ईर्ष्या मत कर

January 1957

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(श्री हरिभाऊ उपाध्याय)

यदि तेरी आत्मा प्रतिष्ठा की प्यासी है, यदि तेरे कानों को प्रशंसा के उद्गारों से सुख होता है, तो जिस धूलि से-भौतिक पदार्थों से-तेरा पिंड बना है, उससे ऊपर उठ और उच्च तथा प्रशंसनीय वस्तु को अपना लक्ष्य बना।

इस वट-वृक्ष को देख, जिसकी शाखाएं अब आकाश तक फैल गयी हैं। यह किसी दिन पृथ्वी के गर्भ में एक छोटे से जीव के रूप में था।

प्रतिस्पर्धियों को बुरे और नीच उपायों से दबाने की इच्छा से घृणा कर, उनसे श्रेष्ठ बनकर ही अपने को ऊपर उठाने का प्रयत्न कर, जिससे तुझे इस लड़ाई में यदि सफलता न मिले, तो सम्मान अवश्य प्राप्त हो।

दबाए जाने पर भी ताड़ के पेड़ की तरह ऊँचा उठता चला जा, और आकाश में विहार करने वाले गरुड़ की तरह ऊँची उड़ान भरता हुआ भगवान भुवन-भास्कर के तेज पर भी अपनी दृष्टि रोपता है।

वह रात को स्वप्न में महान पुरुषों के आदर्शों को देखता और दिन-भर बड़े हर्ष के साथ उसका अनुसरण करता है।

वह बड़े-बड़े मंसूबे बाँधता और प्रसन्नता पूर्वक उनको पूर्ण करता है। इससे उसकी कीर्ति चारों ओर छा जाती है।

परन्तु मत्सरी मनुष्य का हृदय नेकी और कटुता से भरा रहता है। उसकी जबान जहर उगलती है, वह अपने सहवासी के उत्कर्ष को देख कर बेचैन हो जाता है।

स्वयं उसके हृदय में भलाई के प्रति प्रेम नहीं होता, इसलिए उसे यह विश्वास बना रहता है कि और लोग भी मेरी ही तरह हैं।

जो उससे आगे बढ़ते हैं, उन्हें वह समझता है कि कुछ नहीं हैं। उनके समस्त कार्यों को वह सबके सामने बड़े भद्दे रूप में पेश करता है।

वह हमेशा दूसरों के बुरे कामों की ताक में रहता है, परन्तु मनुष्य का अति द्वेष उसका पीछा नहीं छोड़ता और वह स्वयं मकड़ी की तरह अपने ही बनाये जालों में फँस जाता है।


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