“सा विद्या या विमुक्तये”

January 1957

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(प्रो. श्री रघुनाथ लवानियाँ एम. ए.)

बन्धन से मुक्ति ही विद्याध्ययन का मूल उद्देश्य ही दैहिक, दैविक तथा भौतिक तापों का अन्त तथा शारीरिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक संतुलित विकास विद्या से ही सम्भव है। विद्या से अमृतत्त्व की उपलब्धि और अविद्या से सब प्रकार के बंधनों की प्राप्ति होती है। पुरुषार्थ चतुष्टय को अधिगत करने के लिए त्रिकालदर्शी ऋषियों ने विद्या को सर्वप्रथम स्थान दे उसके महत्व का दर्शन कराया। “अविद्या नेत पतनोन्मुख समस्त विघातक प्रवृत्तियों से परिचित रहते हुए विद्या जनित समस्त उन्मुखी प्रकृतियों की ओर प्रेरित करते रहने के लिए जो चिरकालिक है, उसी को शिक्षा कहा जाता है। इस सत्र की सफलता तथा पूर्ण समाप्ति पर ही हमारी सर्वांगपूर्ण उन्नति और उत्कर्ष अवलंबित है। तथा इसकी सफलता का आधारभूत है हमारी शिक्षा प्रणाली।

आज हमारे विद्यार्थी, विद्यादाता तथा कृतविद्य आदि अनेक प्रकार के दुःखों और बन्धनों से जकड़े हुए हैं। इसका दोष विद्या को नहीं, अपितु शिक्षा प्रणाली को ही है। विद्योपार्जन के ‘विद्या ददाति विनयम्’ आदि जो गुण हैं, वे खोजने पर भी अप्राप्य हैं। इसके विपरीत आधुनिक शिक्षा से जनित अनेक अवयव निश्चय ही बिना प्रयास मिल जाते हैं। सर्वांग उन्नति का प्रश्न तो दूर रहा, एकाँगी उन्नतिपूर्ण जनों से मिलना भी असम्भव सा है। मनुष्य अपनी इस परम्परा को बनाये हुए केवल नमूने मात्र रह गये हैं। स्वास्थ्य तथा नैतिक पतन की तो पराकाष्ठा ही छा गई है। इस दीन दशा के दो कारण स्पष्ट दृष्टिगोचर होते हैं-प्रथम कुछ अत्यंत आवश्यक विषयों का पाठ्यक्रम में अभाव और दूसरा धन की अनन्य रूप से उपासना। सर्वसाधारण का पढ़ना तो असंभव सा ही है। विद्या संस्कार कराने के पूर्व ही सैंकड़ों रुपयों का होना आवश्यक है। पग-पग पर धन की कमी प्रतीत होती है। अध्ययन का स्तर निम्न से निम्नतर होता जा रहा है। व्यवहारिक विषयों के अभाव तथा विदेशी शिक्षा ने निताँत रूपेण पंगु बना दिया है। यही उद्देश्य टी.वी. मैकाले आदि इस शिक्षा की नींव डालने वालों का भी था। भृत्य कर्म जो सबसे नीच माना जाता था, आज उसे ही प्राप्त करना हमारा उद्देश्य बन गया है। दूसरी ओर हमारी संस्कृत पाठशाला तथा गुरुकुल और महामहिम पण्डित मण्डली है। इन संस्थाओं में व्यवहारिक तथा वर्तमान युग में उपयोगिता विषयों का विद्यार्थियों को अध्ययन कराना यहाँ तक की अन्य देशी तथा विदेशी भाषाओं का ज्ञान करना कराना भी उन्हें अपमान और गुरुता में न्यूनता का द्योतक ज्ञात होता है। विशुद्ध संस्कृत शिक्षित पण्डितगण आधुनिक भावधारा को ग्रहण करने में विमुख तथा असमर्थ हो रहा है। वर्तमान जगत की विचित्र भावधारा, चिन्तनधारा और कर्मधारा का साधारण परिचय प्राप्त करने में भी समर्थ नहीं है। शास्त्रज्ञों का यह असामर्थ्य उतना ही देश के लिए अकल्याणकारी है, जितना कि एक निताँत भौतिकवादी पश्चिमोपासना की आज का संस्कृत का छात्र जहाँ कालेज के स्टूडेंट को हर तरह से अनुकरण करने को तैयार रहता है, वहाँ पर उसकी निर्भयता या उद्दण्डता तक नहीं पहुँच पाता। वह संकोच शील है, परन्तु इतना की उसका यह गुण, अवगुण बन जाता है। इसका कारण घुटे-घुटे से वातावरण में रहने से उसका विकसित न होना ही है। इसके अतिरिक्त पाठ्यक्रम में ऐक्य का अभाव और विभिन्न बोर्डों द्वारा परीक्षा प्रणाली भी एक भारी दोष है। दोनों प्रकार की वर्तमान शिक्षाप्रणाली अत्यंत खर्चीली व्यवहार-शून्य, अकर्मण्य, असंस्कृत, निराशावादी, द्वेष, कलहकारिणी और पतनोन्मुख बना देने वाली है।

बाह्य देशों की प्रणालियों के अनुकरण से हमें अपनी आत्मा का हनन तथा प्राचीन गौरव से हाथ धोने पड़ेंगे। अपने अतीत की ओर देखने से निराशा का कोई कारण नहीं रहता। प्राचीन शिक्षा प्रणाली सर्वांगपूर्ण उपादेय तथा व्यवहार्य थी। जितनी वह तब श्रेयस थी उतनी ही आज भी है। हमारे तत्कालीन गौरव और उन्नति के यश गाने वाला देशी तथा विदेशी इतिहास है, चाहे वह अपूर्ण ही क्यों न हो। गुरुकुल तथा ब्रह्मचर्याश्रमों के एक स्नातक को हम सर्वांगीण शिक्षित सर्वसामर्थ्य-सम्पन्न तथा एक उद्देश्य लेकर आते हुए पाते हैं। भारतीय मनीषियों, ऋषि, मुनि, तपस्वियों ने एक ओर जहाँ मनुष्य की नैतिक और आध्यात्मिक जीवन की चरम सीमा की सार्थकता से सम्पादित अनेक नखरों का सृजन किया और अनेक धर्मशास्त्री, मोक्षशास्त्री, योगशास्त्री दर्शनशास्त्री आदि पैदा कर भारत को देवों के लिए अभीप्सित बनाया, वहाँ दूसरी ओर लोककल्याणकारी ऐहिक अभ्युदय साधक जैसे अनेक जड़ वैज्ञानिक राष्ट्रनीति-ज्ञाता, वैद्य, युद्ध विद्या, विशारद, कृषि, शिल्प, कला, वाणिज्य, गौ-महिष, अश्व हन्ति आदि के पालन की विद्या, भूगोल भूगर्भ, जल विद्या आदि के ज्ञाता विविध विद्वानों के पैदा करने में भी पीछे नहीं रहे। मौर्य और गुप्त कालीन भारत के स्वर्ण युग के प्रमाण तो अभी प्रत्यक्ष हैं। तक्षशिला नालन्दा, विक्रमशिला आदि के भग्नावशेष कैसे भी वज्र हृदय को पिघलाने में समर्थ हैं। विभिन्न विषयों की सम्पूर्ण शिक्षा के केन्द्र इन्हीं में चाणक्य जैसे राजनीतिज्ञ और कौमारजीव शल्य चिकित्सक (सर्जन) अध्यापक थे। विदेशी भी बिना यहाँ अध्ययन किये अपनी विद्या को अपूर्ण जानते थे। देश और जाति के बन्धनों से मुक्त शिक्षा दी जाती थी।

देश की स्वतंत्रता तथा हिन्दी को राष्ट्र भाषा की घोषणा के साथ शिक्षा के माध्यम का प्रश्न ही समाप्त हो जाता है। अब केवल प्रश्न है सुसंगठित, सुदृढ़, सुसंविहित तथा सुचारु शिक्षा प्रणाली का। इसी क्षेत्र में क्राँतिकारी परिवर्तन करने हैं। सभी शिक्षण संस्थाओं का एकीकरण कर प्राचीन प्रणाली की रूप रेखाओं पर चलाना है। सभी गुरुकुलों ब्रह्मचर्याश्रमों और वर्तमान विद्यापीठों को एक ही सूत्र में पिरो देना है। विभिन्न विद्यालयों में शिक्षित विद्यार्थियों में कोई अन्तर न रहे। जब देश जाति धर्म और सबका उद्देश्य भी एक (देश की सर्वांग उन्नति) है, तो साधनों की आधारभूत संस्थाएं ही बिखरी दशा में क्यों रहें। सबका एक संविधान, एक पाठ्यक्रम संचालन के एक से नियम और एक ही अधिकारी वर्ग द्वारा संचालित विद्यालय देश के कोने-कोने और प्रान्तों के प्रमुख-प्रमुख स्थानों पर स्थापित हों। बिना किसी देश जाति के बन्धन के छात्रों का निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षण हो। प्राचीन काल की भाँति कुलपति ही सबका प्रबन्ध कर्त्ता हो और आर्थिक सहायता सरकार द्वारा दी जावे जो कि जनता से शिक्षण-कर के रूप में प्राप्त की जावे।

हमें किसी भी मूल्य पर आध्यात्मिक गुरु का पद नहीं त्यागना है। इसके लिए अत्यन्त क्लिष्ट और मृत भाषा होने पर भी संस्कृत पढ़नी पड़ेगी। हमें स्वयं जीवित रहने के लिए उसमें भी जीवन संचार करना पढ़ेगा। भारत की जातीय साधना और सभ्यता के साथ संस्कृत का नित्य अविच्छेद्य और प्राणगत सम्बन्ध है। “संस्कृत भाषा भारतीय प्राण की शब्दमयी मूर्ति है।” अतः एक श्रेणी विशेष तक संस्कृत का अध्ययन अनिवार्य हो। विभिन्न भौतिक और आध्यात्मिक शास्त्रों के अतिरिक्त व्यवहारोपयोगी विषयों का सन्निवेश पाठ्यक्रम में अवश्य ही रहे। संसार के साथ अपनी गति रखने के लिए, विचारों को समझने के लिए विदेशी भाषा का ज्ञान भी आवश्यक है। विज्ञान दर्शन और साहित्य की उच्च कक्षाओं में आँगल तथा जर्मन भाषा अनिवार्य होना विषय विशेष के साथ भी आवश्यक है। (जैसे विज्ञान के छात्रों के लिए जर्मन भाषा का वि. वि. में) शिक्षा के क्षेत्र में सर्वत्र साधारण ज्ञान की भित्ति के ऊपर ही विशेष ज्ञान की प्रतिष्ठा होनी चाहिए।

प्रत्येक व्यक्ति को विज्ञान के स्थूल सिद्धाँतों का परिचय, नीति, धर्मनीति से सम्बन्धित विभिन्न धाराओं का सूक्ष्मज्ञान तथा गणित शास्त्र से सामान्य परिचय रखना अत्यावश्यक है। इन विषयों का साधारण ज्ञान न होने पर वर्तमान युग में शिक्षाप्राप्त सभ्य पुरुष कहलाने का अधिकारी नहीं होता। इस प्रकार शिक्षित युवक सर्व-दृष्टि से पूर्ण और भारत का प्रतीक होगा। उसके हृदय में भारत के अतीत का, नेत्रों में वर्तमान का और मस्तिष्क में भविष्य का दर्शन होगा।

अन्त में एक नम्र निवेदन अपनी जनसेवी सरकार से है यद्यपि प्रत्येक कार्य के लिए सरकार से प्रार्थना करना मौर्ख्य, हास्यास्पद तथा व्यर्थ है। उसके समक्ष सैकड़ों समस्याएँ और सहस्रों योजनाएँ हैं, परन्तु जब तक यह शिक्षा-योजना कार्य रूप में सरकार द्वारा परिणत नहीं होती, तब तक जो संस्थाएँ इस आदर्श प्राचीन प्रणाली को अपनाए हुए हैं उन्हें अनेक प्रकार की सहायता देकर उत्साहित करें। तथा जो धनी सहृदय सज्जन इस कार्य में धन देकर सहायता दें, उनके उस दान दिये हुए धन पर ‘आयकर’ न लगावें तथा प्रचार कार्य द्वारा अन्य मनुष्यों से दान देने की अपील करें। इस प्रकार सरकार को भी अधिक कठिनाई या विवशता का सामना नहीं करना पड़ेगा और कार्य भी चलता रहेगा।

माँ सरस्वती वह दिन शीघ्र ही दिखाने की कृपा करे, जब हमारे देश के गुरु और शिष्य पुनः साथ बैठकर प्रार्थना करें -

“ॐ सहनाववतु, सहनौभुनक्तु, सहवीर्यं करवावहै। तेजस्विना वधीतमस्तु मा विद्विषाव है॥

कठ.।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here: