काम-विकार का परिमार्जन करिए।

May 1954

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(श्री दौलतराम कटरहा बी.ए.)

मनुष्य के काम क्रोधादि छः रिपु हैं। इन सब में काम की गणना सर्वप्रथम की जाती है। यह मनुष्य को नाना विधि नाच नचाता रहता है। जो कोई भी इस नाच से त्रस्त हो उठता है वह इससे मुक्त होने का उपाय करता है पर बहुधा मुक्त होने पर भी अपने को असहाय पाता है।

मैंने एक दिन मौका पाकर एक वृद्ध संन्यासी से यही प्रश्न पूछा। मैं उनकी परीक्षा नहीं ले रहा हूँ यह विश्वास उन्हें दिलाने के लिए मैंने स्वयं कहना शुरू किया। पार्वती जी को विवाह मण्डप में आते हुए देख कर सभी दर्शक मोहित हो गये थे। देवताओं ने उन्हें भगवान शिव की अर्द्धांगिनी और जगन्माता जानकर मन ही मन प्रणाम किया। महात्मा तुलसीदास जी ने स्वयं लिखा है-

-जगदम्बिका जानि भव वामा। सुरन मनहि मन कीन्ह प्रणामा॥

देवता लोग जगन्माता के अप्रतिम एवं अलौकिक सौंदर्य को देखकर मोहित हो गये और वे उन्हें मानसिक प्रणाम कर उस मोह से मुक्त हुए।

यद्यपि उपर्युक्त घटना ऐतिहासिक नहीं है तथापि हमें अपने मोह को दूर करने का एक सरल उपाय बताती है। जहाँ कहीं भी हमें अपने चित को मोहने वाला सौंदर्य दीखे तो (उसे परमात्मा का रूप जानकर) वहीं हम श्रद्धा और आदरपूर्वक मन ही मन प्रणाम करें और अपना मस्तक श्रद्धा से थोड़ा नीचा कर लें। मेरा विश्वास है कि यह आदरपूर्वक किया हुआ मानसिक प्रणाम हमारे मोह के वेग को अवश्य ही हल्का कर देगा।

मानसिक प्रणाम के साथ मैं मस्तक को थोड़ा नीचा कर लेना आवश्यक समझता हूँ। मन और शरीर का अन्योन्य सम्बन्ध है। यदि शरीर से कोई भाव प्रकट किया जायेगा तो मन पर उसका कुछ न कुछ प्रभाव पड़ेगा ही। उसी तरह यदि मन में कोई भाव है तो शरीर के किसी न किसी लक्षण से, भले ही वह अत्यन्त सूक्ष्म हो, वह प्रकट होना ही चाहिए। इस रीति से जब मन के मोहाभिभूत होने पर भी हम अपने कर्त्तव्य को स्मरण रख कर शरीर से आदर-भाव प्रकट करते हैं अर्थात् श्रद्धा पूर्वक अपना सिर तनिक झुका लेते हैं तो इस नमन का प्रभाव हमारे मन पर अनिवार्य रूप से पड़ता ही है। नमन का प्रभाव तो अमोघ है, अनिवार्य है। वह अपने पर पड़े हुए मोहावरण को भेद कर छिन्न-भिन्न करने में हमारी सहायता करता है।

सम्भव है कोई कहे कि यदि नीच जाति में ऐसा सौंदर्य दीखे तो उसे भी वैसा ही प्रणाम किया जाये। मैं समझता हूँ कि अवश्य करना चाहिये। भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है कि जो-जो भी विभूति युक्त अर्थात् ऐश्वर्य युक्त एवं कान्ति युक्त और शान्ति युक्त वस्तु है, उस उसको तू मेरे तेज के अंश से ही उत्पन्न हुई जान”। (गीता 10-41) अतएव इस कारण भी हमें सौंदर्य और शोभा को प्रणाम करने में संकोच न करना चाहिए।

मैं नहीं समझता कि किसी को किसी भी अन्य जाति की स्त्री को मानसिक प्रणाम करने में क्यों संकोच होना चाहिये। प्रमाण से तो सौहार्द भाव बढ़ेगा ही और कटुता दूर होवेगी। प्रणाम से हमारे विकार शान्त होवेंगे।

जिन लोगों पर मेरा कुछ प्रभाव पड़ता है, उन्हें मैं चार वस्तुओं को भी मानसिक प्रणाम करने के लिए कहता हूँ। मेरे लिए मानसिक प्रणाम के पात्र हैं-मजदूर, मेहतर, मस्जिद और महिला। इस विधि प्रणाम करने से मैंने अनुभव किया है कि मेरा गर्व बहुत कुछ दूर हुआ है।

हिन्दू को तो किसी भी जीवधारी को प्रणाम करने में न झिझकना चाहिए। वह तो वृक्ष, वाराह आदि निकृष्ट कहे जाने वाली योनियों में भी भगवान का अवतार लेना मानता है। जो समस्त विश्व को ‘सियाराम मय’ देखना चाहता है उसे तो यह हिचक छोड़नी ही पड़ेगी। अन्यथा यह हिचक उसे कभी आगे न बढ़ने देगी।

तुलसीदास जी की नम्रता तो देखिए। वे कहते हैं-

जड़ चेतन मय जीव जत, सकल राम मय जानि। बन्दौं सबके पद कमल, सदा जोरि जुग पानि॥

जिसने सब जीवों को प्रणाम किया उसके हृदय में गर्व कहाँ रहा? फिर नारी-कुल के लिए भी उसके हृदय में काम-विकार कहाँ रहा? यदि ऐसा भाव रखने के कारण ही उस महापुरुष को भगवान दर्शन हुए हों तो कौन आश्चर्य!

क्या काम-विकार बाधक है? मैं समझता हूँ कि कामियों के लिए सुखकर होने के साथ-साथ साधकों के लिए भी वह सुखकारी है। मैं कह सकता हूँ कि यदि मुझमें काम-विकार न होता तो उसे शान्त करने के लिए मैं संभवतया स्त्री-जाति को जगन्माता का रूप समझने की चेष्टा न करता। जो शायद न करता वह काम-विकार ने बरबस करा लिया। प्रभु से प्रार्थना है मुझे परीक्षा में न डाल, डोले तो साथ न छोड़।


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