मौन की अन्तर्ज्योति

January 1957

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(श्री सी.टी. वेणुगोपाल)

आज विश्व जिन संघर्षशील परिस्थितियों से गुजर रहा है और स्वार्थों की अन्ध लीकपर मानव आदर्शों की जिस प्रकार बलि दी जा रही है, उसे देखकर प्रत्येक आत्मचेता और शान्ति के उपासक को इस बात का अनुभव हो रहा है कि वर्तमान भौतिक विश्व का मन और सत्य प्राण की निष्ठा से दूर महानाश की ओर तीव्रता से अग्रसर हो रहा है। सम्पूर्ण समाज राष्ट्र और संसार लिप्सा तथा लालच के मद से व्यग्र अन्धकार की चादर में आत्मा के सत्य बोध को छिपाता चल रहा है। दूसरे पर हावी होना, बिना प्रयत्न अधिकार की माँग करना और बराबर असंतोष की अग्नि में जलते रहना आज के मनुष्य का चारित्रिक गुण बन गया है। झूठे भौतिक ज्ञान की चकाचौंध ने मनुष्य को अन्तश्चेतना से दूर फेंक दिया है और कार्य करण के वैज्ञानिक अनुसंधानों ने उसे एकाँत अनुभव के प्रेरक स्वरों से विमुख कर दिया है। यही कारण है कि व्यक्ति अपने भीतर, अपने परिवार की परिधि में, अपने राष्ट्र की इकाई और अन्तर विश्व के साथ हर क्षण, हर पग अभाव और असंतोष का अनुभव करता, हर प्रकार का अनाचार तथा पाप, बिना संकोच बिना रोक केवल संहारिक शक्तियों के अहंबल से करता जा रहा है। विश्व इस रोग से जितना आज पीड़ित है संभवतः अपने पुराने दिनों में कभी न रहा होगा क्योंकि प्राचीन स्वप्नद्रष्टा महर्षियों ने वस्तु से अधिक विचार की और, बाह्य संचरण से अधिक अन्त संचरण तथा अन्तर्ध्वनि को स्थान दिया था।

समय-परिवर्तन की ही देन है कि औद्योगिक क्रान्ति के साथ जमाने ने करवट ली और बड़ी आशा तथा विश्वास के साथ साधन सम्पन्न होते मनुष्य के नेत्र खुले-उसने सोचा, इसी भौतिक सुख की प्राप्ति में वह सम्पूर्ण सुख की प्राप्ति कर लेगा, किन्तु उसकी इस अवस्था पर निरन्तर संहार होने लगा। महायुद्धों की भयंकर विभीषिकाओं ने उसके सुख-स्वप्न की स्वर्णाभा को महानाश का द्योतक बताया। कारण स्पष्ट है। इस अंधाधुँध सुख-सामग्री के संग्रह के पीछे मनुष्य समाज का केवल निम्नकोटि का स्वार्थ है और जहाँ स्वार्थ से मिलती है, वहां भयावह नर-संहार भी अनिवार्य होता है, ऐसा इतिहास और पुराने अनुभवों से सिद्ध है।

तो आखिर इस परिस्थिति में मनुष्य के आत्म-गौरव उसके शाश्वत सत्य आदर्शों की रक्षा कैसे हो? युगीन आदर्शों के प्रवर्तक रामकृष्ण, ईसा, मुहम्मद और महामानव ‘बापू’ की वाणी कैसे साकार एवं सार्थक हो आदर्श की बात करना, धर्म की चर्चा करना और आत्मान्वेषण का संकेत करना तो अब केवल और ढोंग की संज्ञा पाकर परित्यक्त कर दिया जाता है। फिर क्या दवा है इस महानाश के बुनियादी रोग की, जिसकी जड़ें मनुष्य की धमनियों का रस चूस कर दिनोंदिन तथा दृढ़ सशक्त होती जा रही हैं। कितना भला होता यदि मनुष्य केवल वस्तुओं और प्राकृतिक शक्ति सम्पन्न वस्तुओं के अन्वेषण और विश्लेषण में ही खोया न रहता। महान् आवश्यकता इस बात की है कि वह अपने मन का, अपनी भाव-दृष्टि और अगोचर स्वरों का विश्लेषण कर सही मार्ग-दर्शन कर पाता। महात्माओं ने हर युग में अपने मन की प्रयोगशाला में यह सत्य पाया है कि अपनी भावनाओं की ईमानदारी से की गयी समीक्षा सदा सही मार्गदर्शित है, उसे अन्धकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर और मरण से अमरता की ओर ले चलती है। यह उसकी अमर उत्कण्ठा रही है, जिसके स्वरों की संवेदना का अमर श्लोक यों है-

‘असतो मा सद्गमय।’ ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय।’ ‘मृत्योर्मा अमृतं गमय।’

यदि मनुष्य-समाज उन प्रयोगों का आदर्श एक बार पुनः अपना पाता, तो मुझे विश्वास है कि विश्व की राक्षसी जिज्ञासा को शाँति तथा सत्य का निर्देश मिलता। मैं-केवल कहने के लिये बात कही जाय इसलिए ही ऊँचे आदर्श की बात करना प्रधान नहीं मानता। मेरे सम्मुख आज भी इसी युग की-थोड़े दिनों पूर्व घटने वाली दो ऐसी घटनाएं हैं जिनके प्रकाश में यदि मेरे उक्त कथन का विवेचन किया जाय, तो शायद संदेह और भ्रम का भली प्रकार निवारण हो जाय।

पहली घटना एक ऐसी महिला से सम्बन्धित है, जो बहुत बड़ी विज्ञानवेत्ता विदुषी और अध्ययन शीला है। हर वस्तु को, हर कारण तथा उसके परिणाम को वह बराबर ज्ञान के पलड़ों पर तौला करती थी। उसकी दृष्टि में आत्मा नाम की कोई शक्ति न थी, जिससे कभी प्रेरक वाणी या ध्वनि निकलती हो। उसकी विद्वत्ता ने उसे नास्तिक बना दिया था और वह सोचने लगी थी कि प्रकृति का संचालन प्रकृति की संघर्षशील द्वन्द्वात्मक शक्तियों मात्र से हो रहा है, इसके पीछे कोई प्रेरणा या प्रकाश ऐसा नहीं है, जो मनुष्य की पहुँच के बाहर हो। संयोग की बात थी कि इस महिला का पारिवारिक जीवन अतिशय कलहपूर्ण हो उठा था कुछ कारण वश उसकी छोटी बहिन और उसके पति उससे बुरी तरह रुष्ट हो गये थे जब भी उसने इन लोगों को प्रसन्न करने का प्रयत्न किया था, बराबर असफल रही। इस प्रकार की असफलता से उसकी निराशा बढ़ती गयी और धीरे-धीरे उसको विश्वास हो गया था कि अब भावी जीवन में कभी भी यह पारिवारिक कलह दूर न हो पायेगा। इस विदुषी को एक वृद्धा का सहवास मिला, जिसने उससे कहा, तुम एक बार अपना अहं छोड़कर मौन में विश्वास करो और नित्य-प्रति केवल आधे घंटे की मौन-साधना आरम्भ करो और साधना के इन क्षणों में अच्छी भावनाओं की ओर उन्मुख रहो। उस तर्कपूर्ण महिला की बुद्धि में पहले यह बात घुसी ही नहीं और उसने इस कार्य को केवल उपहास और व्यंग के साथ टाल दिया, किन्तु जब उसका मन इस कलह-पीड़ा से अतिशय उत्पीड़ित हो उठा और वह इसके निवारण के कुछ निमित्त कुछ भी करने को तत्पर हुई, तो उसने वृद्धा के आग्रह और आदेश पर मौन-व्रत धारण किया। कुछ दिनों तक उसने नित्य घंटे भर मौन रक्खा और फिर वृद्धा के पास जाकर कहा- ‘बूढ़ी माँ! मुझे इन दिनों केवल एक ही बात बार-बार परेशान करती रही कि मैं एक बार अपनी बहिन को सन्तुष्ट करने का और प्रयास करूं, किंतु मुझे तो यह विश्वास है कि मेरा फिर बहिन के पास जाना केवल निरर्थक ही नहीं आत्म-सम्मान के विरुद्ध भी होगा।’ वृद्धा स्त्री ने साँत्वना के स्वर में कहा- यदि तुम्हारे मौन का यही आदेश है तो तुम फिर एक बार वहाँ तक अवश्य जाओ-शायद तुम्हें महान परिवर्तन दिखायी पड़े।’ यह आदेश युवती को ठीक नहीं जान पड़ा। उसने सोचा समय और अर्थ यह सब फिर क्यों व्यर्थ लगाया जाय, कई बार जाकर देख चुकी हूँ कि कोई परिणाम नहीं निकलता। वृद्धा के कहने पर ही वह किसी प्रकार तैयार हुई और लम्बी यात्रा के बाद जब वह अपनी बहिन के यहाँ पहुँची तो देखा नौकर मकान में ताले लगा रहा था। नौकर ने उससे बताया कि उसकी मालकिन अपने पति के साथ बड़ी बहिन के यहाँ जा रही है। इस उत्तर से उसे बड़ा आश्चर्य हुआ और जब उसका अपनी छोटी बहिन से साक्षात्कार हुआ, तो बहिन तथा बहिन के पति ने बहुत विनम्र होकर क्षमा-याचना करते कहा- ‘हमसे बड़ा अपराध हुआ और सचमुच हमने आपके साथ यह बहुत बड़ा अन्याय किया जो आपको बराबर दुखी करते आये और इतने दिनों तक सम्बन्ध विहीन रखा।’

यह कहानी नहीं ‘एक सच्ची घटना है’ जिसने मेरे विश्वास को बड़ा बल दिया है और मुझे उस बूढ़ी माँ का यह कथन भूलता नहीं जो उसने विज्ञान की प्रकाण्ड पण्डिता युवती से कहा था- ‘बेटी! मौन ने तुम्हारे मन की एकाग्रता को जो बल दिया था और तुम्हारी उन क्षणों की शान्त सत्यनिष्ठा का जो प्रभाव था, उसने तुम्हारे क्रुद्ध सम्बन्धियों और बिछुड़े परिवार वालों के विचार में ऐसा महत्तम परिवर्तन उपस्थित किया।’

दूसरी घटना ब्रह्मा की पहाड़ियों में बसी बुद्ध धर्मावलम्बी नागरिकों की एक बस्ती से सम्बन्धित है, जहाँ कुछ दिनों पूर्व दिन-दहाड़े चोरियाँ होने लगी थीं और दिनों दिन अनाचार बढ़ने लगा था। एक बार वहाँ ऐसा हुआ कि एक किसान की गाय किसी ने चुरा ली और हजार ढूँढ़ने पर भी उसका पता न लगा। दुखी होकर उस किसान ने बस्ती भरके लोगों से निवेदन किया और सबकी पंचायत जुटी। उस गाँव के धर्मगुरु ने सभी एकत्र लोगों से कहा- ‘कोई किसी को दोष न दे। इससे केवल कटुता बढ़ेगी, अपने दोष की तह तक हम न पहुँच पायेंगे और जहाँ कटुता होती है वहाँ सत्य का दर्शन नहीं होता इसलिए सब लोग मौन रक्खें और एक घंटे के सामूहिक मौन में सभी यह सोचें कि हमारी बस्ती का कल्याण कैसे होगा?

इस घण्टे भर के मौन का परिणाम यह था कि उन्हीं किसानों की मण्डली से एक नौजवान स्वयं सिर नीचा किये खड़ा हो गया और उसने अपने अपराध की स्वीकृति के साथ बताया कि ‘मैंने गाय चुराई है और मुझे बड़ा दुःख है कि उसका माँस मैंने बेच डाला है। अब उसका मूल्य देने को मैं तैयार हूँ।’ उस आत्म स्वीकृति का पूरा बस्ती के वासियों पर अलौकिक प्रभाव पड़ा। क्रमशः इस मौन के प्रयोग से उस बस्ती का कलुष मिट गया और अब वहाँ जिस शान्ति तथा सुव्यवस्था का दर्शन होता है, उससे हमें महान शिक्षा और मानव की अन्तर्भूत आदर्श कल्पनाओं की सही स्वीकृति का सापेक्ष उदाहरण मिलता है।

कहने का तात्पर्य यह है कि अनाचार की ओर बढ़ते हुए आज के जमाने का मनुष्य यदि अहं और ढोंग त्यागकर परस्पर मिल-जुल कर मौन-मन से कष्ट का वास्तविक कारण ढूँढ़े और उसके निवारण का सही रूप में प्रयास करे तो सच्चे सुख की प्राप्ति दुर्लभ नहीं है। व्यक्ति के लिये इस मौन का इतना महान महत्व है कि यदि वह नित्य नियम से मौन का थोड़ा अभ्यास करे तो वह अपने भीतरी तत्वों का अन्वेषण और विश्लेषण करने में पूरी तरह सफल हो सकता है। उसके लिए उसे न तो बहुत तर्क-वितर्क करना है और न हठयोग की आवश्यकता है। केवल शाँतचित्त, सुन्दर, भावनाओं के संग्रह से उसे ऐसा प्रकाश प्राप्त होगा, जिसकी ज्योति से उसका जीवन-मार्ग ज्योर्तिमय हो उठेगा और अपने अभीष्ट की प्राप्ति में उसे सफलता दृष्टिगत होगी।


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