सफलता की आधार शिला आत्मविश्वास

December 1954

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम.ए.)

“आत्मविश्वास का अर्थ है ईश्वर की अनन्त शक्ति में विश्वास। जो असंख्य विपत्तियों से घिर जाने पर भी कार्य करता और कर्त्तव्य से च्युत नहीं होता वही सच्चा आत्म-विश्वासी है” -गाँधी जी

संसार में समुन्नत एवं अवनत जो दो प्रकार के व्यक्ति दिखाई देते हैं, उनके मानसिक संस्थान में मुख्य अन्तर आत्मविश्वास का आधिक्य या न्यूनता है। समुन्नत व्यक्ति को अपनी शक्तियों के प्रति अमित विश्वास होता है, जबकि अवनत को अपने अन्दर विश्वास नहीं होता। आत्मविश्वासी जो कुछ करता है, पर्याप्त विचार और चिन्तन के पश्चात् करता है, जबकि इस गुण से विहीन व्यक्ति ढिलमिल, अस्थिर, अनिश्चित स्वभाव का होता है। वह जो कुछ करता है आधे मन से करता है और उसके पग शिथिल से रहते हैं। आत्म विश्वासी के पग दृढ़ता से पड़ते हैं। वह जो कुछ करता है, दृढ़ संकल्पों से करता है। उसे अपने कार्य के प्रति उत्साह होता है वह लगन और परिश्रम से प्रतिदिन अपनी उन्नति करता चलता है। मानव प्राणियों का कुछ ऐसा नियम है कि जो अपने अन्दर शक्ति और विश्वास रखता है उसके इर्द-गिर्द अनेक व्यक्ति एकत्रित होते और उसके पथ प्रदर्शन में चलते हैं, अपना नेता मानते हैं, किन्तु आत्म श्रद्धा विहीन व्यक्ति रबड़ की गेंद के समान अन्दर से खोखला, अस्थिर बना रहता है। श्रद्धाविहीन व्यक्ति का जीवन उत्साह हीन होता है। वह चलता फिरता है, दैनिक कार्य भी करता है पर उसके जीवन की अवस्था शून्य के समान निष्क्रिय और मुर्दा होती है।

आत्मविश्वास दृढ़ निश्चयी है, तो विश्वास विहीन, अस्थिर, चंचल और सन्देह से परिपूर्ण व्यक्ति है। एक में दृढ़ता है, तो दूसरा हर जगह से लचीला ढीला ढाला। एक का जीवन उद्देश्य से परिपूर्ण है, तो दूसरा निरुद्देश्य और उत्साह विहीन है। एक आकाश में उड़ते हुए मजबूत पंख फड़फड़ाते हुए निष्क्रिय पक्षी के समान निर्बल है।

आत्म-विश्वास जीवन की आधारशिला है। एक उमंग है, जिससे जीवन-पुष्प खिल उठता है। इस गुण से मुक्त व्यक्ति हँसमुख सरल स्वभाव रहता है। उसका हर एक पग दृढ़ता से रखा जाता है। आत्मविश्वास साहस और पौरुष का पिता है। साहसी व्यक्ति तीव्रता से जीवन पथ पर अग्रसर होता है।

आत्मविश्वास से शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य कायम रहता है। जिसे अपनी शारीरिक और मानसिक शक्तियों के प्रति विश्वास है उसकी ताकतों का कभी क्षय नहीं होता। वह निरन्तर स्वस्थ और प्रसन्न होता जाता है। इसके विपरीत जब मनुष्य का आत्मविश्वास जाता रहता है तो वह रोगी, निराश, दुःखी, अपने को भार स्वरूप बन जाता है। ऐसे व्यक्ति का जीवन बड़ा कारुणिक एवं दुःखपूर्ण होता है। विश्वास जाते रहने से लोग आत्म हत्या तक करते हुए देखे गये हैं। आत्म विश्वास पूर्ण स्वस्थ व्यक्ति का एक सहज स्वाभाविक लक्षण है।

आत्मविश्वासी में एक दैवी तेज होता है जिससे उसका मुख अपूर्ण आशा से पूर्ण हो उठता है। सबको उसके प्रति विश्वास होता है। आत्म विश्वास लुप्त हो जाने से मनुष्य का सामाजिक, शारीरिक, मानसिक क्षय हो जाता है। पुनः इस दैवी गुण के विकास से शक्ति आने लगती है और मनुष्य पूर्ववत् खड़ा हो जाता है।

प्रो. लालजी राम शुक्ल का मत है, “मनुष्य की किसी बात में कार्य-क्षमता उसके आत्मविश्वास सच्चे आध्यात्मिक चिन्तन का परिणाम है। जो मनुष्य वर्तमान काल के कर्त्तव्य पर ही अपने ध्यान को केन्द्रित करता है और बची हुई शक्ति को आध्यात्मिक चिन्तन में लगाता है, उसका आत्मविश्वास नष्ट नहीं होता। जो व्यक्ति प्रत्येक काम में आगे पीछे की बात में अत्यधिक चिन्तित रहता है वह अपनी बहुत सी शक्ति व्यर्थ की चिन्ता में खो देता है। ऐसे व्यक्ति का आत्म विश्वास नष्ट हो जाता है। फिर उसकी कार्य क्षमता भी जाती रहती है और उससे अनेक प्रकार की भूलें होती रहती हैं।”

स्काटलैण्ड का राज ब्रूस एक बार शत्रुओं से पराजित हो कर अपना राजपाट खो बैठा। उसने कई बार प्रयत्न किए किन्तु सब में विफल रहा। बार-बार पराजित होने पर उसका आत्मविश्वास लुप्त हो गया। वह दुःखी निराश शत्रुओं से बचने के लिये एक गुफा में छिपा पड़ा था। उसका मन कष्टों और अभावों की कुकल्पना में व्यक्त था। वह संसार को दुःखमय समझ कर अपने जीवन को धिक्कार रहा था। मन तो बड़ा हठीला, चंचल, दृढ़ आर बलवान् है। जब यह नैराश्य और निर्बलता की ओर उन्मुख होता है, तो अपने प्रति संदेह, दुःखों, विफलता, अवगुण, कमजोरी से परिपूर्ण हो उठता है। ब्रूस ने देखा एक मकड़ी गुफा के द्वार पर जाला बुनने का विफल प्रयत्न कर रही है। वह बार-बार गिरती है पर पुनः नए उत्साह लगन अध्यवसाय से पुनः प्रयत्न करती है। मकड़ी के प्रयत्नों की निष्फलता ने उसे संकल्प विकल्प में डाले रखा। कुछ देर पश्चात् उसने देखा कि मकड़ी एक सूक्ष्म तन्तु को बुनने में सफल मनोरथ हो गई। जाला बढ़ता गया और अन्तः वह उसे पूर्ण कर सकी। ब्रूस सोचने लगा, “इस क्षुद्र निर्बल मकड़ी में भी कितना प्रयत्न, श्रम, लगन और परिश्रमशीलता है। इसने चंचल चित्त को इष्ट सिद्धि में एकाग्र किए रखा। विफलता की परवाह न की प्रत्युत दृढ़ता से लक्ष्य पर लगी रही। मैं भी पुनः प्रयत्न करूंगा और अवश्य सफल मनोरथ हूँगा। मैं चित्त विक्षेप नहीं होने दूँगा, पुनः पुनः प्रयत्न करूंगा, मन को निरन्तर एकाग्र करूंगा”। उसका आत्मविश्वास जाग्रत हो गया। ऐसा सोचकर वह मुस्तैदी से अपने काम में लग गया। उसने टूटी-फूटी सेना और रुपया संग्रह किया। एक दिन वह पूरी सफलता प्राप्त कर सका।

आत्म विश्वासी धैर्यवान होता है। वह विफलता से घबराता नहीं। अपना अभ्यास जारी रखता है। कभी निराश नहीं होता। चंचल ओर अस्थिर चित्त जहाँ जहाँ दौड़ दौड़ कर जाता है, वह पुनः पुनः उसे अपने लक्ष्य पर लगाता है। एकाग्रता से शक्ति आती है। धैर्य का प्रादुर्भाव होता है।

चाणक्य की सफलता का मूल कारण उसका आत्मविश्वास था। एक बार चाणक्य के पाँव में एक काँटा लग गया था। इस पर उसे इतना क्रोध आया कि उसने जब तक उस कंटीली झाड़ी की जड़ें न खोद डालीं तब तक विश्राम नहीं किया। उसने उस कुशा को अणु-अणु कर के ही छोड़ा। ऐसा था उस काले कलूटे ब्राह्मण का आत्म-विश्वास।

चाणक्य दरिद्र था, काला सा बदसूरत व्यक्ति था लेकिन उसमें आत्म विश्वास और शक्ति कूट-कूट कर भरी हुई थी। सभा में चाणक्य को अपमानित किया गया। दरिद्र चाणक्य का क्रोध जाग्रत हो उठा। उसने प्रतिज्ञा की कि वह महानन्द से प्रतिशोध लेगा जब तक नन्द वंश का नाश न कर देगा तब तक अपनी चोटी न बाँधेगा। चाणक्य का आत्मविश्वास इतना दृढ़ था कि प्रयत्न सफल हुए। परिस्थितियाँ उसकी चेरी बनीं और अन्ततः उसने नन्दवंश का नाश ही करके छोड़ा।

हिटलर, मुसोलिनी, को अपनी शक्तियों के प्रति अमित विश्वास था। यद्यपि वे कुटिलता की ओर बढ़े और नाजीवाद का प्रचार किया, पर एक दिन उनकी शक्तियों के सम्मुख सम्पूर्ण यूरोप थर्रा उठा था। राणा प्रताप सिंह मुगलों से अन्त समय तक लड़ते रहे। राज परिवार ने जंगलों में असंख्य कष्ट झेले। कुछ गिने राष्ट्रवादी देश भक्तों और भीलों के अतिरिक्त उनका कोई सहायक न था। केवल आत्म विश्वास ही उनका मित्र, उनकी शक्ति, उनकी मूल प्रेरणा थी। शिवाजी ने थोड़ी सी सेना की सहायता से मरहठा राज्य की स्थापना की थी। उन्होंने जीवन भर अपना ही सहारा देखा। सिद्धार्थ ने आत्म विश्वास के बल पर राजपाट त्याग कर दिया था और जीव ब्रह्म आत्मा का साक्षात्कार कर उपरामता को प्राप्त हो धैर्य युक्त बुद्धि से परमात्मा में लीन हो गए। उन्होंने आत्म विश्वास के बल पर जन्म, मृत्यु, बुढ़ापा, और रोग आदि पर विजय प्राप्त की।

इसी प्रकार के अनेक उदाहरण हमें इतिहास, पुराण, महाभारत, रामायण इत्यादि ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं जिनसे प्रतीत होता है कि मनुष्य परिस्थितियों, भाग्य या घटनाओं का दास नहीं है। वह अपने अन्दर एक गुप्त आध्यात्मिक शक्ति रखता है, जिससे उसके शरीर में तेज, कार्य में दृढ़ता और संकल्पों में शक्ति आती है। कठिनता का अंधकार विलुप्त होकर सफलता का प्रकाश आता है, उद्देश्य की बाधाएँ दूर होती हैं, कठिन कार्य सफल बनते हैं। यह शक्ति उसका जीता जागता आत्म विश्वास है।

मनुष्य की आत्मा असंख्य शक्तियों की भंडार है। आत्मशक्ति प्राप्त करने वाला साधक चाहे जो क्षेत्र चुने ले सर्वत्र सफल होता जाता है। नौकरी, व्यापार, राजनीति, धर्म समाज सेवा, विद्या प्राप्ति, राज्यशासन, वकालत, वैद्यक-चाहे जो भी कार्य क्षेत्र चुना जाय सर्वत्र मनुष्य का आत्म विश्वास ही सिद्धि में सहायता होता है।

तुम्हारा परमात्मा है, परमात्मा का बल तुममें है। तुम्हारी आत्मा ही परमात्मा का लघु स्वरूप है। यदि तुम्हें ईश्वर को देखने की आकाँक्षा है, तो उसे निज हृदय में ढूँढ़ो। अपनी आत्म शक्ति से तुम ईश्वर को अपने अन्दर देख सकते हो। तुम्हारे रक्त की बूँद में ईश्वरीय शक्ति का दिव्य प्रवाह बह रहा है। वह ब्रह्म सत्य, ज्ञानस्वरूप एवं अनन्त है। वह ज्ञान मय, चैतन्य और आनंदस्वरूप है। वह तुम्हारी आत्मा में बैठकर तुम्हें नित्य और अद्वितीय शक्ति, साहस, पौरुष प्रदान कर रहा है। परब्रह्म परमात्मा का स्वरूप होने के कारण आपको अपने शक्तियों की पूँजी सम्हालनी चाहिए। शक्ति पाकर निर्बल और पंगु नहीं रहना चाहिए। सच मानिये, आपको अपने अंतर्जगत से अतुल सामर्थ्य और शक्ति प्राप्त हो सकती है यदि आप हृदय में स्थित विराजमान परमदेव के दर्शन कर लें। हानि लाभ, जय पराजय, यश अपयश, मान अपमान सब में परमात्मा के बल से सामर्थ्य ग्रहण करते रहिए।


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