(श्री परिपूर्णानन्द जी वर्मा)
गृहस्थ जीवन में तथा लोकाचार के लिए निःसन्देह धन की नितान्त आवश्यकता है, विशेष कर आज के युग में पर मानव जीवन का सबसे बड़ा शत्रु धन ही है यह स्वीकार करना होगा। ईसा मसीह ने गलत नहीं लिखा है कि धनी का स्वर्ग में प्रवेश पाना असम्भव है।’ इसका अर्थ केवल यही है कि धन मनुष्य को इतना अंधा कर देता है कि वह संसार के सभी कर्त्तव्यों से गिर जाता है। धन का इसी में महत्व है कि वह लोक सेवा में व्यय हो। नहीं तो, धन के समान अनर्थकारी और कुछ भी नहीं है। श्रीमद्भागवत में कहा है-
स्तेयं हिंसानृतं दम्भः कामः क्रोधः स्मयो मदः। भेदोः वैरमविश्वासः संस्पर्धा व्यसनानि च॥
एते पश्चदशानर्था र्ह्यथमूला मता नृणाम्। तस्मादनर्थमर्थाख्यं श्रेयोऽर्थी दूरतस्त्यजेत्॥
(11/23/18-19)
‘(धन) से ही मनुष्यों में ये पंद्रह अनर्थ उत्पन्न होते हैं -चोरी, हिंसा, झूठ, दम्भ, काम, क्रोध, गर्व मद, भेदबुद्धि, बैर, अविश्वास, स्पर्धा, लम्पटता, जुआ और शराब। इसलिए कल्याण कामी पुरुष को ‘अर्थ’ नामधारी अनर्थ को दूर से ही त्याग देना चाहिए।
फारसी कहावत है कि ‘संसार में एक स्त्री बनाकर यानी विवाह कर आदमी संसार भर की स्त्री बन जाता है’ अर्थात् गृहस्थ जीवन में उसे सब का आश्रित या पराधीन बनकर चलना पड़ता है। यदि संसार में धन नामक पदार्थ न होता तो हमारा जीवन कैसा होता? आखिर जीवन का लक्ष्य क्या है? हम सब अपने को सुखी बनाना चाहते हैं, सुख भोगना चाहते हैं। पर सुख की अनेक प्रकार की व्याख्या हो सकती है। उसके अनेक अर्थ लगाये जा सकते हैं। आज की सभ्यता की चमक-दमक में सुख की बड़ी विचित्र व्याख्याएँ निकलती चली आ रही हैं। पर विलास और भोग की प्रतिक्रिया भी होती है। आज बड़े-बड़े विचारक यह सोचने लगे हैं कि सुख की परिभाषा बदलनी चाहिए। उसकी वास्तविकता को समझना चाहिए। बर्ट टेलर ने अभी कुछ ही महीने पूर्व ‘सुख का अधिकार’ नामक बड़ी रोचक तथा महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी है। उनका कथन है कि-
‘आज संसार में बहुत ही कम लोग सुखी कहे जा सकते हैं। भूतकाल में हमारा जीवन केवल रोटी कमाने में बीता। अब हमको समाज में अपना स्थान कमाने में बिताना चाहिए। केवल धन और समृद्धि ही जीवन का लक्ष्य नहीं होना चाहिये। लक्ष्य होना चाहिये कभी भी दुखी न रहना। हरेक के जीवन में सबसे महान प्रेरणा यह होनी चाहिए कि हमारा जीवन प्रकृति के अधिक से अधिक निकट हो और तर्क तथा बुद्धि से दूर न हो। हमको अपने जीवन में काम करने का आदर्श समझ लेना चाहिये। यह आदर्श पेट का धंधा नहीं, सेवा होनी चाहिये। सर्वकल्याण, समाज-सेवा सामाजिक जीवन तथा शिक्षा ही हमारा कार्यक्षेत्र हो। हमको ऐसे युग की कल्पना करनी चाहिए, जब हमारा जीवन केवल जीविका-उपार्जन न रह जाय। जीवन केवल अर्थ शास्त्र या प्रतिस्पर्द्धा की वस्तु न रह जाय। व्यापार के नियम बदल जायं। एक काम के अनेक करने वाले हों और अनेक व्यक्ति एक ही काम को अपना सकें। मालिक और नौकर, काम करने के घंटों की झिक-झिक दूर हो। मनुष्य केवल मनुष्य ही नहीं है, उसकी आत्मा भी है, उसका देवता भी है, उसका इहलोक और परलोक भी है।
धन की इस दुनिया में, चकाचौंध के उस जमाने में जब कि सभ्यता का एकमात्र लक्ष्य केवल पैसा कमाना है, ऐसी आवाज उठाना एक बड़ी भारी बात है और इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि अब लोग धन की मर्यादा से ऊबकर हमारी आर्य-सभ्यता की प्राचीन तथा सतयुगी मर्यादा की ओर मुड़ रहे हैं। उन्हें ऐसा लगने लगा है कि यह सब आडम्बर मिथ्या है। धन ही विपत्ति की जड़ है, इसी से संसार का सब विग्रह प्रारम्भ होता है और वर्गवाद, साम्यवाद या साम्राज्यवाद का उपद्रव खड़ा हो जाता है। न धन की घुड़दौड़ रहे और न यह सब विपत्तियाँ खड़ी हों। न बाँस रहे, न बाँसुरी बजे।
भीतर देखो
बर्ट टेलर ने सच लिखा है कि-
‘जीवन ही हमारा सबसे बड़ा शिक्षक है। उसका उपदेश ही हमारे साँसारिक जीवन के लिए पर्याप्त होगा। वह हमें ऐसी बातें बतलाता है, जिसे हमारे शिक्षक नहीं जानते। इसलिए सब कुछ छोड़कर जरा अपने जीवन को ही पढ़िये। हमें अपने को जानना चाहिए। अपने पड़ोसियों को जानना चाहिए। मानवी प्रतिक्रिया का ज्ञान होना चाहिए और हमें कुछ जानने की आवश्यकता ही क्या है। जरा हमको बहुत बड़े-बड़े लोगों के दिल के भीतर की बातें तथा उनका भीतरी जीवन देखने दीजिए ताकि हम उनको पहचान सकें। तब हम राजनीतिज्ञों की कलाबाजियाँ और राजनीतिज्ञों की चालबाजियाँ समझ सकेंगे। हमको धूर्तता, महत्वाकाँक्षा तथा कामना की असलियत समझ लेने दो। बतलाइये तो, कि हम किस पर भरोसा करें और कैसे करें। हमें तो यह सिखलाइये कि सच को पहचानें और अपने साथ अपने कामों के साथ सचाई बरतने लगें। यह हमें सिखलाइये कि दूसरों के प्रति दुर्भाव न रक्खें। हमें चिन्ताशीलता के भयंकर दुःख से बचना सिखाइये। रात-दिन ऊहापोह तथा सोच-विचार में पड़े रहना बंद हो। शायद तभी हम सुख को पहचान सकें, जान सकें और उसको अपना सकेंगे। जीवन क्षणभंगुर है, जवानी कल की बात मालूम होती है। जवानी सिनेमा-भवन, क्लब तथा खेल-कूद में बीत गयी, बुढ़ापा सिर पर है। अब उसका दुःख आ पहुँचा। युवक को सदाचारी तथा संयमी होना चाहिए। उसे गुरुजनों का आदर करना चाहिये। यदि हम अपने तथा दूसरे के हृदय के भीतर बैठकर यह सब समझ जाय, तो हमारा जीवन कितना सुखी हो जायेगा। पर आज हम ऐसा नहीं करते हैं। वह क्यों? इसका कारण धन की विपत्ति है। धन की दुनिया में निर्धन का व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है। जब तक अपने व्यक्तित्व के विकास का अवसर न मिले आदमी सुखी नहीं हो सकता। न्यूयार्क नगर के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक श्री हेनरी सी. लिंकन अभी हाल में ही लिखा था कि यह सभ्यता व्यक्तित्व के विकास को रोकती है, बिना उसके विकसित हुए सुख नहीं मिल सकता। सुख वह इत्र है, जिसे दूसरों को लगाने से पहले अपने को लगाना आवश्यक होता है। यह इत्र तभी बनता है जब हम अपने हर एक कार्य को दूसरे की सहायता के भाव से करें। हमें चाहे अपनी इच्छाओं का दमन ही क्यों ना करना पड़े। पर हमें दूसरे के सुख का आदर करना पड़ेगा, हेनरी सी. लिंकन आगे चल कर लिखते हैं कि सुख का सबसे बड़ा साधन निस्वार्थ सेवा है। उन्होंने एक अमेरिकन सिपाही की गत महायुद्ध काल की घटना लिखी है। वह सिपाही पेरिस गया था वहाँ का सुख भोगने के लिए वहाँ पर उसे सबसे अधिक आनन्द एक वृद्धा स्त्री का सामान ढोने में मिला। लिंक की सलाह है कि ‘परिवार तथा समाज को सुखी बनाने के लिए आत्म-त्याग तथा आत्म-बल सदैव आवश्यक है। बिना इसके न कोई स्वयं सुखी रह सकता है और न सुखी कर सकता है।’
समय का दुरुपयोग
व्यापक दुःख का एक प्रबल कारण समय का दुरुपयोग है। चौबीस घंटे का दिन रात कैसे बिताया जाय ये भी हम भूल गये हैं। कैरिनरुन (द्मड्डह्द्बठ्ठ क्रशशठ्ठ) नामक विद्वान प्रोफेसर ने छह महीने पूर्व एक लेख में लिखा था कि ‘ऐसे बहुत कम लोग मिलेंगे जो सचमुच में आनन्द-पूर्वक जीवन बिताते हों।’ या तो हम बीते हुए काल की अपनी भूलों पर पश्चाताप करते रहते हैं या आने वाले कल की समस्याओं की चिंता में रत रहते हैं। वर्तमान में क्षणिक विश्राम का जो अवसर मिला उसे हम खो देते हैं। आखिर हरेक के भाग्य में एक दिन के 24 घंटे ही होते हैं। यदि आप इनका सदुपयोग सीख जायं तो थकावट तथा शिथिलता के विपरीत उत्साह तथा सुख का जीवन हो सकता है। यदि अपने 24 घंटे का सदुपयोग किया जाय तो हरेक काम के लिए समय निकल सकता है। जो व्यक्ति समय पर काम करता है उसका काम समय पर होता है। जो कहता है कि ‘अमुक काम के लिये समय नहीं मिलता’ वह झूठ बोलता है। जो नयी सभ्यता की प्रसादी स्वरूप हर समय घबराया हड़बड़ाया तथा भाग-दौड़ में रहता है, उसे असली कामकाजी मत समझो। जिस व्यक्ति ने रात्रि के समय आने वाले कल का कार्यक्रम नहीं बना लिया तथा जिसने बिस्तरे से उठते समय आँखें मूँदकर भगवान का ध्यान नहीं किया उसका दिन कभी ठीक से न बीतेगा। बिस्तर से जो कूदकर उठता है वह वैसी ही मूर्खता करता है जैसी कि मोटरगाड़ी चलाने वाला तीसरे गियर में गाड़ी ‘स्टार्ट’ करने में करता है। झटके से गाड़ी खराब हो जाती है। आँख खुलते ही कूद पड़ने वाला व्यक्ति शरीर की मशीन घिस डालता है। इस प्रकार श्री कैरिन रुन ने आधुनिक सभ्यता की जल्दबाजी की कड़ी भर्त्सना की है।
विपत्ति की जड़
संसार में रुपये के सबसे बड़े उपासक यहूदी समझे जाते हैं। पर यहूदी समाज में भी अब धन के विरुद्ध जेहाद शुरू हो गया है, ‘यरुशलम मित्र संघ’ की ओर से ‘चूज’ यानी (ष्टद्धशशह्यद्ग) पसन्द कर लो शीर्षक नामक एक पुस्तक प्रकाशित हुई है, जिसका लक्ष्य है-‘तुम ईश्वर तथा शैतान दोनों की एक साथ उपासना नहीं कर सकते।’ इसके लेखक श्री आर्थर ई. जोन्स के सुन्दर विचार मैं पाठकों की भेंट कर रहा हूँ। जोन्स साहब का कहना है कि ‘न जाने किस कु-घड़ी में रुपया-पैसा संसार में आया, जिसने आज हमारे ऊपर ऐसा अधिकार कर लिया है कि हम उसके अंग बन गये हैं। शायद इसका जन्म उसी दिन हुआ जब आदम और हौवा अदके उद्यान में फल के लालच में पड़ गये। ईसा से 2000 वर्ष पहले बैबीलन में सम्राट हम्मुरावी का शासन था। उस समय तक रुपये का पूरा राज्य स्थापित हो चुका था। पट्टा, बंधक, सूद, कानूनी महत्त्व, कोष बटोरना, संचय आदि इसके सभी उपयोग सबके ध्यान में आ गये थे, प्रचलित थे। अब्राहम ने रुपया देकर कुछ जमीन खरीदी और उसकी लिखा-पढ़ी ठीक आज जैसी हुई। रुपया बैबीलन में ईश्वर बन गया और आज तक वह इस संसार में बना हुआ है। आज की दुनिया असली ईश्वर को भूल गयी है, वह केवल ‘रुपया भगवान’ को जानती है-
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः।
2- सर्वे गुणाः काश्चनमाश्रयन्ति।
श्री जोन्स कहते हैं-
‘यदि मैं यह कहूँ कि संसार की समृद्धि में सबसे बड़ी बाधा धन यानी रुपया है, तो पुराने लोग सकपका उठेंगे। किन्तु आज संसार में जो भी कुछ पीड़ा है, वह इसी नीच देवता के कारण है। खाद्य-सामग्री का संकट, रोग-व्याधि-सबका कारण यही है। चूँकि सभी सुख की वस्तुएँ इसी से प्राप्त की जा सकती हैं, इसीलिए संसार में इतना कष्ट है। जितना समय उपभोग की सामग्री के उत्पादन में लगता है, उससे कई गुना अधिक समय उन वस्तुओं के विक्रय के दाँव पेंच में लगता है। व्यापार की दुनिया में ऐसे करोड़ों नर-नारी व्यस्त हैं, जो उत्पत्ति के नाम पर कुछ नहीं करते।
विपत्ति यह है कि आदमी एक दूसरे को प्यार नहीं करते। यदि अपनाने की स्वार्थी भावना के स्थान पर प्रतिदान की भावना हो जाय तो हरेक वस्तु का आर्थिक महत्व समाप्त हो जाय। आज लाखों आदमी हिसाब-किताब, बही-खाते के काम में परेशान हैं और लाखों आदमी फौज, पल्टन या पुलिस में केवल इसलिए नियुक्त हैं कि बही खाते वालों की तथा उनके कोष की रक्षा करें। जेल तथा पुलिस की आवश्यकता रुपये की दुनिया में होती है। यदि यही लोग स्वयं उत्पादन के काम में लग जायं तथा अपनी उत्पत्ति का आर्थिक मूल्य न प्राप्त कर शारीरिक सुख ही प्राप्त कर सकें, तो संसार कितना सुखमय हो जायगा। आज संसार में अटूट सम्पत्ति उच्च अट्टालिकाओं में, बैंक तथा बीमा कम्पनियों के भवनों में, सेना, पुलिस, जेल तथा रक्षकों के दल में लगी हुई है। यदि इतनी सम्पत्ति और उसका बढ़ता हुआ मायाजाल संसार का पेट भरने में खर्च होता तो आज की दुनिया कैसी होती। अस्पतालों में लाखों नर-नारियाँ रुपये की मार से या अभाव से बीमार पड़े हैं तथा लाखों नर-नारियाँ धन के लिए जेल काट रहे हैं। प्रायः हर परिवार में इसका झगड़ा है। मालिक तथा नौकर में इसका झगड़ा है। यदि धन की मर्यादा न होती तो यह संसार कितना मर्यादित हो जाता।’
जोन्स फिर लिखते हैं-
‘सर टॉमस ह्वाइट ने लिखा था कि ‘अमेरिका को स्वर्ग का अपच हो गया है। पैसे के कारण संसार में वर्गवाद आदि का संकट आ गया है। आज जितनी उत्पत्ति होती है, उसका पैसों में मूल्य समाप्त कर दीजिए तो संसार का कायापलट हो जायगा, कोई भूखा रहेगा न नंगा। आज हरेक काम पैसे से होता है, कोई किसी के घर का दरवाजा भी बिन पैसे लिए बंद न करेगा। माता-पिता तथा संतान के बीच पैसे का सम्बन्ध है। पिता चाहता है कि लड़के कमाएं, लड़की बोझ न बने। आज हरेक व्यक्ति सोचता है कि पैसा एक अनिवार्य वस्तु है इसलिए पैसे कि अंधी दुनिया इसका निरादर नहीं कर सकती। पर कौन नहीं जानता कि जितना पैसा बढ़ता है उतना ही परिश्रम पश्चाताप तथा परेशानी बढ़ती है, धन से आत्मा सुखी नहीं हो सकती।’
हमने आर्थर ई. जोन्स के विचारों का बड़े संक्षेप में उदाहरण किया है, अधिक लिख कर इस लेख का विस्तार भी नहीं बढ़ाना है। संसार से पैसा एकदम उठ जाय ऐसी सम्भावना नहीं प्रतीत होती। पर पैसे का विकास उसकी महत्ता तथा उसका राज्य रोका अवश्य जा सकता है। इसके लिए हमको अपना मोह तोड़ना होगा, स्वार्थ के स्थान पर परमार्थ, समृद्धि के झूठे सपने के स्थान पर त्याग तथा भाग्य के स्थान पर भगवान की शरण लेनी होगी। नहीं तो आज की हाय-हाय हमारे जीवन का सुख नष्ट कर चुकी है, अब हमारी आत्मा को भी नष्ट करने वाली है। हमें सब कुछ खोकर भी अपनी आत्मा को बचाना है।