और इस्लाम आदि का भी) मूलमन्त्र बन गया और अभी भी है। इसलिये प्रत्येक धार्मिक परिवर्तन के फलस्वरूप वहाँ रक्त की नदियाँ बह गई। परिणामस्वरूप वहाँ सामाजिक-संगठन तो अपूर्व है, परन्तु धर्म अत्यन्त स्थूल जड़वाद से आगे नहीं बढ़ सका।

आज पश्चिमीय देश तो अपनी भौतिक आवश्यकताओं के विषय में जागृत हो रहे हैं और पूर्व के आध्यात्मवादियों का मूलमंत्र ‘मनुष्य का सच्चा स्वरूप’ और ‘आत्मा’ हो गया है। भारतीय दर्शन का विद्यार्थी जानता है कि वायु किधर से बह रही है, पर इसमें चिन्ता की कोई बात नहीं। शक्ति कहीं से भी आये, जब तक वह नव-जीवन का संचार करती है, तब तक कोई चिन्ता की बात नहीं।

जिन लोगों ने भारत की इस धर्म-प्रधान भावना को नष्ट करने का प्रयत्न किया या कर रहे हैं, वे हमारे समाज के यथार्थ रहस्य को नहीं समझते थे। उतावली में उन्होंने हमारे समाज के समस्त दोषों का उत्तरदायित्व धर्म के मत्थे मढ़ दिया, पर धर्म की इस अचल-चट्टान से टकरा कर स्वयं उनका ही अस्तित्व समाप्त हो गया।

वह भारत जो प्राचीन काल से सभी उदात्तता, नीति और आध्यात्मिकता का जन्म स्थान रहा है, वह देश जिसमें ऋषिगण विचरण करते रहे हैं, जिस भूमि में देवतुल्य-मनुष्य अभी भी जागृत और जीवित हैं, क्या कभी मर सकता है? यदि ऐसा हो जाय, तब तो संसार से सारी आध्यात्मिकता का समूल नाश हो जायगा। सारे सदाचारपूर्ण आदर्श-जीवन का अस्तित्व मिट जायेगा। धर्मों के प्रति सारी मधुर सहानुभूति नष्ट हो जायेगी और सारी भावुकता का भी लोप हो जायगा, और उसके स्थान पर कामदेव रूपी देव तथा विलासिता रूपी राज्य करेंगे। धन उनका पुरोहित होगा। प्रतारण, पाशविक बल, प्रतिद्वन्दिता, ये ही उनकी पूजा-पद्धति होगी और मानव आत्मा उनकी बलि सामग्री हो जायगी। ऐसी दुर्घटना कभी हो नहीं सकती। क्रियाशक्ति की अपेक्षा सहन-शक्ति कई गुना अधिक बड़ी होती है। प्रेम का बल घृणा के बल की अपेक्षा अनन्त गुना अधिक है। यही कारण है कि जहाँ आधुनिक वैज्ञानिक खोजों के प्रभाव से पश्चिमी धर्मों के किले टूट-टूट कर धूल में मिल गये, जबकि आधुनिक विज्ञान के हथौड़े की चोटों ने उन मतों को चीनी के बर्तनों की तरह चूर-चूर कर दिया और पश्चिम के अधिकाँश विचारशील लोगों ने ‘चर्च’ से अपना सम्बन्ध तोड़कर स्वतंत्र मतों को अपना लिया, वहाँ वेद रूपी ज्ञान के झरने से जीवनामृत पीने वाले हिन्दू और बौद्ध-धर्म पुनर्जीवित होकर संसार को आध्यात्मिकता और मुक्ति का मार्ग दिखला रहे हैं, और संसार के सभी धर्म-प्रेमी इन्हीं की ओर चले आ रहे हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles