घर का आँगन-आफिस की कुर्सी नहीं

May 1954

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(श्रीमती रेणुका देवी बी.ए.)

अभी परसों शाम को मैं अपनी नौ साल की लड़की के साथ बैठी अपने लड़के के लिए, जिसकी आयु 12 साल की है, कपड़े सी रही थी। मेरी लड़की बहुत देर तक कपड़ों की सिलाई को देखती रही। सिलाई जब खत्म होने को आई तो उसने एक ठण्डी-साँस लेकर धीरे से कहा- “माँ, मैं भी लड़का होती तो ऐसे ही कपड़े पहनती!”

मैंने पूछा- “क्यों, तू लड़का क्यों होना चाहती है?”

“हाँ ,मैं लड़का ही होना चाहती हूँ!”

“मगर क्यों? लड़के क्या लड़कियों से किसी बात में अच्छे होते है!”

कई बार पूछने पर भी, लड़की ने कोई जवाब नहीं दिया, मगर मैं समझ गई कि उसके मन में यही ख्याल जमा था कि लड़का होना लड़की होने की अपेक्षा ज्यादा अच्छा है। कोई खास वजह उसकी उससे पूछना व्यर्थ था, क्योंकि वह बता ही न पाती, मगर मैं इस बात को जानती हूँ कि जो मेरी लड़की का ख्याल है, वह 95 प्रतिशत स्त्रियों की भी जन्म प्रधान भावना है। लड़कों के बराबर साधन, देख-रेख और आराम मिलने पर भी-जैसा कि मैंने अपनी लड़की को दे रखे हैं- हर लड़की को हमेशा यह अनुभव होता रहता है कि आखिर वह एक लड़की ही है और लड़कों से हीन है। यही बात वयःप्राप्त स्त्रियों के बारे में भी सच है।

यह हीन-भावना क्या स्वाभाविक है? इसमें कितनी यथार्थता है?

मैं पश्चिम की स्त्रियों के बारे में नहीं जानती, सिर्फ अपने देश की कुछ जातियों की स्त्रियों का अनुभव मुझे है। मेरा अनुभव है कि हमारे यहाँ स्त्री के जीवन का आरम्भ ही सहने से होता है। आचार विवेचना को अलग रखकर उसे अपने स्वभाव में न्याय या अन्याय सबको सहने की सहिष्णुता लानी पड़ती है। विवाह के लिए भी 90 प्रतिशत स्त्रियों को अपनी स्वाधीनता, अपनी आवाज, अपने आत्म सम्मान के सब लक्षण मिटा देने पड़ते हैं। एक लम्बे काल से पुरुषों ने स्त्रियों के मन और मुँह को इस प्रकार बाँध रखा है कि स्वाधीनता के प्रति विमुखता अब उनके स्वभाव का एक खास अंग बन गई है।

एक बात और है, स्वभाव में सहन करने की आदत वहीं आती है, जहाँ व्यक्ति या तो दुर्बल हो या परिश्रमी। स्त्रियाँ दुर्बल भी हैं, परिश्रमी भी। इसके अलावा उनमें स्वभाव की एक विशेषता और है-वह प्रबल अत्याचार से आहत होकर भी उसके खिलाफ शिकायत नहीं करती। पुरुषों ने स्त्रियों की इस निःसहायता का हमेशा लाभ उठाया है।

जैसा अस्वास्थ्यकर और घुटा जीवन स्त्रियों को बिताने के लिए विवश होना पड़ता है, उसकी दो ही प्रतिक्रियाएँ उनके जीवन में होती हैं। पहली- या तो वह पुरुषों के बराबर पहुँचने की चेष्टा करती है और जिन सौभाग्यवतियों को ऐसा करने का अवसर नहीं मिलता, वह सासुओं, ननदों और जेठानियों के बेहिसाबी दिमाग से परेशान होकर एक ही आकाँक्षा को मन में प्रबल करते रहती हैं कि उम्र आने पर वह स्वयं भी अन्ध प्रभुत्व शक्ति को पायें।

दूसरी बात को छोड़कर मैं पहली ही बात की चर्चा इस लेख में करूंगी। मेरा कहना है कि स्त्री की पुरुष के बराबर पहुँचने की चेष्टा दुःसाध्य है। वजह साफ और सीधी है। स्त्री और पुरुष में अनिवार्य असमानता है और दोनों की निजी शक्ति सम्पूर्णतः अपने-अपने क्षेत्रों में ही प्रकट हो सकती है। इसके अन्यथा होने से उस शक्ति का रूप कृत्रिम और विकृत हो जाता है।

मैं यहाँ यह बहस नहीं करना चाहती कि पुरुष महान है या स्त्री? कर्म और संघर्ष के क्षेत्र में अनेक बाधाओं को लाँघ कर पुरुष अपनी योग्यता और श्रेष्ठता दिखाते आये हैं, सभी बड़े-बड़े वैज्ञानिक, भौगोलिक आविष्कार उन्होंने किये हैं। साहित्य, राजनीति, धर्म और व्यवसाय आदि सभी क्षेत्रों में पुरुषों की ही जय-जयकार सुनाई देगी। कहीं-कहीं अपवाद स्वरूप दो-चार स्त्रियों के नाम भी सुनने में आ जायेंगे। इतिहास में स्त्रियाँ चमकी हैं तो पुरुषों के प्रकाश की प्रतिच्छाया में, स्वयं अपनी महत्ता से कम। अधिकतर वह इतिहास के ‘अन्धकार’ में ही रही हैं।

मैं अब अपने मुख्य विषय पर आ गई हूँ। कहना चाहती हूँ कि इसी ‘अन्धकार’ में स्त्रियों को अपनी दक्षता दिखलाने का मौका मिला है और यही स्त्री का स्वाभाविक क्षेत्र है। यही विधाता की इच्छा है कि वह प्रकाश में न आकर, जितना वह है उतने ही में सम्पूर्ण है, ऐसी भावना रखे। यही स्त्रियों की अमोघ शक्ति है। इस क्षेत्र में अपना वास्तविक स्थान पाकर स्त्री जान जाती है कि उसे पुरुषों की स्पृहा करने की जरूरत नहीं। स्पृहा करने वही निकलती हैं जिन्हें अपनी जगह पाने का उचित अवसर नहीं मिलता।

सौभाग्यवश मुझे उतनी शिक्षा पाने का मौका मिला जितनी आजकल के औसत पुरुष को मिलती है। उस शिक्षा के सार्टीफिकेट के बल पर मैं चाहती तो किसी आफिस में नौकरी करके “स्वतन्त्र” जीवन जिसे बिताने की चाह शुरू-शुरू में हर पढ़ी लिखी लड़की के दिल में आती है।

लेकिन मैंने ऐसा नहीं किया, क्योंकि मैं यह भी जानती थी कि ऐसा करने से मेरी पुरुषों के बराबर ऊँचा उठने और अपने घरों में आप खड़े होने की एक कामना तो जरूर पूरी हो जाती, लेकिन अपने जीवन-लोक में रस न ला सकती। स्त्री का जीवन मन चाहे जीवन-साथी को पाये बिना अधूरा ही है, इस बात को हर स्त्री चाहें उसने कालेज के नोट्स याद किये हों या नहीं, अच्छी तरह जानती है। और स्त्री बुद्धिमती हो तो वह अपने वैवाहिक जीवन में अपने पति पर आश्रित रह कर भी वैयक्तिक आजादी को कायम रख सकती है।

गृहस्थ जीवन की ओर पुरुषों का ध्यान बहुत कम रहता है। इस विभाग को उन्होंने स्त्रियों को ही सौंप दिया है। यहाँ जो स्त्री पुरुषों का मन रख कर चलने का कौशल जानती हैं, वह घर की पूर्ण स्वामिनी बनी रहकर भी पुरुषों को इस भुलावे में रख रह सकती है कि असल घर की नैया को वे ही चला रहे हैं। हर समझदार पुरुष इस भुलावे में रहना चाहता है। उसे खुशी होती है, जब वह बच्चे से सुनता है कि उनको उनकी माँ ने यह कह डरा दिया था कि-“देखो, आखिर मुझे तुम्हारे पिताजी से शिकायत करनी पड़ेगी। नहीं तो मान जाओ अभी।” या विवाह आदि उत्सवों में भेंट लेन-देन के प्रसंगों पर स्त्री अपने अन्तिम निश्चय को यह कहकर टाल दे कि “मैं पहले उनसे पूछ लूँ।” आदि आदि।

99 प्रतिशत पुरुष ऐसे मामलों में सिवाय मन में खुश होने और अपनी स्त्री को बड़ी अक्लमन्द समझने के और कुछ नहीं करते। बाद में सारे निश्चय सारे काम स्त्री को ही अपनी मर्जी से करने पड़ते हैं, मगर इसमें पुरुष और स्त्री दोनों सम्मिलित रहते हैं और मैं समझती हूँ कि बारीकी से देखा जाय तो यहाँ भी स्त्री, पुरुष पर अपनी सहज स्वाभाविक शक्ति के बल पर विजय प्राप्त करती है।

मैं जानती हूँ कि ऐसी लड़कियाँ भी हैं जो गर्व से कहती हैं कि उन्हें पुरुषों को बहलाने की जरूरत नहीं। वे पुरुषों जैसी विद्वता हासिल करके ही विजय प्राप्त करना चाहती हैं-घर के बाहर जाकर उच्च पद प्राप्त करने और मशीन की तरह सिर्फ एक ताल, एक दिशा में चलती रहकर। शायद अन्त में वह अपना ध्येय प्राप्त कर भी लेती हों, मगर वे खोती रहती हैं-अपने जीवन की माधुर्यता-वह वस्तुएँ जो स्त्रियों की अपनी पूँजी है।

क्यों नहीं हम स्त्रियाँ अच्छी तरह इस बात को समझ लेतीं कि अपने और अपनी छोटी सी गृहस्थी के जीवन में आनन्द और माधुर्य लाना ही हमारा स्वाभाविक कार्य है? सुखी घर का निर्माण करके कोई भी स्त्री सफल कहे जाने वाले पुरुष पर आसानी से हावी हो सकती है। पुरुष ऐसी स्त्री को अपने पास समझने में गर्व और सन्तोष समझता है।

स्त्रियाँ पढ़ें, और जीवन भर अधिक से अधिक ज्ञान हासिल करती रहे और सभ्यता की प्रगति की धारा से अपने को अलग न रखें, यह मैं अवश्य चाहती हूँ। बिना ज्ञान के स्त्री एक गुड़िया मात्र है, जो बनी सजी रहने पर ही अच्छी दीखती है, मगर जिसमें आत्मा नहीं होती।

मगर स्त्री में ज्ञान के साथ आनी चाहिए उदारता और सबके लिए सदा व्यक्ति स्नेह की भावना और वह बुद्धि जिसे मैं ‘स्त्री-बुद्धि’ के अलावा और कोई मान नहीं दे सकती।

टोने-टोटकों और पुरानी कुरीतियों के प्रति अन्ध-श्रद्धा मैंने पढ़ी स्त्रियों में भी देखी हैं। स्त्रियाँ अपने को निरर्थक आचारों से मुक्त करके घरों की अवस्थाओं में वह शान्त क्रान्ति पैदा कर सकती हैं, जो पुरुष सैकड़ों बिल और कानून बनाकर भी नहीं कर सकते।

पुरुष को भी स्त्री के सकरुण स्नेह की हमेशा जरूरत रहती है। पुरुष रूपी मशीन में यह स्नेह मशीन को चलाने वाली शक्ति का काम करता है। स्त्री के स्नेह का स्थान पुरुष द्वारा आयोजित कोई भी चीज नहीं ले सकती। अपने स्नेह-दान से स्त्री पुरुष का सबसे अन्तिम दुर्ग-उसका आत्मा-गर्व भी सहज ही में जीत लेती है। दुनिया के बड़े से बड़े वीर और दार्शनिक लोग स्त्रियों के सामने स्वयं परास्त हुए हैं।

लेकिन स्त्री यह स्नेह-दान कर सकती है घर के प्राँगण में ही, आफिस की कुर्सी पर बैठकर नहीं। यह स्नेह का दान स्त्री की अपनी चीज है। वह दान पुरुष द्वारा स्त्री को दी गई चीजों- घर, रुपया, सहारा-की तुलना में बहुत हल्का दीखता है, मगर जो इस दान को पाते हैं वही पुरुष जानते हैं इसकी बड़ाई को। इसी तरह घर की दुनिया बाहर से देखने में छोटी अवश्य लगती है, मगर उसकी गहराई असीमित है।

ऊपर मैंने ‘स्त्री-बुद्धि’ की बात कही। ‘स्त्री-बुद्धि’ स्त्री की सबसे बड़ी सहायता है। मैं शब्दों में इस बुद्धि का परिचय नहीं दे सकती, क्योंकि वह अनिर्वचनीय है। मगर इस बुद्धि द्वारा स्त्री अपने को पुरुष के हाथ में सौंपकर जिन्दगी की कश्मकश से अपने को बचा लेती है। पुरुष के लिए “सुखमिति वा दुखमिति” होकर वह अपने लिए आजन्म आश्रम का प्रबन्ध कर लेती है। पति उसके लिए हर क्षण का सहारा ही नहीं, जीवन-बीमा भी बन जाता है। यही स्त्री-बुद्धि स्त्री के पोशाक के चयन रंगों के चुनाव और वेशभूषा के बनाव में प्रकट होती है।

अन्त में मैं फिर कहती हूँ कि यह स्त्री-बुद्धि स्त्री के लिए आश्चर्यजनक सत्य है। स्त्री चाहे तो इस बुद्धि का त्याग करके अपने स्वभाव का गला घोंट करके, अपने जीवन-स्रोत को पुरुषों के पत्थर के बने हुए रास्ते पर भी ले जा सकती है मगर इस काम में वीरता हो सकती है, आराम नहीं। मन की इच्छा न रहते हुये भी जो स्त्रियाँ उस रास्ते पर चलती हैं, उनकी दुर्गति अत्यन्त सोचनीय हो जाती हैं।


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