शक्ति का दुर्दमनीय केन्द्र

January 1957

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(प्रो. अवधूत, गोरेगाँव)

“प्रत्येकमस्ति चिच्छक्तिर्जीव शक्ति स्वरूपिणी।”

“प्रत्येक जीव में चैतन्य शक्ति (आत्मा की अनन्त और अपार शक्ति) वर्तमान है।”

शक्ति से ही मनुष्य पहले धर्म प्राप्त करता है, पुनः उसी से अर्थ सिद्ध करते हुए पुण्य संचय करके कामनाओं की पूर्ति करने में समर्थ होता है, अन्त में इसी शक्ति से पूर्ण त्याग एवं ज्ञान के द्वारा मोक्ष पा जाता है।

अपनी शक्ति के प्रवाह का समुचित प्रयोग करना ही पुरुषार्थ है। इस प्रकार शक्ति सम्पन्नता को स्वार्थ सिद्धि के विरुद्ध दूसरों के हित में लगाते रहना ही उन्नति पथ पर बढ़ते जाना है।

शक्ति की कहीं किसी से भीख नहीं माँगनी है, यह तो सबको स्वतः प्राप्त है। किंतु, जब तक ज्ञान, विवेक का उदय नहीं होता, तब तक देह द्वारा निरर्थक क्रिया करते हुए, प्राणों की निरर्थक चेष्टा पर ध्यान न देते हुए एवं इन्द्रियों द्वारा व्यर्थ व्यापार फैलाते हुए अथवा मन द्वारा प्रपंचमय विचारों को स्थान देते हुए और उनका मनन करते हुए, इसी प्रकार बुद्धि द्वारा असद्भावनाओं को सत्य मानते हुए मानव अपने जीवन में सुलभ शक्ति का दुरुपयोग करता रहता है।

कदाचित् हमारा वर्तमान जीवन सद्गुणों और सद्भावों से रहित है, तो हम शक्ति के सदुपयोग से किसी भी प्रकार के अभाव को दूर कर तुच्छ से महान हो सकते हैं।

देह, प्राण, इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि के द्वारा दुरुपयोगित शक्ति का सदुपयोग होने के लिये ही पूजा--पाठ, कीर्तन, जप-तप और ध्यान आदि अनेकों साधनों का आश्रय लेना पड़ता है।

जिस प्रकार हमारा यह भौतिक शरीर-क्षेत्र इसी भूलोक के द्रव्यों का बना हुआ है। उसी प्रकार हमारे प्राणमय मनोमय और विज्ञानमय क्षेत्र उत्तरोत्तर सूक्ष्मातिसूक्ष्म लोकों के द्वारा निर्मित है। प्रत्येक क्षेत्र में भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्ति है और अपने-2 लोकों की द्रव्य-शक्ति को लेकर प्रत्येक क्षेत्र क्रियाशील हो रहे हैं। जिस क्षेत्र में क्रिया की प्रधानता रहती है, वही क्षेत्र विशेष-शक्ति सम्पन्न होता है।

स्थूल क्षेत्र में संग्रहित शक्ति के द्वारा स्थूल कर्म भली प्रकार सिद्ध होते रहते हैं। प्राणमय सूक्ष्म क्षेत्र में प्राण शक्ति के द्वारा विविध विषय वासनाओं तथा कामनाओं की पूर्ति होती रहती है। इसी प्रकार मनोमय क्षेत्र में केन्द्रित शक्ति के द्वारा विविध भाव एवं इच्छा एवं संकल्प की सिद्धि होती है। इससे भी ऊपर विज्ञानमय क्षेत्र में विकसित शक्ति के योग से अद्भुत प्रतिभा-युक्त ज्ञान का प्रकाश होता है। इसी ज्ञानलोक में परमार्थ का पथिक अपनी बिखरती हुई बहिर्मुख शक्ति को अन्तर्मुख करते हुए अपने परम लक्ष्य की ओर अग्रसर होने में समर्थ होता है।

जिस प्रकार भौतिक-भवन को दूसरे रूप में बदलने के लिए उचित सम्पत्ति की आवश्यकता है, उसी प्रकार इच्छित रूप में अपने भाग्य-भवन को बदलने के लिए भी शक्ति और पुण्य रूपी सम्पत्ति की आवश्यकता है। तप के द्वारा शक्ति और सेवा के द्वारा पुण्य रूपी सम्पत्ति की आवश्यकता है।

तप के द्वारा शक्ति और सेवा के द्वारा पुण्य रूपी सम्पत्ति प्राप्त होती है।

शक्ति के दुरुपयोग से दुर्भाग्य और सदुपयोग से सौभाग्य की प्राप्ति होती है।

साँसारिक स्वार्थ को ही सिद्ध करते रहना शक्ति का दुरुपयोग है लेकिन परोपकार करते हुए अपना परमार्थ सिद्ध कर लेना शक्ति का सदुपयोग है। संसार में आसक्त रहना शक्ति का दुरुपयोग है और त्याग के द्वारा ज्ञान तथा भक्ति में अनुरक्त होना शक्ति का सदुपयोग है। अहंकारपूर्वक अपनी शक्ति से किसी को गिरा देना शक्ति का दुरुपयोग है और गिरे हुओं को सरल भाव से तत्परता पूर्वक उठा लेना शक्ति का सदुपयोग है।

संयम-साधना के द्वारा शक्ति का विचार करने के लिए शक्ति के समुचित सदुपयोग की सिद्धि के लिए ही मन्दिरों में, तीर्थस्थानों में, शक्ति-पीठों में, वनों-उपवनों में समयानुसार जाने की प्रक्रिया हमारे देश में चली आ रही है। ऐसे पावन-स्थानों में अपने अन्तः क्षेत्रों के भीतर की सुप्त-शक्ति सहज प्रयास से ही जागृत हो जाती है।

हम सबको ध्यान देकर निरीक्षण करते रहना चाहिए कि शक्ति का किसी भी क्रिया, चेष्टा, भाव एवं विचार के द्वारा दुरुपयोग हो रहा है अथवा सदुपयोग।

इस प्रकार हम अपनी प्राप्त-शक्ति की अधिकाधिक वृद्धि कर सकते हैं। शुद्ध सात्विक आहार और विषय-संयम से शारीरिक उन्नति होती है। सद्व्यवहार एवं सद्गुण विकास से मानसिक उन्नति होती है। सन्त-सद्गुरु समागम के द्वारा प्राप्त ज्ञान से बौद्धिक उन्नति होती है और निष्काम-प्रेम एवं सत्य-स्वरूप के ध्यान से आत्मोन्नति होती है।

हमें सर्वप्रथम सन्तों के सत्संग की सर्वोपरि आवश्यकता है, जिससे हम विवेक की दृष्टि प्राप्त करें तदंतर हम आत्म-संयम की साधना धारण करें, क्योंकि बुद्धिमतापूर्वक आत्म-संयम से ही शक्ति सम्पन्न होकर आनन्द और शान्ति के परमधाम की प्राप्ति की जा सकती है।

प्रत्येक क्षेत्र में शक्ति की प्राप्ति एवं निर्बलता का अभाव ही मानवी-उत्थान अथवा शक्ति का सदुपयोग है। जब हम भय की जगह निर्भय होकर प्रत्येक कठिनाई को परास्त करने में समर्थ हो जायें और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते ही चले जायें तथा जब हमें सदा शक्ति की महती कृपा का अनुभव होने लगे, तब हम शक्ति का सदुपयोग करने वाले व्यक्ति के रूप में अपने आप को पाकर धन्य हो जायेंगे।


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