(प्रो. अवधूत गोरेगाँव)
साँसारिक मनुष्यों की प्रीति में सदैव प्रेम के साथ ईर्ष्या का भाव भी मिला रहता है और उसी के कारण संसार के सुख में कमी होकर दुःख का परिमाण बढ़ जाता है। केवल पति-पत्नी अथवा युवक-युवती के प्रेम में ही ईर्ष्या का भाव होता है ऐसी बात नहीं है। सब प्रकार के सम्बन्धों में यह भाव दिखलाई पड़ा करता है। माता-पिता और पुत्र-पुत्रियों, मित्रों और स्नेहियों, भाइयों और बहिनों, पास और दूर के नातेरिश्तेदारों, और आगे बढ़ा जाय तो हम कह सकते हैं कि सामान्य परिचित जनों में भी यह ईर्ष्या का भाव काम करता दृष्टिगोचर होता है। बहुत समय तो यह भी दिखाई देता है कि जहाँ प्रेम का परिमाण अधिक होता है वहाँ ईर्ष्या का अंश भी विशेष रहता है।
यह ईर्ष्या बहुत से दुःखों की जननी है, इसे सब कोई स्वीकार करेंगे। प्रेम की आधारशिला विश्वास माना जाता है, जहाँ प्रेम हो वहाँ विश्वास होना ही चाहिए। ईर्ष्या का भाव प्रकट होते ही यह विश्वास डिग जाता है, आधारशिला मानो गिरने लगती है। ईर्ष्या में से शंका उत्पन्न होती है और ऐसा जान पड़ता है कि जहाँ प्रेम है वहाँ प्रकट अथवा अप्रकट रूप से वहम भी रहता है। यह वहम अगर ज्यादा समय तक स्थिर रहे और जड़ जमा ले तो उसमें से द्वेष अवश्य उत्पन्न होगा। प्रेम और द्वेष ये साथ-साथ कैसे रह सकते हैं? इसलिए प्रेम को द्वेष के लिए स्थान कर देना पड़ता है। हृदय के सिंहासन के ऊपर प्रेम के स्थान पर द्वेष बैठ जाय तो जीवन विष के समान बन जायगा। इसमें कोई शंका ही नहीं।
कुछ लोग कहेंगे इस प्रकार के लगाव को प्रेम नहीं कहा जा सकता, वह तो राग या मोह है। बात तो ठीक है, परन्तु प्रचलित भाषा में उसे प्रेम ही कहा जाता है। प्रेम का स्वभाव त्याग करने का, स्वार्पण का, दूसरे के दुःखों में सम्मिलित हो जाने का होता है। ये तत्व इन प्रेमियों में भी कम या ज्यादा परिमाण में होते हैं, इसलिए उपर्युक्त भावना में प्रेम का सम्पूर्ण अभाव है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता है। इस भावना को अगर विशुद्ध बनाया जा सके, ईर्ष्या शंका और द्वेष से इसे पूर्णतया मुक्त किया जा सके, तो यह प्रेम का स्वरूप ग्रहण कर सकती है।
अब प्रश्न यह है कि ईर्ष्या, संशय और द्वेष, जो जीवन के सुख को नष्ट कर देने वाले तत्व हैं, वे जीवन के अनिवार्य अंश कैसे बन गये? यह तो नहीं कहा जा सकता कि प्रत्येक में प्रेम का जितना परिमाण होता है उतना ही परिमाण ईर्ष्या का भी होता है। यह भी नहीं देखा जाता कि प्रत्येक व्यक्ति में प्रेम और ईर्ष्या का रूप एक सा ही हो। प्रायः यह देखा जाता है कि हमारा कोई स्वजन अमुक व्यक्ति के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रखता है तो हमको ईर्ष्या नहीं होती, पर जब वही किसी दूसरे के साथ वैसा सम्बन्ध रखता है तो ईर्ष्या का भाव प्रकट हो जाता है। किसी स्थान पर विश्वास और किसी स्थान पर शंका अपने आप उत्पन्न हो जाती है, ऐसा भी अनुभव में आया है।
हम इतना तो मान ही सकते हैं कि यह स्थिति इष्ट नहीं है। जीवन के विकास में और शाश्वत ही नहीं, सामान्य सुख में भी यह बाधा रूप है। इसलिये छुटकारा पाने का प्रयत्न करना हमारा कर्तव्य है। सुख और दुःख केवल हवा की लहरों की तरह ही नहीं होते कि अकस्मात ही आ जायें और चले जाएं। प्रायः वे हमारे प्रकट अथवा अप्रकट प्रयासों के परिणाम होते हैं, अथवा वे हमारे मनोविकारों के फल होते हैं। ईर्ष्या, संशय, द्वेष की भावना की जड़ कहाँ है, इसका पता लगाकर हम उनको दूर भी कर सकते हैं। ऐसा करने से प्रेम की सुगन्ध हमारे जीवन में सदा महकती रहेगी और उसमें से जीवन के विकास की प्रेरणा भी मिलती रहेगी।
हम को जो मुक्ति प्राप्त करनी हो तो बन्धन कहाँ है और कैसा है यह जानना आवश्यक है। प्रेम के साथ ईर्ष्या क्यों सम्मिलित रहती है? प्रेम में ऐसी कौन सी त्रुटि है, कौन सा पोलापन है कि जहाँ ईर्ष्या निवास कर सकती है? इसके लिये बहुत गहरा उतरने की आवश्यकता नहीं है। अपने मन से ही पूछना चाहिये कि क्या हमारे प्रेम के भीतर ऐसी कोई भावना है कि जिसके परिणामस्वरूप हमारा प्रियजन-फिर चाहे वह हमारी पत्नी हो, प्रेमिका हो, पुत्र, पुत्री, भाई, बहिन हो, मित्र हो- उसके दूसरे का बन जाने का हमको डर लगता है? इस प्रकार विचार करने से हमको तुरन्त मालूम हो जायगा कि हमारी प्रीति सच्ची हो, अर्थात् हम अपने प्रियजन के लिये कैसा भी दुःख खुशी से सहने को, महान् त्याग करने को तैयार हों, तो भी उसके भीतर अपनेपन की एक अनिष्ट भावना छुपी रहती है। प्रियजन के लिये हम सब कुछ कर सकें, परन्तु यदि हम मालिकी की भावना को न छोड़ सकें तो वह प्रेम दूषित ही समझना चाहिये। अपने सुख के लिये हम कुछ भी सहन करें, इसमें क्या कोई विशेषता है? क्या इसे त्याग अथवा स्वार्पण कहा जा सकता है? इसी प्रकार अगर हम किसी पर अपने मन में मालिकी का भाव रखें और फिर उसके लिये कष्ट सहन और त्याग करें तो इसमें कोई विशेषता नहीं मानी जायगी।
इसलिये आवश्यकता इस बात की है कि हम प्रेम के वास्तविक तत्व को समझें और उसे संकीर्ण रखने के बजाय विस्तृत रूप देने का प्रयत्न करें। सच्चे प्रेमी स्वभाव का व्यक्ति चाहे किसी पुरुष या स्त्री से प्रेम करे, पर वह यह कभी न चाहेगा कि दूसरे लोग उसके प्रेम-पात्र से स्नेह-भाव न रखें- वह सदैव यही अनुभव करेगा कि प्रेम आत्मा का स्वभाव है और वह विधाता की रची सृष्टि के अटल नियमों के अनुसार ही उत्पन्न होता है। यह आवश्यक नहीं कि एक आत्मा केवल एक ही व्यक्ति से प्रेम करे। जिस प्रकार आत्म-तत्व सर्वव्यापी है, उसी प्रकार प्रेम तत्व भी सृष्टि के अणु-अणु में व्याप्त है। अन्तर केवल इतना ही है कि किसी स्थान में वह कम परिमाण में विकसित होता है ओर किसी में अधिक परिमाण में। पर यह अन्तर ऐसा नहीं है जिसके कारण हमको किसी से द्वेष करना आवश्यक हो। इसलिये हमारा कल्याण इसी में है कि हम प्रत्येक अवस्था में प्रेम के आदि स्वरूप को ध्यान में रखकर अपने प्रेम को यथा सम्भव विशुद्ध बनाने का प्रयत्न करें। ऐसा करने से हमारा साँसारिक प्रेम भी हमारी मुक्ति का साधन बन सकता है।