गायत्री के सम्बन्ध में भ्राँतियाँ

August 1958

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(श्री सुरेन्द्रनारायण द्विवेदी)

हजारों वर्षों के अज्ञानान्धकार के कारण मतमताँतरों का जो कूड़ा-कचरा जमा होता गया उसके ढेर के नीचे गायत्री और यज्ञ दब गये। उनका स्थान अनेकानेक मन्त्रों एवं कर्मकाँडों ने ले लिया। गायत्री का यों प्रत्यक्ष विरोध करने का तो कोई साहस कैसे करता पर उसे अनावश्यक बताने के लिए इतने प्रतिबन्ध खड़े कर दिये गये कि इसे अपनाने की किसी को हिम्मत ही न पड़े।

गायत्री केवल ब्राह्मण की है, गायत्री को किसी को बताना नहीं चाहिए, गुप्त रखना चाहिए, गायत्री को शाप लग गया है, गायत्री इस युग में सफल नहीं होती आदि न जाने क्या-क्या ऊल-जलूल बातें गढ़ कर लोगों की श्रद्धा इस अनादि वैदिक उपासना पर से हटाने और उसके स्थान पर अपने सम्प्रदाय के मंत्र एवं पूजा विधान पर लोगों की आस्था जमाने का प्रयत्न किया गया। पिछले दो हजार वर्षों में दो हजार से अधिक मत-मताँतर उपजे, हर प्रभावशाली पंडित ने, हर प्रभावशाली साधू ने यह प्रयत्न किया कि उसके नाम का एक सम्प्रदाय चल पड़े और ईश्वर के स्थान पर उसी की पूजा होने लगे। लोकेषणा की इस दुर्बलता ने उनके द्वारा नये-नये सम्प्रदाय उत्पन्न करवाये, सभी ने वेदोक्त सनातन उपासना गायत्री को परोक्ष रूप से व्यर्थ सिद्ध करने की कोशिश की, इसके बिना जनता इस अनादि उपासना को छोड़कर उस नवीन मत को क्यों ग्रहण करती? रामानन्दी, वैष्णव, शैव और शक्त, साधारण चार सम्प्रदाय अधिक पुराने थे। राम, कृष्ण, शिव और दुर्गा को मानकर चलने वाले लोग कुछ अधिक समय से अपने सम्प्रदाय चला रहे थे। पर पिछले समय में तो इन चारों में से भी प्रत्येक में सैकड़ों शाखाएं, उपशाखाएं फूट पड़ी। इतने बवंडर को देखकर जनता दिग्भ्राँत हो गई, खण्ड-खण्ड में बँट गई, एक भावना, एक उपासना का महत्व नष्ट हो गया, अपनी ढपली अपना राग की तूती बोलने लगी। इस दुरवस्था में गायत्री-उपासना की दुर्गति होना स्वाभाविक ही था।

अब वह परिस्थिति बदल रही है। अन्धकार को चीरता हुआ प्रकाश का युग उदय हो रहा है। भारतीय संस्कृति की महान उपासना को भी उसका स्थान प्राप्त कराने का प्रयत्न हो रहा है। पर एक बार जो पिछड़ जाता है उसे पुनः अपना स्थान प्राप्त करने में भारी कठिनाई उठानी पड़ती है। पाण्डवों को 12 वर्ष का वनवास हुआ था। वनवास से लौटने के बाद न्याय से राज्य उन्हें मिलना चाहिए था, पर कौरवों के हाथ में सत्ता आ गई थी, सत्ता का लोभ उनसे छूटता नहीं था, वे सुई के बराबर भी जमीन पाँडवों को देने को तैयार न हुए। अन्त में संघर्ष होकर रहा, तब कहीं न्याय की प्रतिष्ठा रह सकी। समय-समय पर इस घटना की पुनरावृत्ति होती रहती है। दो हजार वर्षों तक अज्ञानान्धकार के युग द्वारा तिरस्कृत गायत्री माता और यज्ञ पिता अब वनवास से पुनः लौटे हैं तो उनका अपना स्वाभाविक स्थान प्राप्त करना दुर्लभ हो रहा है, लोग उन पर दाँत पीसते हैं और लाठी लेकर दौड़ते हैं।

गायत्री से ब्राह्मणत्व की प्राप्ति होती है, ब्रह्म-तेज आत्मा में आता है यह सत्य है, पर यह असत्य है कि गायत्री केवल ब्राह्मण की ही जायदाद है। यज्ञोपवीत धारण कराते समय तीनों वर्णों को गायत्री दी जाती है। यज्ञोपवीत सूत की बटी हुई गायत्री की प्रत्यक्ष मूर्ति है, जो यज्ञोपवीत पहनता है वह स्पष्ट ही गायत्री को अपने कन्धे पर धारण किये हुए है। गुप्त रखने के सम्बन्ध में भी बात यह है कि जप करते समय मन ही मन या होंठ चलाते हुए धीरे-धीरे मन्त्र जपा जाता है। यह विधान जप के समय का है यह ठीक है पर यह ठीक नहीं कि गायत्री को कभी बोलना ही नहीं चाहिए। बिना बोले इसका प्रवचन करना, महत्व समझना समझाना, पाठ करना, वेद-ध्वनि करना, यज्ञ करना किस प्रकार सम्भव हो सकता है? फिर यह बात व्यवहारतः पूर्णतया असम्भव भी है। जो मन्त्र पुस्तकों में छप गया, जिसके चित्र छप गये उसे किस प्रकार गुप्त रखा जा सकेगा। जिन पुस्तकों में गायत्री मन्त्र छपा है, जो पुस्तकें बाजार में बिकती हैं उन्हें कोई भी खरीद सकता है। फिर वह गुप्त कैसे रहेगा? जो बात प्रेस में छप चुकी उसके गुप्त रखने की कोई बात नहीं रहती।

शाप लगना एक अलंकार है। जिसमें यह संकेत है कि गायत्री गुरु मन्त्र है, उसे गुरु-मुख से लेकर उपासना करना उचित है। तान्त्रिक साधनाओं में कवच, कीलक, अर्गल का उपयोग करना पड़ता है। जब गायत्री की ताँत्रिक उपासना की जाती है तब कवच, न्यास, शाप, मोचन, कीलक, अर्गल- 24 मुद्राएं करनी होती हैं। यह एक प्रक्रिया विशेष का संकेत है। चारों वेदों की जननी को, ज्ञान विज्ञान की आदि गंगोत्री को कोई ऋषि शाप देगा और वह भी गायत्री के मन्त्र दृष्टा विश्वामित्र द्वारा शाप दिया जायगा यह बातें समझ से बाहर की हैं। संस्कृत की किसी पुस्तक में कोई बात कहीं लिखी मिले तो उसे वेद-वाक्य ही नहीं मान लेना चाहिए। जिस प्रकार आज राष्ट्र भाषा हिन्दी है और हिन्दी में भली-बुरी झूठी-सच्ची सभी तरह की बातें छपी मिलती हैं उसी प्रकार किसी जमाने में संस्कृत राष्ट्र भाषा थी उसमें सभी प्रकार के विचार के लोगों ने सभी तरह की बातें लिखी हैं। उन सभी को सच्चा मानना कठिन है। शाप लगने की बात अलंकारिक तो है, उसमें गुरु-मुख होने की बात का तथा गायत्री की ताँत्रिक उपासना के एक विधान का संकेत तो है, पर यह कहना गलत है कि अब गायत्री को शाप लग चुका और बेकार हो गई। सूर्य और चन्द्रमा की तरह हमारे उपासना आकाश में गायत्री और यज्ञ जो प्रकाशवान एवं प्रधान पिंड है उनकी शाश्वत सत्ता को कोई चुनौती नहीं दे सकता, इनको किसी भी पर्दे में छिपाया नहीं जा सकता। देश काल की परिधि से ये बाहर हैं। सूर्य जो त्रेता में चमकता था वह ही आज भी चमक रहा है, बदला नहीं। सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अस्तेय आदि के जो धर्म-तत्व द्वापर में थे ये ही आज भी हैं। सतयुग में भी लोग मुँह से खाते और मल-छिद्र से शौच जाते थे आज भी वही प्रक्रिया चल रही है। सच्चे शाश्वत तथ्य कभी बदलते नहीं, देश काल का उन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। गायत्री जैसी उपयोगी सतयुग में थी वैसी आज भी है। इन लाँछनाओं के पीछे किसी वर्ग विशेष की दुरभिसंधि हो सकती है, पर सच्चाई तो रत्ती भर भी नहीं है।

महिलाओं को जब पशुओं की संज्ञा में रखा गया था, गुलामों की भाँति उन्हें खरीदा-बेचा जाता था, एक पुरुष ढेरों औरतें घर में पालता था, उस जमाने में स्त्री का दर्जा पशुओं जैसा रहा होगा और उनकी दीन सामाजिक स्थिति के कारण उन्हें पूजा, उपासना से वंचित रखा गया होगा। उसी जमाने में गायत्री और यज्ञ भी स्त्रियों को रोका गया होगा। पर किसी थोड़े समय का बुरा इतिहास कभी भी सत्य का या आदर्श का स्थान ग्रहण नहीं कर सकता। भारत में नारियों का दर्जा नर से भी ऊँचा रहा है। उसके नाम के आगे देवी शब्द लगाया जाता है। इससे स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति में नारी को देवी तुल्य पूज्य भाव से माना जाता रहा है। लक्ष्मीनारायण, राधेश्याम, सीताराम, गौरीशंकर आदि भगवान के नामों से पहले नारी का, पीछे नर का नम्बर आता है, इससे भी स्पष्ट है कि नारी का दर्जा इस देश में कभी भी नर से नीचा नहीं माना गया। जो अधिकार पुरुष को है वे सभी नारी को भी हैं। जो उपासना पुरुष कर सकता है वह नारी भी कर सकती है। भगवान की दृष्टि में नर और नारी, कन्या और पुत्र दोनों समान हैं। हम लड़के को बढ़िया और लड़की को घटिया मानते हैं तो यह भी सोचते हैं कि ईश्वर भी हमारी ही भाँति लड़कियों को बेकार की चीज समझता होगा और उन्हें अपनी गोदी में चढ़ने का, उपासना करने का अवसर न देता होगा, उसे केवल लड़के ही प्यारे होंगे। पर हमारी यह मान्यता नितान्त अस्वाभाविक है। ईश्वर ने, ऋषियों एवं शास्त्रों ने ऐसा भेद-भाव नहीं किया है, स्त्रियाँ गायत्री न जपें इसके प्रतिबन्ध के पीछे विवेक का एक कण भी नहीं है।

इन भ्राँतियों को पार करने में आज सचमुच बड़ी कठिनाई है। जो बात लोगों ने बहुत समय से होती देखी है, उनकी दृष्टि में वही सत्य है, वही सनातन है। बहुत दिनों से केवल ब्राह्मण ही पूजा पाठ की टण्ट-घंट करते थे। दूसरे लोगों का ध्यान ही इस ओर न था, अब यही बात एक रूढ़ि बन गई कि पूजा केवल ब्राह्मणों को ही करनी चाहिए। यज्ञों की परम्परा बहुत दिनों से लुप्त थी। अब यज्ञ होते दीखते हैं तो उन्हें लगता है कि यह कोई नई बात चली। ऐसे सामूहिक यज्ञ उन्होंने होते देखे नहीं और जो बात उन्होंने नहीं देखी वह सनातन हो नहीं सकती। सनातन नहीं, उनके देखी नहीं, वह या तो व्यर्थ है या धर्म विरुद्ध है, ऐसे-ऐसे तर्क लोगों के मन में उठते रहते हैं और जब कोई उनका समाधान करता है तो इन्हें लगता है कि कोई उनके लालबुझक्कड़पन को चुनौती दे रहा है। ऐसे लोगों की बातों का जवाब न दिया जाय तो भ्रम और फैलता है, जवाब दिया जाय तो वे नाराज होते हैं, अपना अपमान समझते हैं, लड़ने आते हैं। रूढ़िवाद जहाँ सामाजिक कुरीतियों का पोषक एवं अनेक प्रचलित बुराइयों का पृष्ठ पोषण करता है वहाँ वह विशुद्ध वैज्ञानिक एवं अनादि काल की सत्य सनातन गायत्री उपासना जैसे महान सत्य को भी अपने प्रतिबन्ध में रखना चाहता है। इस दुराग्रह के सामने विचारशीलता नतमस्तक हो जाय और सचाई को तिलाँजलि देकर ‘बावा वाक्यं प्रमाणम्’ के आगे आत्म समर्पण कर दे, यह कठिन है।

जो भी हो गायत्री-परिवार यदि सत्य का अवलम्बन करना चाहता है, सच्चाई को फैलाना चाहता है तो उसे विरोध सहने के लिए तैयार रहना पड़ेगा। भूलों को रास्ते पर लाने के लिए उनके कुतर्कों का दृढ़तापूर्वक समाधान करना होगा और अविचल भाव से सत्य की चट्टान पर दृढ़ रहना होगा। यदि हमारी श्रद्धा इतनी दुर्बल है कि अमुक बाबाजी या पोथी पाँडे उलटी-सीधी बातें करके हमें बहका दें और सत्य मार्ग से विचलित कर दें, डरा दें, हतोत्साह कर दें, तो फिर हमारी श्रद्धा बहुत ही दुर्बल मानी जायगी। उतनी दुर्बल श्रद्धा से न तो हमारा आत्म कल्याण हो सकता है, न माता का अनुग्रह मिल सकता है और न घर-घर गायत्री माता का संदेश पहुँचाने का लक्ष्य ही पूरा हो सकता है। ऐसे दुर्बल मानस के लोग हवा के झोंकों में उड़ते फिरने वाले पत्तों की तरह इधर-उधर लुढ़कते पुड़कते फिरते हैं। इतने कमजोर मनोबल के लोग जिन्हें अपने आदर्शों और सिद्धान्तों पर इतनी भी आस्था नहीं कि बहकाने वाले लोगों की मूर्खता पर हँस सकें, भला किस प्रकार अपने लक्ष तक पहुँचेंगे। तप करती हुई पार्वतीजी का विश्वास आजमाने के लिए सप्तऋषि यह कहने पहुँचे थे कि शिवजी से उनका विवाह कठिन है इस हठ को छोड़ दें। इस आज़माइश के उत्तर में पार्वतीजी ने कहा था-”कोटि जन्म लगि रगर हमारी। बरों शम्भु नतु रहों कुमारी।” इतनी निष्ठा वालों की ही उपासना सफल हो सकती है। जो जरा बहकाने में डर जाएं उन्हें गायत्री से, न किसी अन्य मन्त्र से कभी सिद्धि मिल सकती है। दृढ़ता, निष्ठा और श्रद्धा हम में कितनी है, इस बात की परीक्षा यह बहकाने वाले लोग लेते रहते हैं। इस प्रकार खरे और खोटे की परख माता करती रहती है। जिनका विश्वास इतना दुर्बल है कि किसी भी औंधे-सीधे आदमी के बहकाने से अपना संकल्प छोड़ बैठें, ऐसे लोगों से पीछा छुड़ाने में माता को प्रसन्नता ही हो सकती है।

दृढ़ता से ही हमें आत्म-लाभ होगा और गायत्री परिवार का वह उद्देश्य पूर्ण होगा जिसके अनुसार हमें घर-घर में जन-जन के मन-मन में गायत्री माता और यज्ञ पिता का सन्देश पहुँचाना है। भूले-भटकों को मार्ग पर लाना है। विरोधियों को प्रेम से जीतना है। अन्ततः वे अपनी भूल मानेंगे ही आज नहीं तो कल विजय सत्य की ही होकर रहेगी।


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