पतन का यह प्रवाह रोका जाय।

January 1957

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(श्री अगरचन्द जी नाहटा)

आवश्यकताओं की पूर्ति न होना और धन को अत्यधिक महत्व मिलना-ये दोनों अनैतिकता के प्रधान कारण हैं। ‘अभाव से स्वभाव नष्ट’ और ‘मरता क्या न करता’ -ये कहावतें इसी दीर्घकालीन अनुभव को व्यक्त करती हैं। विपत्ति के समय भी नीति में दृढ़ रहने वाले विरले ही होते हैं, ऐसे व्यक्तियों को ही आदर्श पुरुष बताकर धार्मिक ग्रन्थों में उनका गुणगान करते हुए जनता को वैसे बनने की प्रेरणा की गयी है।

अनैतिकता का जो दूसरा कारण है- वह तो सर्वथा हेय है। मध्ययुग में धन को बहुत महत्व दिया गया। समाज में सर्वाधिक प्रतिष्ठा उसी को मिली जिसके पास अधिक संग्रह है। विद्वानों एवं गुणीजनों का निर्वाह भी उन्हीं के द्वारा होने से विद्वान की प्रतिष्ठा फीकी पड़ गयी। मुद्रा के द्वारा वस्तुओं के लेने-देने का व्यवहार बढ़ने पर सब आवश्यकताओं की पूर्ति का माध्यम मुद्रा बन गयी। फलतः उसके अधिकाधिक संग्रह का प्रयत्न होना स्वभाविक था। ज्यों-ज्यों लाभ होता जाता है, मनुष्य का लोभ उसी अनुपात से बढ़ता जाता है, और उस लोभ तथा तृष्णा के कारण मानव नीति-अनीति का विचार भूलकर, जिस किसी भी प्रकार से हो मुद्रा एवं अन्यान्य वस्तुओं के अधिकाधिक संग्रह में जुट जाता है। इस वृत्ति के परिवार के लिए तत्व-चिन्तकों ने संतोष को ही परम सुख का कारण तथा जीवन के लिए आवश्यक बतलाया है, क्योंकि तृष्णा का कहीं अन्त नहीं, वह द्रौपदी के चीर की भाँति बढ़ती ही चली जाती है।

जीवन के प्रत्येक व्यवहार में स्वार्थवश अनैतिकता घुस गयी है। भारत में इस कलुषित वृत्ति को हटाने के लिये बड़े-बड़े धर्मग्रन्थों का निर्माण हुआ। विधि, नियम बनाये गये। हजारों कथाओं का निर्माण किया गया। धर्म प्रचारकों ने जोरों से धार्मिक या नैतिक नियमों को प्रचारित किया। फलतः दया, परोपकार, स्वधर्मपालन-दृढ़ता, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, संतोषी-संयमित जीवन के अनेक आदर्श दृष्टाँत मिलते हैं। उनको बतलाकर इन गुणों के अधिकाधिक विकास पर जोर दिया गया है। इसी प्रकार आश्रमों की व्यवस्था द्वारा मनुष्य के नैतिक स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयत्न किया गया।

लाखों व्यक्तियों ने संन्यास ग्रहण कर पूर्णतया नियमबद्ध तथा धार्मिक जीवन बिताना प्रारम्भ किया। इसी से भारतवर्ष आध्यात्मिक एवं धर्म प्रधान देश कहा गया है, पर धर्मों में नित्य नये सम्प्रदाय खड़े होने लगे। उनमें पारस्परिक संघर्ष प्रारम्भ हो गया। नैतिक नियमों के प्रचार में शिथिलता आने लगी और धर्म के नाम से हिंसा, छल-कपट आदि अनैतिक कार्य भी होने लगे। इससे जन-जीवन में सद्गुणों की प्रतिष्ठा कम हो गयी तथा वे दुर्गुण और अधिक पनपने लगे। युद्ध कालीन स्थिति ने अनैतिकता को बहुत बड़ा बल दिया, जिसका परिणाम आज प्रत्यक्ष रूप से अनुभव किया जा रहा है। स्वराज्य मिला तो अवश्य-पर नियन्त्रित कठोर शासन के अभाव में अनीति और भी बढ़ गयी तथा दिनोंदिन उसकी मात्रा बढ़ती ही जा रही है घटने का कोई असर अभी दिखलायी नहीं देता।

भारत में आज सर्वतोमुखी अनीति बढ़ रही है। पहले लोग व्यापारियों को अधिक दोष देते थे पर अब तो कोई बचा हुआ नहीं रहा। ‘कुएँ भाँग पड़ी’ वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। सरकारी किसी भी विभाग में चले जाइये, सर्वत्र घूसखोरी का बोल-बाला है। पैसे की मोहिनी ने सब पर जादू फेर दिया है कोई विरला ही बचा होगा। रेलवे-विभाग को देखिये, अदालतों को देखिये, सप्लाई-विभाग में जाइये, पुलिस तो सदा की बदनाम है। इस प्रकार प्रायः सभी कर्मचारी घूस के आदि हो गये हैं। कहीं माल भेजना हो तो बिना पैसे दिये गाड़ी नहीं मिलती और पैसे देने पर असम्भव कार्य सम्भव तथा तत्काल हो जाते हैं। कानून या नियम के भरोसे बैठे ही रहिये कचहरी में रजिस्ट्री ऑफिस में जाइये, पद-पद पर चपरासी और क्लर्क तक सभी का टैक्स चुकाइये, जैसे बँधा-बँधाया पड़ा है-बोलने की आवश्यकता नहीं। पैसा देते हैं तो दस्तावेज की तुरन्त रजिस्ट्री हो जाती है, नहीं तो कोई-न-कोई नुक्स निकालकर रख दिया जाता है क्योंकि वे ऐसा न करें तो उनको भेंट दे कौन? हरेक व्यक्ति अपने-अपने काम में रास्ता निकालने की होशियारी या अक्लमन्दी रखता ही है। सेलटैक्स में, जाइये चाहे इन्कम टैक्स में, ट्रेजरी में चाहे एकाउन्ट ऑफिस में, किसी भी विभाग में जाइये सर्वत्र घूसखोरी और अनीति का साम्राज्य है। अब तो किसान और मजदूर भी उनकी देखा-देखी अनीति सीख गये हैं। और तो और भीख माँगकर खाने वाले भी ठगी और धोखा करते नजर आते हैं उसी के कुछ उदाहरण प्रस्तुत लेख में उपस्थित किये जा रहे हैं :-

भारतवर्ष में भिक्षावृत्ति साधु-संन्यासी के जीवन निर्वाह के लिए आदर्श वृत्ति थी। वे लोग वस्तुओं के संग्रह एवं उन्हें उपभोग के योग्य बनाने की खटपट में नहीं पड़ते थे क्योंकि इससे उनकी साधना एवं उपदेश आदि लोक कल्याण की प्रवृत्तियों में बाधा उपस्थित होती थी। वे शरीर को, जब भी आवश्यकता हुई, मधुकरी-वृत्ति से इधर-उधर से कुछ गृहस्थों के यहाँ जाकर थोड़ा-थोड़ा आहार वस्त्रादि लेकर अपना काम चला लेते थे। गृहस्थ भी अहोभाग्य समझकर बड़े चाव तथा भाव से उन्हें देते थे और इसमें वस्तु का साफल्य मानते थे। अर्थात् उक्त भिक्षावृत्ति दोनों के लिए लाभदायक सिद्ध होती थी। पर वह तब तक ही आदर्श रही या रह सकती है जब तक भिक्षु आवश्यकता से अधिक संग्रह की ओर न झुके। भिक्षु पेट में समाये इतना ही आहार ले। सुबह की भिक्षा को संध्या के लिये भी संग्रह न करे। संन्यासी के अतिरिक्त अन्य भिक्षुक जो अन्धे, लूले, लंगड़े, अनाथ अर्थात् काम करने में असक्त होते, वे भी भिक्षा माँगकर जीवन निर्वाह करते। लोग उन्हें दया-करुणा की भावना से देते। अतः संन्यासी भिक्षु को श्रद्धा से एवं अशक्त भिक्षुओं को करुणा से देने वाला भी लाभ में रहता तथा लेने वाले का भी निर्वाह हो जाता। पर जब कई लोगों ने भिक्षावृत्ति को कमाई का या धन संग्रह का साधन (पेशा) ही मान लिया और उसके द्वारा संग्रह करना प्रारम्भ किया, तब इसमें सहज ही अनैतिकता का प्रवेश हो गया, जनता की भावना भी बदल गयी और उभय दृष्टि से वह लाभ के बदले हानिकारक सिद्ध होने लगी।

आवश्यकता वश किसी से कोई चीज माँगकर जीवन-निर्वाह करना भिक्षा है। प्राचीन काल की भिक्षा-वृत्ति सात्विक थी। उसमें लेने वाला साधक अपने सहायक-शरीर को टिकाये रखने मात्र के लिए ही लेता और देने वाला श्रद्धा भाव से देता। अतः दोनों में सात्विकता थी।

भारत में मध्य काल में कई लोगों का तो देने वालों का कुछ काम करके अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति स्वरूप उनसे कुछ द्रव्य या वस्तुएँ लेने का पेशा हो गया था। यह विशुद्ध वृत्ति तो नहीं थी पर कुछ-न-कुछ काम करके लेने से वह निभाने योग्य रही। जैसे ब्राह्मण लोग क्रिया काण्डादि अनुष्ठान कराते। इनका जीवन निर्वाह यजमानी पर चलता। राजपुरोहित भी इसी श्रेणी के थे। कुल गुरु अपने यजमानों के वंशों के इतिहासादि लिखने का धंधा करके दान पाते थे। चारण, भाट एवं विद्वान अपनी कविता से राजाओं को प्रसन्न कर दान और सत्कार पाते थे। इसमें दाता को भावना का लाभ तो नहीं मिलता पर कर्त्तव्य का पालन होता है। ऐसा माँगना और देना राजसी कहा जाता है। नाना प्रकार के काम करके याचना करने वालों की माँग को व्यवसायिक भिक्षा कह सकते हैं।

तीसरी श्रेणी तामसी भिक्षा की है, जिसमें दाता को बाध्य होकर देना पड़ता है। लेने वाला ऐसी परिस्थिति पैदा कर दे कि उसकी माँग पूरी की जाय। क्रोध से और लोक-लाज के भय से लिया और दिया हुआ दान तामसी है। ऐसा दान और भिक्षा दोनों के लिये हानिकारक है। भिक्षा जहाँ तक आवश्यकता की पूर्ति तक सीमित हो, उसमें छल-कपट या संग्रह वृत्ति न हो और दान जहाँ तक सद्भावना एवं कर्त्तव्य समझ कर दिया जाता हो वहीं तक ठीक कहा जा सकता है। इसके विपरीत असंग्रह वृत्ति से न लिया हुआ या कर्त्तव्य बुद्धि से न दिया दान अनैतिक है, समाज का पतन करने वाला है।

इधर कई वर्षों से भिक्षा वृत्ति में अनैतिकता खूब बढ़ रही है। बहुत बार तो यह घृणित व्यवसाय सा नजर आता है। अतः अब लोगों में धार्मिक या करुणा की भावना का बहुत बड़ा ह्रास हो गया है, जो स्वभाविक ही है। इधर महंगाई के जमाने में अपना निर्वाह भी दुष्कर उधर श्रम करके कमा खा सकने वाले हट्टे-कट्टे जवान स्त्री-पुरुष भिक्षा को ही अपना धंधा बना लें तो मानव-हृदय का आन्दोलित होना स्वाभाविक है। आज तो भिक्षुओं को, जहाँ जाते हैं दुत्कार मिलती हैं। कहा जाता है कि ‘मजदूरी करके पेट क्यों नहीं भरते? क्या तुम श्रम करने के लायक नहीं हो? अपंग हो, अन्धे, लूले, लंगड़े हो?’ आज भिखमंगों की अनीति के किस्से जगह-जगह देखने-सुनने को मिलते हैं। भिक्षा के नाम से वे धोखा देते हैं। दो चार अनुभूत घटनाएं बतलाऊँ-

जिन्होंने भिक्षा के बहाने धोखा देने का धंधा स्वीकार किया है, वे अपनी ऐसी दयनीय स्थिति उपस्थित करते हैं कि एक बार तो उनके दुःख-दर्द से हृदय भी पिघल जाता है। कोई आकर कहते हैं कि ‘हम शरणार्थी हैं। अमुक स्थानों के रहने वाले हैं। बहुत ही दयनीय स्थिति हो जाने से सब छोड़-छाड़कर इधर आने को बाध्य हुए हैं। हमारे अमुक को मार डाला गया, धनादि वस्तुएं लूट ली गई, क्या करें? पेट भरने के लिये माँगना पड़ता है।’ वे भिक्षा की कला में बड़े निपुण होते हैं। ऐसा पार्ट अदा करते हैं कि अविश्वास सहज नहीं होता। वे सब भाषा एवं धूर्तता की कलाएँ जानते हैं। जैनों के पास माँगेंगे तो अपने को जैन बतलायेंगे, वैष्णव के सामने वैष्णव। जिस प्रकार से जिस व्यक्ति को पटाया जा सकता है वैसे ही उससे बताते हैं। इस पेशे में बड़ी ही निपुण कई बहिनें मैंने देखीं। दो-तीन बार उनसे काम पड़ा। वे अंग्रेजी, गुजराती, हिंदी आदि कई भाषाएँ जानती हैं। अपने को जैन बतलाती हैं। किसी सज्जन को प्रभावित कर उससे सहायता देने के लिए विज्ञप्ति-पत्र दिखाकर घर-घर से चन्दा वसूल करती हैं। आप चार आना देना चाहते हैं तो वे आठ आना देने को मजबूर कर देती हैं। ऐसी करुणाजनक स्थिति शब्दों से व्यक्त करती हैं कि दिल पसीजे बिना नहीं रह सकता।

कई पुरुष और स्त्री यह कहकर माँगते हुए नजर आते हैं कि हमारे अमुक को बच्चा हुआ है, उस बच्चे और माता के लिए सामान तथा पैसा इकट्ठा करते हैं या कई तो हमारे अमुक मर गया है, कफ़न आदि के लिए पैसा या वस्त्रादि चाहिए, ऐसे झूठे फरेबों से पैसा इकट्ठा करते हैं।

कलकत्ता आदि कई शहरों में कई व्यक्ति मैले-फटे थोड़े से चिथड़े लपेटे हुए सड़कों में दौड़ते-पीटते, चीत्कार करते हुए माँगते नजर आते हैं। सुना गया है कि उनमें अधिकाँश ने तो पैसे माँगने के लिए ही अपने हाथ-पैरों को विकृत कर डाला है। कई गुँडे लोगों ने इधर-उधर से अनाथ बच्चों को लाकर उनकी ऐसी दयनीय स्थिति कर दी है और उनसे कमाई करने का धंधा कराने के भी संवाद मिले हैं। ऐसे भिखमंगों में से कइयों के पास तो हजारों रुपये हैं पर वे अब इस वृत्ति के ऐसे अभ्यस्त हो गये हैं कि सुबह से शाम तक यही करते रहते हैं। इस धंधे को वे छोड़ नहीं पाते।

अभी कुछ दिन पहले की एक घटना सुनिये। मैं कलकत्ते से बीकानेर जा रहा था। रास्ते में एक व्यक्ति मध्यवर्ती स्टेशन पर आया और बोला कि ‘हम बड़ी मुसीबत में हैं हमारे टिकट खो गये या यहीं तक के टिकट के पैसे पास हैं अतिरिक्त पैसे खो गये हैं। हमें जाना अमुक जगह है सहायता कीजिये।’ ऐसी स्थिति में मानव-सुलभ दया आना स्वभाविक ही है। हमारे पास वालो ने कहा ‘कुछ नहीं जी, ढोंगी है, इसका यही धंधा है, क्योंकि हम इसी प्रकार पहले धोखा खा चुके हैं और ऐसी घटनायें सुन चुके हैं।’ मुझे और अन्य एक पास में बैठे हुए व्यक्ति को यह व्यक्ति भी वैसा ही ठग होगा यह जंचा नहीं अतः उसने जितने पैसे माँगे थे हम दोनों ने उसे दे दिये वह उन्हें लेकर दूसरे डिब्बे में घुस कर वहाँ भी ठीक वही माँग करने लगा, तब मेरे पास वाले व्यक्ति से नहीं रहा गया उठ कर उसके पास तत्काल गये और दुत्कारते हुए उससे पैसा वापस ले आये और उससे कहा कि ‘जितने पैसे तुम्हें आवश्यक थे, हमने पूरे के पूरे दे दिये, फिर भी तुम दूसरों से टिकट के पैसे की माँग करते ही रहे, तो मालूम होता है तुमने यही कमाई खोल रखी है।’

प्रश्न पैसे का नहीं है। मुझे यह देख बड़ा दुख हुआ कि ऐसे ठग व्यक्तियों के कारण ही वास्तविक आवश्यकता वालों के लिए भी द्वार बन्द हो जाते हैं। लोग सभी को ढोंगी समझने लग जाते हैं। सच्चे जरूरतमंद या सहायता योग्य व्यक्ति भी ऐसे धोखा देने वालों के कारण कष्ट उठाते हैं तथा सहायता से वंचित रह जाते हैं। इसलिए सरकार को भिक्षावृत्ति प्रतिबन्धक कानून बनाना पड़ रहा है। कैसी दयनीय स्थिति है? अनैतिकता का कितना बोल-बाला हो गया है? जीवन के हर क्षेत्र में उसने कितने लम्बे पैर पसार दिये हैं। न मालूम कैसे और कब उसका अन्त होगा। भिक्षावृत्ति जैसा सात्विक कर्म भी इन ठगों के कारण गर्हित हो गया है।

इस दूषित वृत्ति का नाश हो, लोगों का नैतिक स्तर ऊँचा हो, इसके लिये प्रयत्न किया जाना चाहिए तथा ऐसे लोगों को विविध उद्योगों की शिक्षा दी जानी चाहिये और कुछ नये उद्योग-धंधे या काम चालू कर उनमें इनको लगाना चाहिए। आशा है विचारशील व्यक्ति इस अनैतिकता को शीघ्र समाप्त करने के उपायों को सोचेंगे तथा व्यक्त करेंगे और सरकार भी उन्हें अपना कर देश के नैतिक स्तर को ऊँचा उठाने का भरसक प्रयत्न करेगी।


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