आग से खेलना बन्द कीजिए।

January 1957

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(श्री बाबा राघव दास जी)

धूम्रपान भारतीय समाज की अपनी चीज नहीं है, वह विदेशियों की नकल है। तम्बाकू अमेरिका से भारत में आया और आज उसके लिये वह काल बन गया है। भारतीय समाज अग्नि-पूजक समाज है। ब्रह्मचर्यावस्था में हवन की अग्नि, विवाह की अग्नि और अन्य में चिता की अग्नि के साथ हमारा जीवन संलग्न है। आज दुर्भाग्य से हमारे यहाँ कुछ लोगों ने धूम्रपान की अग्नि को जगाना शुरू कर दिया है। पारसी तथा सिख भाई अग्निपूजक होने के नाते धूम्रपान से बहुत परहेज करते हैं। पर हम तो ब्रह्मज्ञान की बातें करते-करते इतने उदार हो गये हैं कि धूम्रपान में अग्नि का अपमान होता है, इस बात को भी भूल गए हैं। रूस के संत-साहित्यकार महात्मा टॉलस्टाय महोदय ने अपने एक निबन्ध में ‘मनुष्य धूम्रपान क्यों कर करता है।’ इसकी चर्चा करते हुए लिखा कि जब मनुष्य विवेक के विरुद्ध आचरण करता है तब उसका मन उसको खाने लगता है। विवेक उसमें उद्विग्नता पैदा करता है, एक बेचैनी पैदा करता है और उस बेचैनी से बचने के लिए मनुष्य मूर्खतावश धूम्रपान करता है। यह भी एक नशा है जो विवेक को खो देता है। इस पर उन्होंने एक उदाहरण दिया है-

एक मनुष्य था, जो अपने शत्रु को मार डालने के लिए पिस्तौल लेकर रात्रि के समय उसके पास पहुँचा। शत्रु सोया था। उसका वह निरपराध चेहरा देखकर उसे मरने वाले के मन में विवेक पैदा हुआ कि ‘इस निरपराध को मैं क्यों मारूं।’ विचार करते-करते वह धीरे-धीरे वहाँ से हट आया। गैलरी में खड़े हुए कुछ ही मिनटों के बाद उसने सिगरेट निकाली, उसको सुलगाया और दो कश लगाये। इससे उसका विवेक नष्ट हो गया वह चट से भीतर गया और उस सोये हुए मनुष्य को उसने पिस्तौल से मार दिया। उसको उस समय यह भान ही नहीं रहा कि वह सोया है, निरपराध है। इससे स्पष्ट होता है कि धूम्रपान विवेक को दबाने का काम करता है। आज यह धूम्रपान अपनी बुलंदी पर है। बम्बई जैसे 36 लाख की जन-संख्या वाले नगर में 18 करोड़ रुपयों की बीड़ी, सिगरेट, सिगार लोग प्रतिवर्ष पीते हैं। बीड़ी वाले एक सेठ ने अपने बयान में बताया है कि इन पाँच वर्षों में बीड़ी का प्रचार पाँच गुना बढ़ गया है।

हम लोगों ने एक गाँव की जाँच की तो मालूम हुआ कि साल भर में जहाँ दो हजार रुपये का कपड़ा खरीदा जाता है वहाँ पान, बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू आदि ग्यारह हजार रुपयों के खरीदे जाते हैं।

गुजरात के एक गाँव में देखा चार हजार की आबादी है और 32 बीड़ी की दुकानें हैं। पिछले दस वर्षों पूर्व वहाँ एक भी क्षय रोग का बीमार नहीं था, पर जबसे बीड़ी का प्रचार बढ़ा, तबसे पिछले 10 वर्षों में प्रतिवर्ष करीब 2,25 आदमी तपेदिक से बीमार पड़ते हैं और उनमें औसतन दस आदमी इस रोग से मर जाते हैं।

भारत सरकार की स्वास्थ्य-मंत्रिणी महोदया ने कहा कि जो आँकड़े मिले हैं, उससे मालूम होता है कि भारत में 25 लाख रोगी हैं। पर वस्तुतः इनकी संख्या इससे भी अधिक है। हम समझते हैं कि वह 36 लाख के करीब अर्थात् प्रति सौ मनुष्यों में एक मनुष्य क्षय रोग का शिकार बना हुआ है। इस रोग के अनेक कारणों में गुजरात के गाँव के अनुभव से धूम्रपान भी एक बड़ा कारण हो सकता है। आज धूम्रपान का बोलबाला है। सरकार उसका बड़ा लिहाज करती है। इसी से उस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है।

दिन हो चाहे रात, बाजार हो या हाट, श्मशान हो या घाट, स्त्री हो या बच्चे सभी जगह इसका प्रवेश है। जब चाहे, जहाँ चाहे, जैसे चाहे धूम्रपान प्रचारक जा बकते हैं, लाउडस्पीकर नाच आदि द्वारा प्रचार कर सकते हैं। पर हमारा स्वास्थ्य विभाग या सरकार कुछ बोलने तथा रोक-टोक करने का साहस नहीं कर सकती है। लाडला महकमा है, यह कुछ बड़े-बड़े लोगों का, तभी तो इसे इतनी खुली छूट-रियायत दी जा रही है। दो-दो साल के बच्चों को हम बीड़ी पीते देखते हुए और घर-घर तपेदिक भी खैरात करते हुए देख रहे हैं। इससे सहज मन में आता है कि यह युग धूम्रपान का है। वह राजा है और उसके सामने बलशाली सरकार भी नतमस्तक है। इधर यह हालत है और उधर यही स्वास्थ्य-विभाग तपेदिक के एक-एक आने के सील प्रतिवर्ष बेचकर तपेदिक-क्षय रोग को रोकने का प्रयत्न करती है। पहले आग लगायी जाती है और बाद को दौड़कर पानी डालकर उसको रोकने का प्रयत्न किया जाता है कितना परिहास है हमारे स्वास्थ्य का।

जब मैंने लोकसभा के कुछ सदस्यों से इनके बारे में प्रश्न उठाने के लिए कहा तो उन्होंने अपनी लाचारी जाहिर की। वे प्रश्न उठायेंगे या नहीं, इसे तो भगवान जाने। पर मैं उसको जनता-जनार्दन के आधार से उठाना चाहता हूँ और अपने इष्ट देवता से हाथ जोड़कर पूछना चाहता हूँ कि धूम्रपान द्वारा भारतीय अपने राष्ट्र का मुँह जलाकर ही रहेगा या उससे उसको कभी छुटकारा भी मिलेगा।

हमारे देश के मुँह में आग लगाने का काम मरने के बाद श्मशान में पुत्र करता है। वह अग्नि लेकर के चलता है सबके साथ और चिता की तैयारी पूर्ण हो जाने पर अपने पिता के मुँह पर अग्नि रखता है, पर इस में ये धूम्रपान वाले पुत्र का काम स्वयं कर जीते जी अपने मुँह में अग्नि लगाकर पिता तथा पुत्र दोनों बन जाने का काम करते हैं। यह है इस समय की विशेषता। भगवान उस जीवित शव को बुद्धि दें, कि वह एक ही साथ एक ही समय पिता-पुत्र बनकर भारतीय समाज को अपमानित न करे।

इस प्रकार धूम्रपान विवेक का क्षय ही नहीं कर रहा बल्कि शरीर क्षय कर भारती राष्ट्र को यह सोचने के लिए विवश कर रहा है कि यदि उसे जिंदा रहना है, तो मुझसे बचो, नहीं तो, तुम्हारी इच्छा!


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