पंचदेवों का आध्यात्मिक रहस्य

January 1957

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(श्री लक्ष्मी नारायण जी बृहस्पति)

सदा भवानी दाहिनी, सन्मुख रहे गणेश। पाँच देव रक्षा करें, ब्रह्मा विष्णु महेश॥

ब्रह्मा -

भगवान के नाभि कमल से चतुर्मुख ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। शरीर के अन्यान्य अंगों में से नाभि के साथ सृष्टि कार्य का सम्बन्ध अधिक है, इसलिए परमात्मा की नाभि से सृष्टिकर्त्ता ब्रह्माजी का उत्पन्न होना विज्ञान सिद्ध है। कमल अव्यक्त से व्यक्त अभिर्मुखी प्रकृति का रूप है और उसी से ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है। ब्रह्मा जी प्रकृति के अंतर्गत राजसिक भाव पर अधिष्ठान करते हैं, इसलिए ब्रह्माजी का रंग लाल है, क्योंकि रजोगुण का रंग लाल है।

‘अजामेकाँ लोहितशुक्ल कृष्णाम्’

-(श्वेताश्वतर उपनिषद्)

त्रिगुणमयी प्रकृति लोहित, शुक्ल और कृष्णवर्ण है। रजोगुण लोहित, सतोगुण शुक्ल और तमोगुण कृष्णवर्ण है। समष्टि-अन्तःकरण ब्रह्माजी का शरीर और उनके चार मुख माने गये हैं क्योंकि- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार- ये अन्तःकरण के चार अंग हैं। क्रिया काल में ज्ञान की अप्रधानता रहने पर भी ज्ञान की सहायता बिना क्रिया ठीक-ठीक नहीं चल सकती है। इसलिए नीर-क्षीर विवेकी हँस को ब्रह्माजी का वाहन माना गया है।

ब्रह्माजी की मूर्ति की ओर देखने से, उसमें निहित सूक्ष्म व स्थूल भावों पर विचार कर देखने से पता लग जायेगा कि प्रकृति के राजसिक भाव की लीला के अनुसार ही ब्रह्माजी की मूर्ति-कल्पना की गई है।

विष्णु -

शास्त्रों में शेषशायी भगवान विष्णु का ध्यान इस प्रकार किया गया है कि-

ध्यायन्ति दुग्धादि भुजंग भोगे,

शयानमाधं कमलासहायम्।

प्रफुल्लनेत्रोत्पलमंजनाभ, चतुर्मुखेनाश्रितनाभिएद्मम्॥

आम्नायगं त्रिचरणं घननीलमुद्यच्छ्रावत्स

कौस्तुभगदाम्बुजशंहृचक्रम्।

हृपुण्डरीकनिलय जगदेकमूलमालोकयन्ति,

कृतिनः पुरुषं पुराणम्॥

अर्थात्- भगवान क्षीर सागर में शेषनाग पर सोये हुए हैं, लक्ष्मी रूपिणी प्रकृति उनकी पाद सेवा कर रही है, उनके नाभिकमल से चतुर्मुखी ब्रह्माजी की उत्पत्ति हुई है। उनका रंग घननील है, उनके गलदेश में कौस्तुभ मणि विभूषित माला है, उनके चार हाथ हैं। जिसमें शंख, चक्र, गदा और पद्यं सुशोभित है-वे जगत के आदि कारण तथा भक्तजन हृत्सरोज विहारी हैं।

इनके ध्यान तथा इनकी भावमयी मूर्ति में तन्मयता प्राप्त करने से भक्त का भव-भ्रम दूर होता है।

क्षीर का अनन्त समुद्र सृष्टि उत्पत्तिकारी अनन्त संस्कार समुद्र है जिसको ‘कारणवारि’ करके भी शास्त्र में वर्णन किया है। ‘कारणवारि’ जन्म न होकर, संसारोत्पत्ति के कारण अनन्त संस्कार है।

संस्कारों को क्षीर इसलिए कहा गया है कि क्षीर की तरह इनमें उत्पत्ति और स्थिति विधान की शक्ति विद्यमान है। ये सब संस्कार प्रलय के गर्भ में विलीन जीवों के समष्टि संस्कार हैं।

अनन्त नाश अथवा शेषनाग अनन्त आकाश का रूप है जिसके ऊपर भगवान विष्णु शयन करते हैं।

शेष भगवान् की सहस्रफन महाकाश की सर्वव्यापकता प्रतिपादन करती हैं, क्योंकि शास्त्र में ‘सहस्य’ शब्द अनन्तना-वाचक है।

आकाश ही सबसे सूक्ष्म भूत है, उसकी व्यापकता से ही ब्रह्म की व्यापकता अनुभव होती है और उससे परे ही परम-पुरुष का भाव है इस कारण महाकाश रूपी अनन्त शय्या पर भगवान सोये हुए हैं।

लक्ष्मी अर्थात् प्रकृति उनकी पाद सेवा कर रही है। इस भाव में प्रकृति के साथ भगवान का सम्बन्ध बताया गया है। प्रकृति रूपी माया परमेश्वर की दासी बन कर उनके अधीन होकर उनकी प्रेरणा के अनुसार सृष्टि, स्थिति, प्रलयकारनी है।

इसी दासी भाव को दिखाने के अर्थ में शेषशायी भगवान की पादसेविका रूप से माया की मूर्ति बनाई गई है।

भगवान के शरीर का रंग घननील है। आकाश का रंग नील है। निराकार ब्रह्म का शरीर निर्देश करते समय शास्त्र में उनको आकाश शरीर कहा है, क्योंकि सर्वव्यापक अति सूक्ष्म आकाश के साथ ही उनके रूप की कुछ तुलना हो सकती है।

अतः आकाश शरीर ब्रह्म का रंग नीला होना विज्ञान सिद्ध है।

भगवान के गलदेश में कौस्तुभ मणि विभूषित माला है। उन्होंने गीता में कहा है-

मनः परतरं नान्यत् किंचिदरित्र धनंजय। मचि सर्वमिद प्रोक्तं सूत्रे मणिगणा इव॥

भगवान की सत्ता को छोड़ कर कोई भी जीव पृथक् नहीं रह सकता, समस्त जीव सूत्र में मणियों की तरह परमात्मा में ही ग्रथित हैं। सारे जीव मणि हैं, परमात्मा सारे जीवों में विराजमान सूत्र है।

गले में माला की तरह जीव भगवान में ही स्थित है। इसी भाव को बताने के लिए उनके गले में माला है।

उक्त माला की मणियों के बीच में उज्जलतम कौस्तुभमणि नित्य शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, स्वभाव, कूटस्थ चैतन्य है।

ज्ञान रूप तथा मुक्त स्वरूप होने से ही कूटस्थ रूपी कौस्तुभ की इतनी ज्योति है। माला की अन्यान्य मणियाँ जीवात्मा और कौस्तुभ कूटस्थ चैतन्य है।

यही कौस्तुभ और मणि से युक्त माला का भाव है।

भगवान के चार हाथ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष रूपी चतुर्वर्ग के प्रदान करने वाले हैं।

शंख, चक्र, गदा और पद्म एक भी इसी चतुर्वर्ग के परिचायक हैं।

शेषशायी भगवान् विष्णु के साथ सर्व शक्तिमान जगन्माता द्वारा जेविह तत्वातीत और जीव को चतुर्वर्ग फल देने वाले भगवान का सम्बन्ध रहने से उनके भावों में चित्त विलीन करके भक्त लोग शीघ्र ही प्रकृति को प्राप्त कर सकते हैं।

शिव -

योगशास्त्र में देवाधिदेव महादेव जी का रूप जो वर्णन किया गया है, वह इस प्रकार है-

ध्यायेन्नित्य महेशं रजतगिरिनिमं चरुचन्द्राऽतंसम्। रत्नाकल्पोज्ज्वलाँगं परशुसृगवराऽभीतिहस्त्रं प्रसन्नम्॥

पद्मासीनं समन्तात स्तुतवमरनणैर्ध्याघ्र कृतिंवसानम्। विश्व द्यं विश्ववीजं निखिलभयहरं पंचवक्वं त्रिनेत्रम्॥

भगवान शिव के इस ध्यान में वे चाँदी के पर्वत के समान श्वेतवर्ण तथा चन्द्रकला से भूषित हैं।

वे उज्ज्वल, प्रसन्नचित्त तथा चतुर्हस्त में परशु, मृग, वर और अभय के धारण करने वाले हैं।

व्याघ्रचर्म के पहनने वाले देवाधिदेव परमात्मा सभी देवताओं के आराध्य हैं और संसार के आदि कारण भवभयनाशी पंचमुख तथा त्रिनेत्र हैं।

शिवजी का यह भाव सृष्टि स्थिति प्रलयकारी ईश्वर का भाव है जो सृष्टि के साथ ही साथ जीव को आत्यंतिक प्रलय के द्वारा भवभयनाशी मुक्ति पर प्रदान भी करते हैं।

इस शिव रूप परमात्मा के तमोगुणमय संहार भाव को धारण करने से रुद्रमूर्ति भी प्रकट होती है जो प्रलय के समय समस्त ब्रह्माण्ड का नाश करती है।

अतः शिवरूप में एक शाँतिमय ईश्वर भाव और दूसरा संहारकारी रुद्र भाव विराजमान है।

प्रकृति का समस्त विलास उन्हीं की कृपा से उनके अन्दर प्रकाशमान है। इसीलिए उनके शरीर का रंग श्वेत हैं। क्योंकि जहाँ प्राकृतिक समस्त वर्णों का विकास होता है वहाँ श्वेतवर्ण ही होता है।

उनका पंचमुख स्वरूप प्राकृतिक पंचतत्वों का रूप है, जिसके विलास के द्वारा अपूर्व शोभामय ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति होती है, इसीलिए शिवजी के पंचमुखों का हास्य ही प्रकृति की ब्रह्माण्ड विकासमयी दिव्य छटा है।

उनके दो नेत्र पृथ्वी के तथा आकाश के हैं, तृतीय नेत्र अथवा ज्ञानाग्नि है। क्योंकि सूर्यात्मा बुद्धि का अधिदैव है, इसलिए इसी ज्ञाननेत्र के द्वारा मदनभस्म हुआ था।

चतुर्थ ज्योति का स्थान चन्द्रकला है, जो ज्योति का भी आधार और मन का भी अधिदैव होने से संसार का प्रकाशक है।

उनके ईश्वर भावों में ‘त्रिशूल’ त्रिगुण का रूप है, जिसके ऊपर विश्वरूपी वाराणसी स्थित है। जब तक शिव की सत्ता त्रिगुणमयी प्रकृति के भीतर प्रकट रहेगी, तब तक वाराणसी का नाश नहीं हो सकता।

शिवजी के चारों हाथों में परशुमृगवराभीतिमुक्ता के द्वारा चतुर्वर्ग फल-दान शक्ति सूचित की गई है। यथा- जिस हस्त में मृग है, उसी हस्त में अर्थात् सकल मनोरथ पूर्णकारी मृगमुद्रा है।

जिस हस्त में वर है, उसी में धर्म है, क्योंकि धर्म के वरणीय सुख की प्राप्ति असम्भव है और जिस हस्त में अभय है, उसी हस्त में मोक्ष है क्योंकि बिना मोक्ष के आत्यान्त्रिक भयनाश अथवा भवभय-नाश नहीं हो सकता।

शिवजी के अन्य दो भाव और हैं, जिनमें से एक में प्राकृतिक-प्रलय और दूसरे में आत्यन्तिक-प्रलय अर्थात् मुक्ति का भाव बताया गया है।

इस भाव में शिवजी त्रिशूलधारी, भुजंगभूषण भस्मविभूषित, श्मशानवासी, कपालमस्त्री, श्वेतकाय, हरिप्रिय, व्याघ्राम्बरधारी तथा भिखारी हैं।

शिवजी के ये सब रूप प्राकृतिक-प्रलय तथा आत्यन्तिक प्रलय के भावानुसार प्रकट होते हैं। जिस समय एक ब्रह्माण्ड का नाश हो जाता है, वही प्राकृतिक या महाप्रलय का काल होता है।

उस समय ईश्वर की तामसिक शक्ति रुद्ररूप या कालरूप धारण करके संसार को नष्ट कर देती है। द्वितीय अर्थात् आत्यन्तिक-प्रलय मुक्ति को कहते हैं, जिस समय जीव ब्रह्म में विलीन होकर पृथक सत्ता को छोड़ देता है। इस प्रलय के साथ महाकालरूपी परमात्मा का सम्बन्ध रहता है-यह भी शिवजी का एक भाव है।

शिवजी का त्रिशूल सृष्टि नाशकारी रुद्रभाव में अदृष्ट का चिह्न है।

जो सर्वथा अबाधित, सर्वनाशकारी और अति प्रबल पराक्रान्त है, जिसके तेज से समस्त संसार को प्रलय काल में काल के गर्भ में निमग्न होना पड़ता है, परन्तु शिवजी के मुक्तिप्रदाता महाकाल भाव में यही त्रिशूल आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक दुःख रूपी ‘त्रिविध शूल’ का रूप है, क्योंकि इन्हीं त्रिविध शूलों के द्वारा पीड़ित होकर ही जीव मुक्ति के लिये महाकाल रूपी शिवजी की शरण लेता है।

आध्यात्मिक, आधिदैविक व आधिभौतिक- इन तीनों प्रकार के दुःखों के द्वारा पीड़ित होकर ही जीव त्रिविध-दुःख-नाशक मुक्ति के लिए जिज्ञासा करता है।

रुद्रभाव में भुजंगभूषण, भस्मलेपक, श्मशानवास, अस्थिमाला, नरकपाल आदि नाश का रूप प्रकाश करने वाला है।

जब रुद्र के द्वारा संसार का नाश होता है जो उनका अलंकार सोने-चाँदी से निर्मित न होकर अत्यन्त तमोगुणी और प्राणनाशकारी सर्प ही होना चाहिए इसलिए, रुद्रमूर्ति भुजंगभूषण है तथा यह भी इसमें दूसरा भाव है कि सर्प जैसा क्रूर तथा हिंस्र जीव भी काल के द्वारा वशीभूत रहता है। जिससे काल की सर्व ग्रासकारी अमोघगति सिद्ध होती है।

प्रलय काल में समस्त संसार का नाश होकर भस्म ही शेष रह जाता है तथा प्रत्येक जीव का अन्तिम परिणाम भस्म ही है तथा इसी परिणाम के कर्त्ता रुद्रजी हैं, इसीलिए उनका शरीर भस्म-भूषित है, चन्दन चर्चित नहीं है।

समस्त संसार को नष्ट करके श्मशान बनाने वाले रुद्रजी के लिए श्मशानवास विज्ञान सिद्ध होगा, अट्टालिकावास विज्ञान विरुद्ध होगा, इसीलिए रुद्र श्मशानवासी है।

अब इन सब वर्णनों के साथ महाकालरूपी मुक्ति प्रदाता शिवजी का क्या सम्बन्ध है? आओ, इस पर हम कुछ विचार करें।

महाकाल में अपनी सत्ता को विलीन करके जीव जिस समय मुक्ति पद प्राप्त करता है, उस समय उसकी द्वन्द्व बहुल प्रकृति शाँत हो जाने से धर्म, अधर्म, पाप-पुण्य, सत्वगुण-तमोगुण आदि समस्त विरुद्ध वृत्तियाँ उसमें लय होकर एकाकार भाव को प्राप्त हो जाती हैं।

इसकी सूचना के लिए महाकाल भुजंग-भूषण हैं अर्थात् महाकाल की प्रकृति में प्रबल तमोगुण का रूप सर्प भी अपनी हिंसावृत्ति को भूलकर सत्त्वगुण के साथ शोभायमान है।

“जगदम्बा गृहिणी और कुबेर उनका भण्डारी होने पर भी महाकाल रूपी शिवजी का श्मशानवास भस्मविभूषण भिक्षापात्र हस्त में लेकर भिक्षार्थ पर्यटन, त्याग और वैराग्य भाव की सूचना करता है क्योंकि त्याग तथा वैराग्य का ही सम्बन्ध मुक्ति के साथ है।

समस्त संसार की विभूति को छोड़ कर जो मुमुक्षु भिक्षापात्र हाथ में लेकर संन्यासी बन सकते हैं, वे ही मुक्ति के अधिकारी हो सकते हैं और महाकाल के प्रिय बन सकते हैं।

कालरूप रुद्र व्याघ्राम्बरधारी हैं, परन्तु महाकाल दिग्वसन या नग्न है। चाहे कितना ही बलशाली जीव हो, काल सभी को ग्रास करता है और सभी की खाल खींचकर उसे मृत्यु के ग्रास में डालता है, इसी भाव के प्रकाश करने के अर्थ रुद्र व्याघ्राम्बरधारी हैं, क्योंकि हिंस्र-पशुओं में शेर सब से बलवान है, परन्तु उसकी भी खाल खींचकर रुद्र अपना वस्त्र बनाया है।

अन्य वेश में महाकाल के शरीर में कोई वस्त्र नहीं है, जिसका यह तात्पर्य है कि महाकाल रूपी परमात्मा देशकाल के द्वारा अपरिच्छिन्न और अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड में सर्वव्यापक है। जो वस्तु असीम और सर्वव्यापक है उसे वस्त्र के द्वारा ससीम और आवृत नहीं कर सकते। इसलिए महाकाल दिग्वसन हैं परन्तु काल का सम्बन्ध एक-एक ब्रह्माण्ड के साथ रहने के कारण काल की सीमा ब्रह्माण्ड की आयु के द्वारा परिच्छिन्न है, इसलिए कालरूप रुद्र वस्त्र पहना करते हैं।

महाकाल का तृतीय नेत्र ज्ञाननेत्र है। इसलिए उसकी स्थिति कूटस्थ चैतन्य के स्थान के ऊपर ललाट में है।

ज्ञान नेत्र का स्वरूप बताने के लिए ही उसी नेत्र के द्वारा मदन दहन का वृत्तांत शास्त्र में प्रसिद्ध किया गया है। यही ज्ञानस्वरूप शिवजी का तृतीय नेत्र है।

शिवजी पृथ्वी तत्व के अधीश्वर हैं, इसलिए पृथ्वी तत्व की सर्वश्रेष्ठ विकास भूमि हिमालय का सर्वोच्च शिखर कैलाश शिवजी का स्थान है।

शिवजी का वाहन वृषभ ‘धर्म’ का रूप है, क्योंकि धर्म का ही आश्रय करके संसार में शिवराजा के द्वारा समस्त कार्य होता है।

पशु जाति में सत्वगुण का पूर्ण विकास गौ में ही है और सत्वगुण की पूर्णता में ही धर्म का पूर्ण विकास है। इसलिए शिवजी का वाहन वृषभ है।

यही सब प्रकृति लीला मूलक भावों के अनुसार सगुण शिवोपासना परायण-भक्त की सहायता के लिए शिवजी की मूर्ति का रहस्य है।

दुर्गा -

शक्ति के, माता भवानी के विभिन्न रूपों में देवी का रूप ‘दुर्गा’ माना गया है-

“महिषासुर रूप तमोगुण को सिंह रूपी रजोगुण ने परास्त किया है। ऐसे सिंह के ऊपर आरोहण की हुई सिंहवाहिनी माता दुर्गा हैं जो कि शुद्ध सत्त्वगुणमयी ब्रह्मरूपिणी सर्वव्यापिनी और दशदिग्रुपी दस हस्तों में शस्त्र धारण पूर्वक पूर्ण शक्ति शालिनी हैं।”

उनके एक ओर बुद्धि के अधिष्ठाता गणपति तथा धन की अधिष्ठात्री लक्ष्मीदेवी और दूसरी ओर बल के अधिष्ठाता कार्तिकेय तथा विद्या की अधिष्ठात्री सरस्वती विद्यमान हैं अतः बुद्धि, धन, विद्या और बल संयुक्त सर्वशक्तिमयी सगुण ब्रह्मरूपिणी दुर्गादेवी ‘जग जननी महामाया’ है।

प्रकृति की अनन्त शोभा, अनन्त विलास और दिगन्तव्यापिनी अनन्त शक्ति के अनुसार ही उनकी मूर्ति बनाई जाती है। संसार की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के विधानांतर्गत दश महाविद्या आदि अनेक भावों में उनका रूप वर्णन ध्यान और पूजा होती है।

विष्णु के प्रधान सात भेद, शिवरूप के प्रधान पाँच भेद और शक्ति रूप के प्रधान 24 भेद तन्त्रों में कहे गये हैं, जिनमें से दस प्रधान भेद “दशामहाविद्या” कहलाते हैं।

उक्त दशमहाविद्याओं में काली, भवानी रूप प्रथम है। काल के साथ सम्बन्ध होने से तथा आदि स्वरूपा होने से “आद्या-काली” माता-भवानी का नाम है।

काली सबकी आदि, अनादि रूपिणी और समस्त संसार की सृष्टि-स्थिति-प्रलयकारिणी हैं।

निराकार और साकार भेद से उनका ध्यान द्विविध है। उनके रूप-रहित स्वरूप का ध्यान योगी लोग समाधि अवस्था में करते हैं वह स्थूल इंद्रियों से अगम्य, वाक्य और मन के अतीत, अव्यक्त, सर्वव्यापी और अनिर्देश्य है।

इस प्रकार के निराकार स्वरूप का ध्यान अति कठिन होने से मन धारणा और शीघ्र अभीष्ट सिद्धि के लिए सूक्ष्म ध्यान में अधिकार प्राप्ति के अर्थ स्थूल ध्यान का विधान किया गया है।

जिस प्रकार श्वेत, पीत आदि सभी वर्ण कृष्ण वर्ण में लय हो जाते हैं, उसी प्रकार महाशक्ति रूपिणी काली के गर्भ में सभी जीव लय प्राप्त होते हैं-इसी भाव को प्रकट करने के लिए काली का वर्ण कृष्ण निरूपित किया गया है।

नित्या, कालरूपी, अव्यया और शिवात्मारूपिणी माता के अमृत रूप होने से सुधाधार चन्द्रमा का चिह्न ललाट में रक्खा गया है।

शशि, सूर्य और अग्नि रूपी त्रिनेत्र के द्वारा प्रकृतिमाता विश्व का निरीक्षण करती है- इसलिए उनके तीन नेत्र हैं।

समस्त जीव को काली ग्रास करती है और कालदन्त से चर्वण करती है इसलिए ग्रस्त जीवों की रक्तराशि ही उनका वस्त्ररूप है।

समय-समय पर विपत्तियों से जीवों की रक्षा तथा सकल कार्य-प्रेरणा के कारण वर और अभय उनके हस्त में है।

रजोगुण से उत्पन्न विश्व को आवृत करके विराजमान रहती हैं, इसलिए माता रक्त पद्मासनास्था करके वर्णित की गई हैं।

मोहमयी मदिरा को पान करके काल नृत्य करता और चिन्मयी माता साक्षीरूप से काल की लीला को देखकर हास्य करती हैं यही उनके हास्यमय मुख विकास का कारण है।

इस प्रकार के साधारण अधिकारी के कल्याण के लिए गुणों के अनुसार जगजननी प्रकृति की विविध रूप कल्पना की गई है।

संसार का मायाजाल ही उनका केशपाश है, जो महामाया के पृष्ठ पर सुशोभित रहता है। केश समूह चंचल है इसलिए मायामुग्ध जीव सदा ही चंचल और परिणाम स्वभाव हैं। पक्षान्तर में मुक्तात्मागण माया में बन्द और चंचल न होकर स्थिर रहते हैं-इसलिये आद्या शक्ति मुक्त पुरुषों के लिए मुक्तकेशी अर्थात् मुक्तबन्धना है।

इस प्रकार देवी मूर्ति के और भी अनेक भावों पर विचार किया जा सकता है।

अतः यह सिद्धि होता है कि ‘भवानी’ का विश्व रूप-गुण-क्रियानुसार अनन्त भावों का ही विकास मात्र है।

गणेश -

शास्त्रों में गणपति को ब्रह्माण्ड के सात्विक सुबुद्धि राज्य पर अधिष्ठाता देवता कहा गया है। गणपति परमात्मा के बुद्धि रूप हैं, सूर्य-चक्षुरूप हैं, शिव आत्मारूप और आद्या-प्रकृति जगदम्बा शक्ति रूप हैं। गणेश भगवान का शरीर स्थूल है, मुख गजेन्द्र का है उदर विशाल है, आकृति खर्व है, जिनके गण्डस्थल से मदधारा प्रवाहित हो रही है और भ्रमरगण गन्धलोम से चंचल हो कर गण्डस्थल में एकत्रित हो रहे हैं, जिन्होंने अपने दन्तों के आघात से शत्रुओं को विदीर्ण करके उनके रुधिर से सिन्दूर शोभा को धारण किया है और उनका स्वरूप समस्त कर्मों में सिद्धि प्रदान करने वाला है।

गणेशजी का लम्बोदर स्वरूप सुबुद्धि की गंभीरता का सूचक है। द्वैतभाव में प्रपंच का विस्तार है, गाम्भीर्य नहीं और सुबुद्धि परिणामी अद्वैतभाव में प्रपंच का विस्तार नहीं, किंतु भाव की गम्भीरता अवश्य है, यही लम्बोदर होने का तात्पर्य है।

गजेन्द्रवहन का मदस्राव सुबुद्धि मथित ज्ञानामृत है, जिसके पान करने के लिए “मुमुक्षु मधुकर” सदा ही व्यग्र रहते हैं।

सुबुद्धि की सहायता से सकल कार्य सिद्ध होते हैं, इसलिये गणेशजी सिद्धिदाता के रूप में प्रसिद्ध हैं।

गणेशजी सुबुद्धि के साकार स्वरूप हैं तो उनका वाहन मूषक कुतर्क का रूप है। जिस प्रकार किसी वस्तु का मूल्य और आवश्यकता न समझकर सभी को काट देना मूषक का स्वभाव है, उसी प्रकार कुतर्की का भी स्वभाव यह है कि किसी विज्ञान अथवा उसकी गंभीरता आदि को न समझकर सब का खण्डन कर देवे।

इसलिये सुबुद्धि के देवता गणेशजी के वाहन रूप में मूषक रूपी कुबुद्धि को दिखाया गया है।

प्रज्ञा-बुद्धि तर्क के द्वारा नहीं प्राप्त होती। जो चिंता से अतीत भाव समूह हैं उन्हें तर्क के द्वारा प्राप्त करने की स्पर्द्धा नहीं करनी चाहिये। इस प्रकार विचार तथा शास्त्र प्रमाण द्वारा जितनी सुबुद्धि सुलभ श्रद्धा, भक्ति आदि वृद्धिगत होती है, उतनी ही चित्त में से तर्क बुद्धि कम होती जाती है। इसलिये-

सुबुद्धि के संचालक गणेश भगवान जितने वृहत्काय हैं, कुतर्क रूपी मूषक भी उतना ही क्षुद्रकाय है।

यही सब प्रकृति लीला जनित भावानुसार गणपति-भगवान के रूप वर्णन का तात्पर्य है।


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