दाम्पत्य प्रेम स्थिर कैसे रहे?

December 1954

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(श्री कृष्णानन्द जी )

पति-पत्नी का सम्बन्ध शासक शासित के रूप में समझने वाला अगर एक आँख का अन्धा होता है, तो उसको कांट्रेक्ट समझ, महज छोटी बातों पर, पारस्परिक उदारता के अभाव में, सम्बन्ध विच्छेद का समर्थन करने वाला दोनों आँखों का। पहले में पत्नी केवल संभोग की वस्तु समझी जाकर यंत्रवत् संचालित होती है, उसका कोई पृथक व्यक्तित्व नहीं रह जाता, तो दूसरे में पति-पत्नी दोनों केवल अपनी पाशविक वृत्ति की पूर्ति की मृग मरीचिका में फँस जीवन की शाँति को खो ही बैठते हैं, उस उद्देश्य को भी भूल जाते हैं जिसके लिए वह शरीर मिला है। छोटी-छोटी बातों के लिए हमें जिन लोगों पर निर्भर रहना पड़ता है, उसके साथ भी हमें उदारता पूर्वक व्यवहार करना पड़ता है। फिर जिसके साथ हम जीवन बिताते हैं, सुख-दुःख की परस्पर की अनुभूति से हम अपने कार्य में स्फूर्ति और उत्साह प्राप्त करते हैं, उसके साथ तो हमें कहीं अधिक उदारता का व्यवहार करना ही पड़ेगा।

कई व्यक्ति दाम्पत्य जीवन सफल हो, उसके लिए प्रेम विवाह को प्रोत्साहन देना चाहते हैं, किन्तु वे भूल जाते हैं कि जहाँ आजकल प्रेम-विवाह का बाजार गर्म है, वहाँ की अवस्था और भी दर्दनाक है। थोड़ी सी मनमुटाव की कोई बात हुई नहीं कि झट से तलाक की दरख्वास्त पेश कर दी जाती है और बराबर के लिए छुटकारा मिल जाता है। टॉलस्टाय, अब्राहम लिंकन आदि ने भी तो प्रेम विवाह किया था, किंतु उनका दाम्पत्य जीवन कितना कटु बीता, कहा जाता है, टॉलस्टाय अपनी पत्नी के व्यवहार से बड़े खिन्न रहते थे। पत्नी कभी-कभी उनके घुटनों पर सिर टेक कर उनको उन सुनहले दिनों की याद दिलाती थी जब वे यौवन के उफान काल में एक दूसरे से संयुक्त रहते थे। किंतु इन बातों का उनके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। यहाँ तक कि पत्नी की मृत्यु के समय भी वह उसके निकट नहीं थे और उनकी पत्नी ने प्रेमियों से अपनी की हुई गलतियाँ चिल्ला-चिल्ला कर स्वीकार की थीं। कारण क्या था? जब उन्होंने प्रेम होने पर ही विवाह किया, तो उनका जीवन तो और भी प्रेम पूर्ण और शाँतिमय होना चाहिए था? स्पष्ट है कि युवावस्था में बहुत कम लोगों की दृष्टि आँतरिक सौंदर्य की ओर आकर्षित होती है। वह तो बाह्य सौंदर्य तक ही सीमित रह जाता है। यह उस अवस्था का स्वाभाविक गुण है। अवस्था के साथ-साथ विचार और दृष्टि भी बदलती रहती है। जिन गुणों के कारण एक युवती किसी युवक की दृष्टि में आकर्षण का केन्द्र प्रतीत होती है, पीछे चलकर जब युवक को संसार की यथार्थता का पता चलता है, तो वे ही गुण उसकी दृष्टि में अवगुण होने लगते हैं। मेरा एक मित्र एक लड़की की चपलता पर मुग्ध था। संयोगवश उसी से उसका गठबंधन भी हुआ पश्चात् जब वह लड़की अपने पूर्व परिचितों के साथ ससुराल में उस चपलता से व्यवहार करती, तो पति महोदय को यह बात अखरती।

विवाह एक ऐसा कृत्य है जो पति पत्नी के जीवन में अगर उनके हितेच्छुओं का सुन्दर व्यवहार रहा, तो एक महान परिवर्तन उपस्थित कर देता है। ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे, जहाँ विवाह के पहले जो लड़की अपने माँ बाप के घर में नटखट और उच्छृंखल समझी जाती थी- विवाहोपराँत गंभीर विचार वाली, शाँतिप्रिय कुलवधू बन गई है। आवश्यकता है कि उसके अभिभावक जरा उदारता से काम लें। उन्हें देखना चाहिए कि जो लड़की कल ही नैहर में इतनी स्वतंत्र थी, केवल कुछ घंटों की रस्म पूरी कर देने से ही तो शाँत और गंभीर नहीं बन जाएगी। पति महोदय अपनी जन्मजात श्रेष्ठता के कारण उस पर अनुचित दबाव डालते हैं। इसका परिणाम यहाँ होता है कि या तो वह अपनी कमजोरी के कारण ऐसी दब जाती है कि अपना व्यक्तित्व खो बैठती है अथवा उग्र रूप धारण किया तो सारे परिवार की दृष्टि में गड़ जाती है और फिर कलह का दौर-दौरा आरम्भ हो जाता है। अतएव मेरा यह अनुभव सिद्ध विचार है कि नवागत पत्नी के प्रति पति अथवा अन्य लोगों का व्यवहार पूरी उदारता का हो। अगर वह स्वतंत्रता चाहती है तो उसे स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। ऐसे व्यवहार से वह समझ जाएगी कि इस परिवार के लोग मेरे अनुकूल मिले हैं, मेरा हित चाहते हैं। फिर तो रमणी का हृदय त्याग की प्रति मूर्ति होता है- उसका हृदय तो सच्चे हृदय की खोज में रहता है। तब पति या परिवार वालों को उसे अपने अनुकूल चलाना आसान हो जाएगा।

बहुधा ऐसा होता है कि पति महोदय अपनी बहन अथवा भाभी के निकट अपनी पत्नी के फूहड़पन की आलोचना करते रहते हैं। मैं नहीं समझता कि इससे उनका कौन सा हित साधन होता है। परिणाम उल्टा ही होता है। यह मानव स्वभाव है कि किसी में कुछ अवगुण हैं और अगर आप उसे दूर करना चाहते हैं, तो उससे ही मिलकर कहिए। दूसरे के निकट कहने से चिढ़ हो जाती है और विशेषकर ऐसे व्यक्ति के मुख से आलोचना सुनकर जिससे अपनी प्रशंसा सुननी चाहिए, पत्नी पर उल्टा असर होगा ही।

अर्द्ध-अंग होने के नाते पति को अपनी पत्नी में दुःख-सुख में, उसकी बीमारी, घबराहट आदि में सहायता करनी चाहिए। कैसी कृतघ्नता की बात है कि जो पत्नी पति की बीमार के समय उसका बिछावन नहीं छोड़ती, हरदम सेवा शुश्रूषा में संलग्न रहती है, उसी के बीमार पड़ने पर बहुधा पति दाई-नौकर से उसकी सेवा करवाएंगे-स्वयं इन बातों से पृथक ही रहेंगे। यह मानव स्वभाव है कि बीमारी की हालत में जो सहानुभूति के दो शब्द कहता है, छोटा-मोटा एक दो काम कर देता है, उसकी ओर हृदय बरबस खिंच जाता है। पति का यह कर्त्तव्य होना चाहिए कि वह अपनी पत्नी की असहायावस्था में सहायता करें।

पत्नी निष्कपट प्रेम के भूखी होती है। इसलिए पति महोदय यदि समय-समय पर उनके कार्यों पर अपना यह विचार प्रदर्शित करते चलें कि उसका ही उनके जीवन से संबद्ध होना स्वर्गीय सुख का कारण है, तो इसका बहुत उत्तम प्रभाव पड़ेगा। इसी विचार की अभिव्यक्ति के लिए उन्हें अपनी पत्नी के जन्म दिवस को उत्सव का दिन समझ कर उसे खुशी पूर्वक व्यतीत करना चाहिए।

पत्नी का पति ही हर प्रकार से निकटतम साथी है। इसी बात को तो दूसरे शब्दों में कहा जाता है कि दोनों एक ही इकाई के दो भाग हैं। अतएव अगर दोनों का यह विचार स्थिर हो जाय कि एक का गुण-अवगुण, दूसरे का गुण-अवगुण है, एक की प्रशंसा-शिकायत दूसरे की प्रशंसा शिकायत है, तो तब बहुत अंश में दांपत्य जीवन की बुराइयाँ मिट जाएँ। पति अगर पत्नी के साथ पूरी उदारता से बात तथा सहिष्णुता और समझदारी से काम ले और यह समझे कि उसका पद उसकी पत्नी के पद से ऊँचा अथवा नीचा नहीं है, तो दाम्पत्य जीवन की बहुत सी विषमताएँ दूर हो जाएँ।


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