आध्यात्मिक पतन से सावधान

May 1954

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(श्री लालजीराम शुक्ल एम. ए.)

जब कोई मनुष्य अपने आपको अद्वितीय व्यक्ति समझने लगता है और अपने आपको चरित्र में सबसे श्रेष्ठ मानने लगता है तब उसका आध्यात्मिक पतन होता है। आध्यात्मिक पतन के बाद उसका सर्वनाश ही हो जाता है। अपने आपको दूसरे से उच्च समझना विश्वात्मा से विरोध करना है। इसका अर्थ अपने आपको सर्वात्मा अर्थात् परमात्मा से अलग करना है। विश्वात्मा ही हमको शारीरिक, मानसिक और नैतिक बल प्रदान करती है। जब तक हमारा इससे सम्बन्ध रहता है हम अपने आप में शक्ति और प्रतिष्ठा की अनुभूति करते हैं और हमारे अपने विचारों और कार्यों में एकता रहती है। जब हम विश्वात्मा से अपना सम्बन्ध तोड़ देते हैं तो हमारी सभी योग्यताएं नष्ट हो जाती हैं। हमारे गुण फिर दुर्गुण बन जाते हैं।

जब कोई व्यक्ति दूसरे लोगों को अपने से नीचा समझने लगता है तो अहंकार का उदय होता है। यह अहंकार की भावना दूसरों को हानि पहुँचाने वाले कार्यों के रूप में प्रकाशित होती है और अहंकारी व्यक्ति मानसिक अशान्ति का अनुभव करने लगता है। यह मानसिक अशान्ति अपने आपको सुधारने की चेतावनी देती है। अगर वह व्यक्ति इस चेतावनी के अनुसार अपने आपको नहीं सुधार लेता और अपने अनुचित कृत्यों के लिए प्रायश्चित नहीं करता तो अहंकार की प्रवृत्ति तथा दूसरों को हानि पहुँचाने वाले कार्य करने की प्रवृत्ति दोनों ही बढ़ती जाती है और व्यक्ति का सर्वनाश कर डालती है। इस सर्वनाश से वही व्यक्ति बच सकते हैं जिनमें परोपकार की भावना हो। हमारी प्रत्येक भूल अनेक दूसरी भूलों का कारण होती है। यदि कोई मनुष्य पहली भूल के बाद अपने आपको सम्हाल ले तो उसे अपने आपको बड़ा भाग्यवान समझना चाहिए। किन्तु त्याग के बिना अपने आपको सुधारने की ऐसी प्रवृत्ति सम्भव ही नहीं। जब तक हम में अहंकार की भावना रहेगी, त्याग की भावना का उदय होना कठिन है।

अपने आपको दूसरों से उच्च समझने की भावना दूसरों के आदर पाने की इच्छा के रूप में प्रकाशित होती है। अपने आपको दूसरों से बड़ा समझने वाला व्यक्ति दूसरों की शिष्टाचार की छोटी-छोटी गल्तियों को अपना अपमान समझ बैठता है। इससे उसका क्रोध बढ़ता है और कभी-कभी हिंसात्मक कार्यों में प्रकाशित हो उठता है। वह ऐसे कार्यों को कर बैठता है जो वह अपनी चेतनावस्था में अन्यथा कभी नहीं करता। इन कार्यों के परिणाम स्वरूप उसके ऊपर अनेक विपत्तियाँ आ जाती है।

इस विषय में हमारे यहाँ अम्बरीष और दुर्वासा ऋषि की कथा प्रसिद्ध है। दुर्वासा ऋषि अपने आपको दूसरों से उच्च समझने की भावना के शिकार थे। वे अपने आपको सबसे बड़ा तपस्वी मानते थे। अतएव उन्होंने अम्बरीष के एक साधारण उपवास के तोड़ने को ही अपना अपमान समझ लिया। उन्होंने अम्बरीष को शाप दिया लेकिन उस शाप का भागी उन्हीं को होना पड़ा। अगर हम किसी निर्दोष व्यक्ति पर क्रोध करते हैं तो भले ही हम उस समय उसको कुछ नुकसान पहुँचा दें, किन्तु अन्त में वह क्रोध हमारी हानि करता है। वह हमारी समस्त आध्यात्मिक शक्तियों का विनाश कर डालता है। अम्बरीष को शाप देते ही ऋषि दुर्वासा अपनी ही मानसिक शक्ति खो बैठे। भगवान विष्णु और शंकर भी दुर्वासा ऋषि को शरण नहीं दे सके। उनको अपने ध्यान तथा अन्य दूसरी आध्यात्मिक क्रियाओं में भी शान्ति नहीं मिली। अन्त में उनको झुकना पड़ा और राजर्षि अम्बरीष से क्षमा याचना करके अपनी अहंकार की भावना का नाश करना पड़ा तभी उन्हें शान्ति प्राप्त हुई।

उपरोक्त कथा में हम राजा अम्बरीष को विश्वात्मा का एक प्रतिरूप मान सकते हैं। ऋषि दुर्वासा ने इस विश्वात्मा को अपने से नीचा गिनकर उससे प्रतिद्वंद्विता स्थापित की और इससे वे आध्यात्मिक पतन की ओर बढ़े। इनकी आत्मा ने उनको बचाने के लिए मानसिक अशान्ति के रूप में चेतावनी दी। वे ऋषि थे, बड़े त्यागी थे, अपने आपको सुधारने में समर्थ हुए। अगर उनके स्थान पर कोई अन्य साधारण व्यक्ति होता तो उसका आत्म विनाश निश्चित था।

जब हम आध्यात्मिक उन्नति की अवस्था में रहते हैं तो हमारे हृदय में विश्वात्मा के प्रति लगन और दूसरों के प्रति क्षमा का भाव उदय होता है। तभी हमें मानसिक शक्ति प्राप्त होती हैं। मानसिक असाधारणता किसी भारी आध्यात्मिक त्रुटि की द्योतक होती है। जब हम इस अवस्था को प्राप्त करते हैं तो हमारे सभी विपत्तियों के मार्ग खुल जाते हैं। अपने आपको दूसरों से उच्च समझना भी मन की एक असाधारण अवस्था है। उच्च बुद्धि और उच्च चरित्र प्राप्त करना उत्तम है, किन्तु अपने आपको ऊंचा समझने की भावना आत्म विनाशक है। इस भावना के कारण हमारी आध्यात्मिक शक्तियों का अनुचित रूप से प्रकाशन होता है और आत्मोन्नति की सभी शक्तियाँ नष्ट हो जाती हैं। किसी भी चीज की अधिकता बुरी होती है। जब हमारी आध्यात्मिक शक्तियों का बाह्यीयकरण चर्म सीमा पर पहुँच जाता है तो हमारे हृदय में आत्महीनता की भावना का उदय होता है जिसका परिणाम मानसिक अशान्ति होती है। प्रत्येक मनुष्य में विश्वात्मा की शक्ति विद्यमान रहती है। जब तक वह इस शक्ति को विश्वात्मा के कार्य में ही लगाता है, उसकी आध्यात्मिक शक्ति अक्षुण्ण बनी रहती है। किन्तु वह जब इस शक्ति को अपनी ही शक्ति समझ बैठता है और उसे अपने ही हित के कार्यों में लगता है तो धीरे-धीरे यह शक्ति नष्ट होती है और अन्त में मनुष्य अपना ही विनाश कर डालता है।

जो व्यक्ति अपनी मानसिक शान्ति स्थिर रखना चाहता है उसको दूसरों की आलोचनाओं से चिढ़ना नहीं चाहिये। उसकी अपनी प्रशंसा के प्रति भी अपने कान मूँद लेना चाहिए। हमारे सामने हमारी प्रशंसा करने वाले व्यक्ति बड़े ही खुशामदी होते हैं। ऐसे लोग हमारी प्रशंसा करके हमारा अहित ही करते हैं। यदि कोई व्यक्ति हमारे अपरोक्ष में हमारी निन्दा करता है तो हमारा कर्त्तव्य है कि हम उससे न चिढ़कर उसके द्वारा कही गई सभी निन्दनीय बातों पर ध्यान दें और उनकी सहायता से अपने चरित्र को सुधारने की चेष्टा करें। अगर हम उनकी बिल्कुल परवाह न करें तो भी अच्छा है। इस संसार में कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो आलोचना और निन्दा से परे हो, सभी में कोई न कोई दोष अवश्य होता है। फिर हम अपने ही को ऐसा उच्च व्यक्ति क्यों समझे जो कि निन्दा के योग्य ही न हो। हमारी बुद्धि और शक्ति सभी एक विश्वात्मा की देन है। इसी विश्वात्मा या परमात्मा से अपना सम्बन्ध स्थापित कर हम निश्चय ही अपना उत्थान कर सकते हैं और इसी परमात्मा को भुलाकर हम निश्चय ही अपना पतन भी कर सकते हैं। अगर कोई मनुष्य बड़ा है तो केवल इसलिए कि उसने विश्वात्मा या परमात्मा से तादात्म्य स्थापित कर लिया है। अपने आपको दूसरों से उच्च समझने की भावना परमात्मा से सम्बन्ध विच्छेद की द्योतक है और हमारा आध्यात्मिक पतन है। यह सभी प्रकार के दुःखी का आगमन सरल कर देती है और हमारे मानसिक सन्तुलन को नष्ट कर देती है। मानसिक सन्तुलन के विनाश के साथ ही हमारे कार्यों का सन्तुलन भी नष्ट हो जाता है और हम परमात्मा से सम्बन्ध विच्छेद कर अपना ही पतन कर डालते हैं।


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