सर्प-विष और उसके प्रतीकार

May 1954

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री चन्द्रभूषण मिश्र, आयुर्वेदाचार्य)

सर्प-दंश की चिकित्सा के पूर्व यह जान लेना आवश्यक है कि किस-किस स्थान विशेष का काटा हुआ मनुष्य नहीं बच सकता और चिकित्सा भी निष्फलप्राय होती है।

अश्वत्थ देवायतन श्मशान,

बाल्मीक सन्ध्यासु चतुष्पथेषु।

याम्ये स पित्र्ये परिवर्जनीया,

ऋक्षे नरा मर्मसु ये च दष्टा॥

(सुश्रुत-कल्प 4)

तात्पर्य यह कि पीपल वृक्ष के ऊपर या नीचे, मन्दिर में, श्मशान में, मरुभूमि या रेत पर, संध्या में, जहाँ चार रास्तों का एक सन्धि-स्थान हो तथा नर्म स्थान-जैसे ललाट, सिर, कण्ड तथा छाती प्रभृति में, यदि साँप काट ले तो बचना असम्भव-सा हो जाता है। फिर भी इलाज अवश्य करना चाहिए।

तीन अवस्थाएँ

सर्पदंश मनुष्य की तीन अवस्थाएँ होती है, जो संक्षेप में इस प्रकार हैं-

प्रारम्भ में जब साँप काट लेता है तब साँप के काटते ही विष शरीर के रक्त में मिलकर शिरा धमनी तथा रसायनी के द्वारा रक्त के दौरान के हिसाब से फैलने लगता है तथा रक्त विष के कारण दूषित हो जाता है। इस दशा में विषाक्त रक्त काला, पीला या सफेदी लिये भदरंग हो जाता है और मानव शरीर में बड़ी गर्मी मालूम होती है।

दूसरी दशा में विष माँस-पेशियों को दूषित करने लगता है। यही कारण है कि आँख, मुँह, दाँत, नख और शरीर साँप के भेद के हिसाब से कृष्ण, पीत, सफेद देख पड़ते हैं। धीरे-धीरे तन्द्रा-सी आने लगती है। सन्धियों में बहुत दर्द होता है और चक्कर-सा आने लगता है। आमाशय तथा पक्वाशय में विष का प्रभाव स्थिर हो जाता है।

तीसरी दशा में सर्प का विष प्रायः सभी धातुओं को दूषित करता हुआ शुक्राशय में पहुँच कर हृदय तथा फुफ्फुस की शक्ति को नष्टप्रायः करने लगता है। इस दशा में मनुष्य की संज्ञा एकदम नष्ट हो जाती है। शरीर के रोम कूपों से पसीना अधिकाधिक आने लगता है और कण्ठ में कफ की गाँठ पड़ जाती है, इसी कारण अन्त में श्वास का आना-जाना बन्द हो जाता है और प्राणवायु नष्ट होने लग जाती है। यह अन्तिम अवस्था है।

तुरन्त ही दंश-स्थान को तेज छुरी से 1॥-1॥ इंच चीरकर एक इंच तक का माँस निकाल दे। ऊपर से गर्म पानी से धोते रहना चाहिए। इस क्रिया से रक्त का निकलना जारी रहेगा और विष भी निकल जायेगा। यह उपाय साँप के काटते ही आध घण्टे तक का है। ऐसा न होना चाहिए कि साँप का विष समूचे शरीर में फैल गया हो और घण्टे दो घण्टे तक यही उपाय किया जाय, अन्यथा अधिक रक्त निकाल देने से कहीं-कहीं हानि भी देखी गई है।

कहाँ तक विष का प्रभाव पहुँचा है, इसकी सबसे आसान पहचान यह है कि जहाँ तक विष का प्रभाव पहुँचा होगा वहाँ तक का रोम (केश) एक दम झुक जायगा, और यह कि जब तक विवर्ण रक्त काला, पीला एवं कुछ सफेदी लिए हुए भदरंग खून गिरता रहे, तब तक समझना चाहिए कि रक्त अभी विष के कारण दूषित है और जब लालिमा लिये हुये रक्त कुछ देर तक निकलता रहे तो समझना चाहिये कि अच्छा रक्त आ रहा है, विष का प्रभाव नष्ट हो गया। इसके बाद दंश स्थान को पुनः अगल-बगल से चारों-ओर पोंछकर ऊपर से गन्धक का तेजाब गिरा दें अथवा कार्बोनिक एसिड या पोटास उसमें डाल दें तथा आयडोफार्म गौज कटे स्थान में भरकर बैण्डेज बाँध दें। इस उपाय से बहुत लाभ देखा गया है।

एक यह भी उपाय है कि लोहे को गर्म कर काटे हुए स्थान को जला दें, बाद में शिरीष वृक्ष की छाल के स्वरस में केले की जड़ को पीसकर लेप करें तो विष नष्ट होगा।

खतरे की हालत में

अगर किसी कारण से पूर्व कथित उपायों से लाभ दृष्टिगोचर न हो, विष बढ़ता ही जा रहा हो अग्निदाह तथा रक्त-स्राव से लाभ न हो रहा हो तो जीवन बहुत बड़े खतरे में पड़ जाता है और चिकित्सा में बड़ी कठिनाई आ जाती है।

इस दशा में सर्वांग प्रसूत विष के निवारण के लिए फिर उपाय यही है कि नसों एवं शरीर के कई भागों कई जगह चीर-चीर कर शरीर का विषाक्त रक्त बाहर निकाल दिया जाय और बाद में उन चीरे हुए स्थानों पर शिरोष की जड़ की छाल पीस कर लेप कर दें। इसके प्रभाव से विष नष्ट होने लग जायगा। किन्तु यह सबके लिये हितकर नहीं है, जैसा कि आचार्य सुश्रुत ने कहा है-

गर्मिणीबालवृद्धनाँ सिराव्यधन वर्जितम्। विषार्त्तानाँ यथोदिष्टं विधानं शम्यते मृदु॥

इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुये चिकित्सा करनी चाहिये। यदि विष धीरे-धीरे फैलकर आमाशय में पहुँच गया हो तो यथाशीघ्र वमन कराकर विष बाहर निकाल देना चाहिये। ऐसा न करने पर विष आमाशय के बाद पक्वाशय में पहुँच कर अन्तड़ियों में फैल जाता है और बाद में हृदय एवं फुफ्फुस को दूषित कर डालता है। इस स्थिति में पंचकर्म- याने वमन, विरेचन, नस्य, विरुह तथा अनुवासन-चिकित्सा का स्तम्भ माना गया है, अतः पंचकर्म द्वारा उपचार करने से अत्यधिक लाभ होता है।

इसी चिकित्सा के प्रसंग में आचार्य ने कहा भी है कि-

किमत्र बहुनोक्तेन जैगलेनैव तक्षणम्। घृतं शीताम्बुना श्रेष्ठ भेषजं सर्पदंश के॥

जमालगोटे को पानी में पीसकर पीने से साँप का काटा हुआ तत्काल अच्छा हो जाता है। जमालगोटे में एक विशेष गुण यह भी है कि बिच्छू के काटे हुए स्थान पर लेप करने से बिच्छू का विष बहुत जल्द उतर जाता है।

त्रिवृद्धिशल्ये मधुकं हरिद्रे,

रक्तानरेन्द्रो लवणउच वर्गः।

कटुत्रिकं चैव विचूर्णितानि,

श्रृंगे निदध्यान्मधु संयुतानि॥

ऐषोऽगदो हन्ति विषप्रयुक्त,

पानाँजनाभ्यंजन नस्य योगैः

अवार्य वीर्यो विषवेगहंता ,

महागोदो नाम विष्पप्रभावः॥

(सुश्रुत-कल्प 5)

-त्रिवृत, इन्द्रायण की जड़, जेठी मधु, हरदी, दारुहल्दी, मंजीठ तथा सभी प्रकार के लवण, इन सब दवाओं को सम भाग लेकर मधु में मिला दें और गौ शृंग में भर कर उसका मुँह गौ शृंग से ही बाँधकर पन्द्रह दिनों तक स्थिर एक स्थान में छोड़ दें। इसके बाद इसके प्रयोग से शत प्रतिशत लाभ उठायें। इसे ही आचार्यों ने महाअगढ़ के नाम से सम्बोधित किया।

इस महा गुणकारी औषधि को गौ दुग्ध अथवा मधु में दो आने भर मिलाकर सर्पदंश से पीड़ित मनुष्य को खिलावें, आँखों में अंजन करें, नस्य दें तथा सर्पदंश स्थान पर लेप करें।

यह औषध भयंकर सर्प-विष को नष्ट कर डालती है। इस तरह की दवाएं प्रायः प्रत्येक गृहस्थ के यहाँ वर्षा ऋतु में तैयार करनी चाहिए, ताकि आवश्यकता पड़ने पर सभी के प्राण बचें। यह दवा अन्तिम अवस्था में भी उपयोगी सिद्ध हुई है।

अन्य योग

1- कच्ची फिटकरी 5 तोला, गाय का दूध 10 तोला पीसकर पिलावे तथा दंश-स्थान पर लेप करें।

2- फिटकरी का लावा 6 माशा, कालीमिर्च 1 माश, गर्म जल 10 माशा पीसकर बारम्बार पिलावें, बहुत लाभ होगा।

3- घी, नेउन, मधु, पीपल, अदरक, कालीमिर्च और सेंधा नमक- इन सातों को बराबर-बराबर एकत्र पीसकर आने भर की मात्रा में सर्पदंश रोगी को सात छटाँक निम्न के क्वाथ में या शिरीष वृक्ष की छाल के क्वाथ में देने पर क्रोध युक्त सर्प का काटा हुआ भी विष फट जाता है और रोगी अच्छा होने लगता है।

सर्प का काटा हुआ रोगी प्रायः संज्ञाहीन हो जाता है। लोग समझते है कि वह मर गया। मृत्यु की भली प्रकार परीक्षा किये बिना सर्पदंशित रोगी को अंत्येष्टिज न करना चाहिए। मृतक और संज्ञाहीन का अन्तर इस प्रकार जान सकते हैं-

अन्तिम अवस्था की परीक्षा

(क) संज्ञाहीन जीवित पुरुष की आँखों की पुतली में यदि चमक हो तो जानना चाहिए कि रोगी अभी जिन्दा है।

(ख) रोगी को प्रकाश में रख कर आँखों की पलक को उठाकर देखना चाहिए, अगर देखने वालों का प्रतिबिम्ब रोगी के नेत्रों में पड़ें तो समझना चाहिए कि रोगी जीवित है। इसी तरह रात्रि में यदि ऐसी बात हो तो दीप को उसके सामने कर पलक उठाकर देखना चाहिए। यदि रोगी के नेत्र में दीप का प्रतिबिम्ब दीख पड़े तो समझना चाहिए कि रोगी जीवित है।

(ग) रोगी की नाक और मुँह को दबाकर देखने से, सुई या पिन के चुभाने से अथवा लोहे को गर्म कर दागने से यदि कुछ भी कम्पन मालूम पड़े तो समझना चाहिए कि रोगी अभी जीवित है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118