(श्री दुर्गाशंकर केवलराम शास्त्री )
संस्कृति और संस्कार दोनों अनन्यार्थ शब्द हैं। प्राचीनों ने संस्कृति शब्द का पुष्कल और एक से अधिक अर्थ में उपयोग करके उसे महा अर्थवाहक बनाया है।
संस्कार शब्द का अर्थ स्पष्ट करने के लिए जड़ वस्तु के संस्कार का उदाहरण दिया है, किन्तु हम तो यहाँ मनुष्य के संस्कार का विचार कर रहे हैं। वैसे स्नानादि द्वारा शरीर की शुद्धि के लिए शरीर संस्कार शब्द का प्रयोग होता है, लेकिन यहाँ तो संस्कार शब्द से हमारा हेतु मनुष्य के मन, बुद्धि, भावना, अहंकार आदि को चमकाने, विकसित करने से है।
जन्मना जायते, शूद्रः संस्कारैद्विज उच्यते।
अर्थात्- मनुष्य जन्म से द्विज नहीं होता, द्विज तो वह संस्कार द्वारा बनता है। इस वचन में स्मृत्युक्त उपनयनादि संस्कार-यानि उनके हेतु से होने वाले शास्त्रों कर्म ही विवक्षित हैं। ऐसा न मान कर हम यह मानें कि उपनयन के बाद प्राप्त ब्रह्मचर्य और विद्यार्जन भी विवक्षित हैं। साराँश यह कि मनुष्यादि के एतद्विषयक समग्र निरूपण को विशाल दृष्टि से ध्यान में लेकर सोचा जाय तो ऊपर के वचन का तात्पर्य यह निकलता है कि स्वभावतः मनुष्य पशु अथवा पामर है और संस्कार द्वारा वह सच्ची मानवता वाला अर्थात् संस्कारी मनुष्य बनता है। संस्कार शब्द की इतनी चर्चा से यह स्पष्ट हुआ ही होगा कि संस्कार शब्द का जो चमक या पालिश सूचक अर्थ है वह बाहरी सफाई और शुद्धि का नहीं, बल्कि मानव हृदय की उस चमक या शोभा का द्योतक है, जिससे मनुष्य की रहन-सहन भावना, बुद्धि सभी कुछ समाज में दीप्त हो उठें। दूसरे शब्दों में, इसे यों कह सकते हैं कि जिस शिक्षा से मनुष्य में समाज हितलक्षी और आध्यात्मिक गुणों का विकास और वृद्धि होती है, उसी को संस्कार कहते हैं। जैसा कि शंकराचार्य ने कहा है, मात्र दोषापनयन या मात्र गुणाधान से नहीं, बल्कि संस्कार के लिए दोषापनयन और गुणाद्यान दोनों की आवश्यकता है।
संस्कार शब्द का अर्थ अंग्रेजी के कल्चर शब्द के अर्थ से मिलता जुलता है। लेकिन हम शंकर द्वारा किये गए अर्थ को पकड़ कर ही आगे बढ़ें तो मानव चित्त के संस्कार द्वारा दूर करने योग्य दोषों का अर्थ होगा, मनुष्य जीवन के मूल से चिपटी हुई पशु सहज स्वाभाविक वासनाएँ, जिनमें राग, द्वेष, मोह और भय मुख्य हैं तथा अनेक पीढ़ियों की अविद्या, भय और राग द्वेष प्रेरित प्रवृत्तियों के कारण रक्त में भिदी हुई पामर जनों में साधारणतः पाई जाने वाली आदतें भी हैं। सरलता के लिए हम मान लें कि इन द्विविध दोषों का अपनयन ही दोषानयन है और गीता में दैवी सम्पद् के रूप में जिनकी गणना की गयी है उन और उनके सदृश गुणों का चित्त में आधान, गुणधान है। इस प्रकार के दोषानयन और गुणधान का नाम ही संस्कार है, आदर्श संस्कार की इस व्याख्या से सन्तोष मान कर हम आगे बढ़ें।
इस प्रकार के संस्कार शुभ संस्कार है। साधारणतः संस्कार शब्द का प्रयोग शुभ संस्कारों के लिए ही किया जाता है और वही ठीक भी है क्योंकि जिन्हें अशुभ संस्कार या कुसंस्कार कहा जा सकता है, उनमें चित्त को चमकाने या उज्ज्वल बनाने की क्षमता ही नहीं होती। जिसे योगशास्त्र में क्लेश कहा गया है, और अन्य शास्त्रों में जिसे दोस्त माना गया है, उस अविधा, भय, राग, द्वेष, से उत्पन्न वृत्ति और स्वभाव का ही योग शास्त्रीय नाम अशुभ संस्कार है।
अब मानव चित्त के विकास की भिन्न-भिन्न भूमिका के अनुसार व्यक्ति में शुभाशुभ संस्कारों का मिश्रण और शुभ संस्कारों में भी उच्च नीच भूमिका का होना स्वभाविक है। जहाँ एक समाज में उच्च भूमिका के शुभ संस्कारों वाले कुछ लोग भी पाए जाते हैं। किन्तु किसी भी राष्ट्र के श्रेष्ठ विचारकों और दृष्टाओं का प्रयत्न सदा यही रहता है, कि उच्चतम संस्कार ही आदर्श रूप में प्रतिष्ठित हों।
ऊपर संस्कार का जो विचार किया है, उससे व्यक्ति के संस्कारों का ही अर्थ निकलता है। प्राचीनों के गर्भाधानादि संस्कार विचार में यही अर्थ निहित है और यह तो मानी हुई बात है कि शास्त्रोक्त विधि से नहीं, किन्तु संस्कार युक्त शिक्षा द्वारा किसी भी व्यक्ति के जीवन में तेज और चमक पैदा होती है। लेकिन अधिकतर लोगों के जीवन में यह चमक बाहरी ही रहती है। साथ ही, यह भी पाया गया है कि तीव्र संवेग युक्त विशिष्ट व्यक्तियों के चित्त के समूचे प्रदेश में यह चमक या तेज गहराई तक उतर जाता है और उनके चित्त की समस्त भूमिकाओं को प्रदीप्त कर देता है। इस तरह ऊपर हमने जो अर्थ किया है, उस अर्थ के अनुरूप शुभ संस्कार वाले श्रेष्ठ मनुष्यों के प्रत्यक्ष सदाचार युक्त उदाहरण से, उनके द्वारा दी गई शिक्षा दीक्षा से और क्वचित् किसी उत्तराधिकार के बल से, उनकी सन्तान में ये संस्कार न्यूनाधिक अंश में प्रकट होते हैं, और चित्त की ऐसी संस्कारशील स्थिति जब किसी समाज में कई-कई पीढ़ियों तक बराबर बनी रहती है और निरन्तर विकसित होती रहती है तो आगे चल कर वह उस समाज का स्वभाव बन जाती है, और उस दशा में हम उसे उस समाज का संस्कार कहते हैं। इसमें संस्कार शब्द के दोनों अर्थ निहित हैं।
वैसे मनुष्य जीवन में दो प्रकार से परिवर्तन होते हैं। एक परिस्थिति के दबाव के कारण, और दूसरे, मनुष्यों के अपने पुरुषार्थ के कारण। जीवन को टिकाये रखने के लिए परिस्थिति के अनुरूप परिवर्तन प्राणी मात्र के जीवन में होते रहते हैं। मनुष्य भी एक प्राणी है, अतः उसके जीवन में भी परिस्थिति के अनुकूल परिवर्तनों का होना स्वाभाविक है। किन्तु परिस्थिति के ऐसे दबाव से होने वाले परिवर्तन संस्कार नहीं कहलाते। जब मनुष्य सोच-समझ कर प्रयत्न पूर्वक अपने मन, बुद्धि आदि का विकास करता है, तो उसका वह विकास ही संस्कार कहा जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति प्रयत्न करे, तो वह अपनी पामरता को टाल कर संस्कारिता प्राप्त कर सकता है और इसके विपरीत प्रमाद वश अपने उच्च संस्कारों को छोड़ कर वह पामरता के गर्त में गिर सकता है। महाभारत में यथार्थ ही कहा है-
प्रमादं वै मृत्युँमहं ब्रवीमि अप्रमादभृतत्वं ब्रवीमि।
अर्थात्- प्रमाद के कारण उत्पन्न पामरता ही मृत्यु है और अप्रमाद से प्राप्त होने वाली संस्कारिता ही अमरता है।
भिन्न-भिन्न राष्ट्रों में उनके इतिहास के विभिन्न कालों में जो संस्कृतियाँ प्रकट हुईं, वे उन उन राष्ट्र की भौतिक परिस्थितियों और ऐतिहासिक बलों द्वारा उत्पन्न की गयी स्वभाव जन्य विशेषता के परिणामस्वरूप, अपनी-अपनी खास विशेषताओं वाली रही हो तो वह स्वाभाविक ही है। ये साँस्कृतिक विशेषताएँ उन उन राष्ट्रों के व्यावर्तक लक्षणों जैसी मानी गई और उन्हें अभिमान की वस्तु समझा गया, किन्तु संसार के अलग अलग देशों और युगों में जो पैगम्बर और संत महात्मा हो गये, उन्होंने तो सत्य, अहिंसा, अनासक्ति सहिष्णुता, सब भूतों के प्रति भ्रातृभाव या आत्मभाव, आध्यात्मिकता, अभय, ज्ञान, विज्ञान आदि दैवी सम्पद् रूप संस्कारों पर ही अधिक जोर दिया है और विभिन्न संस्कृतियों के अन्तस्तल में विद्यमान इन उच्च संस्कारों को ही ग्रहण करके इस युग के महापुरुष भी अखिल मानव जाति की एक और अभिन्न संस्कृति की रचना के लिए सतत् यत्नशील रहें, इसी में संसार के भावी सुख और शान्ति की आशा निहित है।