देवत्व की भावना और समाज-कल्याण

August 1958

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(ब्रह्मचारी श्री कृपाशंकर त्रिपाठी)

मनुष्य को भगवान की सृष्टि का सर्वोत्तम रूप कहा जाता है। वैसे खनिज पदार्थ, वनस्पति और पशुओं में भी ईश्वरीय शक्ति का विकास दिखलाई पड़ता है, पर उनमें बुद्धि या विवेक का तत्व नहीं पाया जाता और इसलिये उनकी किसी क्रिया को भला या बुरा भी नहीं कह सकते। पर मनुष्य में बुद्धि-तत्व का विकास एक बड़ी सीमा तक हो चुका है और उस मार्ग में चाहे जितना बढ़ सके इसकी सामर्थ्य भी उसे दी गई है। इसलिये मनुष्य अपने कर्मों का उत्तरदायी माना जाता है और उसे पाप पुण्य का भी भागी कहा गया है।

बुद्धि या विवेक शक्ति का सबसे बड़ा फल जो संसार में दिखलाई पड़ रहा है वह मनुष्यों का पारस्परिक सहयोग या संगठन है। दूसरी बात है परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन कर लेने की शक्ति। पूर्वकाल में संसार में बड़े-बड़े दैत्याकार और शक्तिशाली प्राणी हो चुके हैं और अब भी अनेकों जंगली जानवर मनुष्य से सभी प्रकार की भौतिक शक्तियों में बढ़े-चढ़े हैं। पर बुद्धि या विवेक के अभाव से वे न तो सच्चे अर्थ में कभी संगठित हो सके और न प्राकृतिक स्वभाव को छोड़कर परिस्थिति के अनुसार अपने में परिवर्तन कर सके। इन्हीं दोनों गुणों के कारण मनुष्य ने धीरे-धीरे समस्त प्राणियों पर ही नहीं प्राकृतिक शक्तियों पर भी प्रभुत्व प्राप्त कर लिया और आज वह अन्य लोकों तक पहुँचने का प्रयत्न कर रहा है।

मनुष्य ने जो इतनी उन्नति की है उसका मूल आधार पारस्परिक सहयोग ही है। अकेला आदमी तो एक साधारण पशु के समान भी जीवन-निर्वाह कठिनता से कर सकता है। पर जब से मनुष्य अपनी शक्ति-अपने परिश्रम का उपयोग सब लोगों के- समाज के हित की दृष्टि से करने लगा। तभी से उसकी प्रगति तीव्र गति से होने लगी। जब मनुष्य ने केवल अपने स्वार्थ का ध्यान छोड़कर अपने परिश्रम और खोज के फल को समाज के भंडार में प्रदान कर दिया तो वह सामूहिक शक्ति बड़े विशाल रूप को प्राप्त हो गई और उसके द्वारा नये-नये महान् कार्य साध्य होने लगे।

पर इधर कुछ सौ वर्षों से मनुष्य में एक हानिकारक प्रवृत्ति का उदय हो रहा है। जब से उद्योग धन्धों और विशेषकर भाप, बिजली आदि शक्तियों से चलने वाले यंत्रों का प्रचलन बढ़ा है और उनके फल से सम्पत्ति की उत्पत्ति अधिकाधिक होने लगी है, तब से मनुष्यों को धन इकट्ठा करने की और इस दृष्टि से दूसरों से आगे बढ़ जाने की धुन लग गई है। इस धन के फन्दे में फँसकर मनुष्य अपने ही अनुयायियों, सहकारियों का अहित चिन्तक बन जाता है और सदा इसी कोशिश में लगा रहता है कि किसी प्रकार मैं इन सब के हिस्से की सम्पत्ति को हड़प कर लखपती-करोड़पती बन जाऊँ। इस मनोवृत्ति का परिणाम यह हो रहा है कि समाज में एकता, प्रेम और सहयोग के स्थान पर लड़ाई-झगड़ों और ईर्ष्या, द्वेष की वृद्धि हो रही है। मानव समाज पूँजीपति और श्रमजीवी (शोषक और शोषित) ऐसे दो हिस्सों में बँट गया है और संसार भर में फूट, कलह, वैमनस्य की वृद्धि हो रही है।

इस परिस्थिति का मुकाबला जब हम अपनी प्राचीन संस्कृति से करते हैं तो जमीन आसमान का अन्तर मालूम पड़ता है जहाँ हमारे पूर्वजों ने मनुष्यों का आदर्श परोपकार, पर सेवा, दुखियों का परित्राण बतलाया था और स्पष्ट शब्दों में घोषणा की थी-”पर द्रव्येषु लोष्ठ्रवत्” वहाँ आज दूसरे के हिस्से की सम्पत्ति अपने कब्जे में कर लेना बड़ी अच्छी होशियारी, चतुराई, योग्यता की बात मानी जाती है।

भारतीय संस्कृति में सदैव से देवताओं का बड़ा ऊँचा स्थान है। आजकल विष्णु शिव, गणेश, हनुमान आदि देवता पूजे जाते हैं प्राचीनकाल में, इन्द्र, वरुण, यम, अग्नि, सोम, मित्रावरुण आदि देवताओं की उपासना की जाती थी। ये देवता इसी उद्देश्य से पूजे जाते थे कि वे मनुष्यों का कल्याण करें, वे मनुष्यों की उनकी मनोवाँछित वस्तुयें देते थे, उनकी अभिलाषाओं की पूर्ति करते थे, इसी से वे देवता कहलाते थे। इसके विपरीत जो अन्य मनुष्यों के स्वत्वों का, अधिकारों का, सम्पत्ति का अपहरण, शोषण करता था, वह राक्षस माना जाता था। आज की दुनिया ने इस शिक्षा को भुला दिया है और दूसरों को कुछ देने की अपेक्षा उनसे कुछ लेते रहने को ही अपना लक्ष बना लिया है। जब सब कोई, या अधिकाँश भाग ऐसी मनोवृत्ति रखेगा तो सुख, शाँति, सन्तोष की आशा कहाँ से की जा सकती है?

हमको भली प्रकार यह समझ लेना चाहिये कि हमारा सच्चा कल्याण लोभ और अपहरण की प्रवृत्ति से नहीं हो सकता, वरन् न्याय और उदारता के सिद्धान्त पर चलना ही कल्याणकारी सिद्ध हो सकता है। पूँजीवाद अर्थात् समाज की सम्पत्ति को उचित स्थान से खींचकर अपनी तिजोरियों में भर रखना सब के लिये कष्टकारी, अतएव महान् पाप है। आज हम धन की मोहिनी माया के फेर में पड़कर इस परम सत्य को भूल गये हैं, अन्यथा जो व्यक्ति इस प्रकार सामाजिक जीवन निर्वाह के लिये आवश्यक सम्पत्ति के स्वाभाविक आवागमन में बाधा डालता है और अपने नीच स्वार्थ के लिये तरह-तरह की तिकड़मों से उसे खींचकर ताले में बन्द कर देता है वह समाज का सबसे बड़ा शत्रु और धिक्कारने योग्य मनुष्य है। ऐसे मनुष्य को समाज में रहने का कोई अधिकार नहीं। भारतवर्ष में भी पहले कुछ लोग बड़ी-बड़ी सम्पत्तियों के स्वामी हुआ करते थे, पर वे उसका उद्देश्य लोक-सेवा ही मानते थे और समय आने पर बिना हिचकिचाहट के जनता के हित के लिये सम्पत्ति को उत्सर्ग कर देते थे। पर यह भावना अब लोप होती जाती है और दिखावे के लिये कुछ दान-धर्म के करने पर भी पूँजीपतियों का मूल उद्देश्य अपनी सम्पत्ति को निरन्तर बढ़ाते जाना और उस पर ऐसे ताले लगाते जाना हो गया है, जिसमें अभावग्रस्त साधारण व्यक्तियों की उस तक पहुँच न हो सके। जब तक इस मनोवृत्ति में आमूल परिवर्तन न होगा और लोग सामाजिक न्याय के नियमों का पालन करते हुये ‘देवत्व’ की भावना- दूसरों के उपकार के लिये देने, त्याग करने की मनोवृत्ति को न अपनायेंगे तब तक संसार का कल्याण नहीं हो सकता।


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