हमारी ईमानदारी का बच्चों पर प्रभाव

December 1954

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(प्रो. श्री लालजीराम शुक्ल)

बालक की सेवा मनुष्य के जीवन को पवित्र बनाती है। काम, क्रोध और लोभ इन सभी मनोवृत्तियों का इससे शोध होता है। गृहस्थ जीवन का यदि कोई लाभ है तो बालकों की सेवा है। चाहे अपने बालकों की हो या दूसरों के, उनकी सेवा करना महापुण्य है। इसलिए जिस व्यक्ति की सन्तान नहीं होती, उसे यह पुण्य कमाने का सौभाग्य नहीं होता। यहाँ यह दर्शाना चाहते हैं कि जिस व्यक्ति का बालकों के प्रति स्वाभाविक प्रेम नहीं होता, उसे प्रकृति सन्तान देती ही नहीं। लोभ, प्रेम का विनाशक है। अतएव जिस व्यक्ति के मन में लोभ की मात्रा अत्यधिक होती है उसकी सन्तान नहीं होती। काम और क्रोध सन्तान के शरीर और मन के गठन कर अपना कुप्रभाव अवश्य डालते हैं, पर जितना प्रभाव लोभ का होता है उतना इन दूसरे मनोविकारों का नहीं होता। काम और क्रोध स्थायी मनोविकार नहीं हैं। वे एक क्षण में आते हैं और दूसरे क्षण में चले जाते हैं। दूसरे यह मनोभाव आते हैं पहचान लिए जाते हैं। जब कोई व्यक्ति काम अथवा क्रोध के वश में होकर अनुचित काम कर बैठता है तो पीछे पछताता है। वह उन मनोविकारों से मुक्त होने की चेष्टा करता है, पर लोभ न तो पहचाना ही जाता है और न उससे मुक्त होने की मनुष्य चेष्टा ही करता है। काम और क्रोध मनुष्य के बड़प्पन के कारण नहीं होते, पर लोभ से धन संग्रह होता है और इससे मनुष्य आज कल की दुनिया में आदर भी प्राप्त कर लेता है।

लोभ, क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि मनोविकारों के उत्पादक हैं। लोभी, मनुष्य बड़ा स्वार्थी होता है। जहाँ लोभ होता है वहाँ प्रेम की उपस्थिति सम्भव नहीं। प्रेम का वातावरण ही संतान के जीवन का प्राण है। अतएव लोभी और कृपण मनुष्य के घर सन्तान का पैदा होना अथवा जीना असम्भव हो जाता है। देखा गया है अपने आप पैसा कमा कर बड़े बने लोगों को या तो सन्तान होती नहीं और यदि संतान होती भी है तो वह मर जाती है। यह भी देखा जाता है कि जब धनी अथवा कृपण मनुष्य धन के प्रति अपना मोह छोड़ देता है और अपना धन उदारतापूर्वक दूसरी की सेवा में खर्च करने लगता है, तो सन्तान जीवित रहने लगती है। कितने ही सन्तानहीन व्यक्ति इस प्रकार सन्तान प्राप्त कर लेते हैं। मैंने अपने अनुभव में देखा है कि एक गृहस्थ के घर में सन्तान नहीं थी। पति पत्नी की अवस्था 35 वर्ष के लगभग हो चुकी थी। उन्होंने एक गरीब बालक को जो स्कूल में पढ़ता था अपने घर में रख लिया। वे उसे खूब प्यार करते थे। दो साल के पश्चात् वह बालक उस घर से दूसरी जगह चला गया, पर उनका प्रेम उस बालक से नहीं छूटा। वे उसे समय-समय पर बुलाते ही रहते थे। कुछ समय के बाद उनको भी सन्तान होने लगी और इस समय उन्हें पाँच सन्तानें हैं।

यहाँ यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि दत्तक पुत्र से वह मानसिक शुद्धि नहीं होती जो दूसरे लोगों के बालक को घर में रख कर उनकी सेवा से होती है। दत्तक पुत्र सेवा भाव से नहीं रखा जाता, अपना नाम रखने के लिए रखा जाता है। अपने मरने के बाद धन की रक्षा कौन करेगा, इस बुद्धि से दत्तक पुत्र रखा जाता है। यहाँ पुत्र का पालन धन की रक्षा के लिए और नाम रखने के लिए किया जाता है। अतएव दत्तक पुत्र से मनुष्य के लोभ में कमी नहीं होती। बहुत से दत्तक पुत्र व्यभिचारी, कुकर्मी और रोगी होते हैं इसका कारण उनके दत्तक माता-पिता का मानसिक वातावरण है।

कितने ही कन्जूस लोगों को अपनी सन्तान तो होती नहीं। यदि वे दूसरे की सन्तान अपने घर में रखलें तो वह भी मर जाती है। अभी मेरे एक मित्र ने अपने ऊपर बीती कथा सुनायी। उसका बड़ा लड़का हाल ही में मर गया। उन्होंने इस लड़के को अपने भाई के पास रख दिया था। मेरे मित्र गरीब हैं। उनकी चार सन्तानें हैं। उनके भाई लखपति हैं पर सन्तान एक भी नहीं है। वे अपनी कमाई से लखपति हुए हैं। वे दिन भर काम करते हैं तथा रोजगार में बड़े चतुर हैं। मेरे मित्र ने दूसरे लोगों की कहा-सुनी से अपने बड़े लड़के को बड़े भाई के पास रख दिया। एक साल के भीतर ही वह लड़का मर गया। इस लड़के की मृत्यु का कोई मानसिक कारण हो सकता है इस बात की सम्भावना मेरे मित्र को न थी। उन्होंने अपना दूसरा लड़का उसके पास रख दिया। पर थोड़े ही दिन रहने के पश्चात् देखा गया कि इस बालक के चरित्र में बहुत सी बुराइयां पैदा हो गयीं, जो पहले उसमें न थी। मैंने अपने मित्र को शीघ्र से शीघ्र दूसरे लड़के को वापिस लाने के लिए कहा। इस मित्र के द्वारा यह भी पता चला कि उनके भाई ने अपने एक दूसरे सम्बन्धी की एक लड़की भी रखी थी। वह लड़की भी साल भर के भीतर मर गयी।

पाठक एक मनोवैज्ञानिक की लेखनी से इस प्रकार की घटनाओं का वैज्ञानिक कारण प्रदर्शित होते देख कर आश्चर्य करेंगे। साधारण वैज्ञानिक ऊपर कहे गये विचारों को प्रायः अन्धविश्वास मात्र मानेंगे। जनसाधारण में यह किंवदन्ती प्रचलित ही है कि बाँझ व्यक्ति के पास अपनी संतान नहीं रखनी चाहिये। इस किंवदन्ती का आधार समाज के अनेक लोगों का अनुभव है। इसकी सत्यता आज हम मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों के द्वारा सिद्ध होते हुए पाते हैं। यहाँ एक दो उदाहरण देना उक्त सिद्धाँत की पुष्टि के लिए आवश्यक होगा।

लेखक एक ऐसे बड़े धनी सेठ को जानता है जिसके दो भाई और हैं। इस सेठ के बड़े भाई ने छोटे भाई के यहाँ नौकरी कर ली। सेठ के मैनेजर का मासिक वेतन एक हजार रुपया था और बड़े भाई का वेतन डेढ़ सौ रुपया मासिक था। सेठ ने अपने छोटे भाई को अपने यहाँ नौकर रखना चाहा। वह छोटा भाई अपने सिर पर घी का पीपा रखकर गाँव-गाँव बेचता और इससे अपनी रोजी चलाता था। सेठ के बारह सन्तानें हुई परन्तु दो वर्ष से अधिक कोई जीवित न रही। उसके बड़े भाई को एक भी सन्तान न हुई। छोटे भाई के तीन लड़कियाँ और दो लड़के हुए और सभी जीवित रहे। सेठ ने अपने छोटे भाई के छोटे लड़के को गोद ले लिया। बड़ा स्वस्थ रहा। पर छोटे लड़के को अब अनेक प्रकार की बीमारी घेरने लगी। इस बालक को मैंने कभी निरोग नहीं पाया। सेठ ने इस बालक की शिक्षा के लिए अनेक प्रकार का प्रयत्न किया परन्तु वह सुशिक्षित न हो सका। सेठ स्वयं बड़े शिक्षा प्रेमी हैं। किन्तु उनके शिक्षा प्रेम का उल्टा ही प्रभाव बालक पर पड़ा। वे बालक को कठोर अनुशासन में रखते जिससे उसके आचरण में किसी प्रकार की भ्रष्टता न आ जाय। उनके कठोर नियन्त्रण से भ्रष्टता तो नहीं आयी किन्तु बीमारी आ गयी। सम्भव है जब यह बालक बीमारी से मुक्त हो जाय तो वह आचरण भ्रष्ट बने। अनुदार चित्त व्यक्ति के दत्तक पुत्र का जीवन प्रायः इसी प्रकार का होता है।

उपयुक्त दृष्टान्त से यह स्पष्ट है कि बालकों के जीवन के लिए और उनके मानसिक विकास के लिए उन्हें पवित्र विचारों के वातावरण में रखने की आवश्यकता है। तो भी मनुष्य के विचार बड़े अनुदार रहते हैं। वह धन में बाधा डालने वाले व्यक्तियों के प्रति अपने मन में बहुत ही बुरी भावनाएँ लाता है। वह ऊपर से बड़ा ही सुशील हँस मुख होता है पर भीतर से बड़ा कठोर हृदय और क्रूर होता है। उसके मन में प्रत्येक क्षण दूसरों के विनाश के भाव उठा करते हैं। ये बुरे भाव उनके मन में अनजाने ही प्रवेश कर जाते हैं। जो व्यक्ति उनके पास रहते हैं। वे उस व्यक्ति के मन में बड़ा उथल-पुथल मचा देते हैं। यदि किसी व्यक्ति का मन दृढ़ न हुआ तो वे इस व्यक्ति का विनाश ही कर देते हैं। हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे प्रत्येक विचार चाहे वे उदार हों अथवा अनुदार अपने आस-पास के लोगों पर प्रभाव डालते ही हैं। इस संसार की सबसे मौलिक सेवा संसार के लोगों के प्रति सद्भावना प्रदर्शित करके करते हैं। इसी तरह उनकी सबसे भारी क्षति दुर्भावनाओं को अपने मन में लाकर करते हैं।

बालक का मन बड़ा ही निर्मल होता है। उसके मन में दृढ़ता नहीं होती। अतएव जब किसी व्यक्ति के प्रबल विचार उसके अचेतन मन में घुस जाते हैं। तो वे उसकी बड़ी क्षति कर डालते हैं। यदि कोई व्यक्ति अपने शत्रु के विनाश के विचार मन में ला रहा है और इसी बीच उसका बालक उसके समीप आये तो अज्ञात रूप से उसके वे अभद्र विचार बालक के हृदय में प्रवेश कर जाते हैं। इस कारण बालक का स्वास्थ्य नष्ट हो जाता है अथवा उसकी मृत्यु ही हो जाती है।

हमारी साधारण धारणा है कि बालक को बिना सिखाये कुछ भी नहीं आता। बालक के जीवन पर उन्हीं बातों का प्रभाव पड़ता है, जिन्हें हम जान बूझकर उसके मन में डालते हैं। पर हमारी यह धारणा भ्रमात्मक है। हम बालक के जीवन पर जितना जान बूझकर प्रभाव डालते हैं उससे कहीं अधिक प्रभाव उसके जीवन पर अनजाने डालते हैं। हम जो भी विचार मन में लाते हैं। उससे बालक प्रभावित होता है। यदि हमारे सब समय के विचार भले हैं, यदि हम सब समय दूसरे के ही कल्याण का चिन्तन करते हैं तो बालकों का चरित्र स्वतः ही सुन्दर बन जाता है। प्रेम ही सब सद्गुणों का स्रोत मूल है और घृणा सब दुर्गुणों का। हमारी विश्व प्रेम की भावनाएँ बालकों के हृदय में स्थान कर लेती है और वे उसे अपने आप सदाचारी बना देती हैं।

जो व्यक्ति सन्तान को सुयोग्य बनाना चाहता है, उसे यह आवश्यक है कि वह कठोर परिश्रम से पैसा कमाकर उनका लालन पालन करे। दूसरे के धन की आशा न करे। अपने बालकों को दूसरों के सहारे कभी न छोड़े। यदि कोई गरीब व्यक्ति अपने बालक को प्रेम के साथ पालता है और यदि ऐसे बालक को वह किसी कारण वश धनी से धनी के घर थोड़े दिन के लिए रख दे वहाँ बालक को सब प्रकार के सुख की सामग्री मिलती है तो भी वह बालक वहाँ रहना पसन्द न करेगा। बालक प्रेम का भूखा होता है। प्रेम की भूख भोजन की भूख से भी प्रबल होती है। धनी घर में बालक की केवल भौतिक भूख तृप्त हो सकती है। यही कारण है कि वह ऐसे घर को जेलखाने के समान मानता है। ऐसे घर में रहने पर पहले तो वह वहाँ से भागने की चेष्टा करता है और जब वह इसमें समर्थ नहीं होता तो रोग का आश्रय लेता है। जो बालक इस प्रकार के वातावरण में रहकर भी जी जाते हैं वह किसी न किसी प्रकार के बड़े चरित्र दोष को पकड़ लेते हैं, देखा गया है कि दत्तक पुत्र आदि रोगी, क्रूरकर्मी, व्यभिचारी न हुआ तो वह निस्सन्तान अवश्य होता है। इस प्रकार की घटना का प्रधान कारण बालक का दूषित मानसिक वातावरण में पाला जाना है। किसी भी दीन व्यक्ति को, अपनी सन्तान को, यदि प्यार करता है, अपने धनी सम्बन्धी के घर न रखना चाहिए। यदि यह संबंधी निस्सन्तान है तो उसे और भी अधिक सावधान रहना चाहिए। इससे बालक के मर जाने का भय है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने-आप ही बड़ी लगन के साथ अपने बालकों का लालन-पालन करना चाहिए। इससे बालकों का कल्याण होता है ओर अपना भी आत्मोद्धार होता है।


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