करत करत अभ्यास के, जड़ मत होत सुजान। रसरी आवत जात तें, सिल पर परत निसान॥
भली करत लागे विलम, विलम न बुरे विचार। भजन बनावत दिन लगे, ढ़ाहत लगे न बार॥
का रस में का रोस में, अरि को जनि पतियाय। जैसे शीतल तप्त जल, डारत अग्नि बुझाय॥
होय भले को सुत बुरो, भला बुरे को होय। दीपक ते काजल प्रकट, कमल कीच ते होय॥
होय भले चाकरन ते, भले धनी को काम। त्यों अंगद हनुमान ते, सीता पाई राम॥
बिना कहेऊ सतपुरुष, पर की पूरैं आस। कौन कहत है सूर को, घर-घर करत प्रकाश॥