बुढ़ापा भी आनन्दमय बन सकता है।

December 1954

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(श्री. सत्यदेव जी)

बुढ़ापा हमारे जीवन का ग्राँड टोटल है। इस अवस्था में पहुँचते-पहुँचते हम अपनी क्रियाशील के उच्चतम शिखर पर चढ़ गये हैं। कर्त्तव्याकर्त्तव्य का एक पुँज हमारे पीछे लगा रहता है। यह अवस्था या तो शान्ति के साथ आनन्द मनाने की है या पश्चाताप की सांसें लेने के लिए। इस अवस्था तक हमारे जीवन का इतिहास बन चुका होता है। कुल, समाज, देश के प्रति हम अपना कर्त्तव्य कर चुके होते हैं। भले ही वह अच्छा हो या बुरा। यदि हमने अच्छा किया, अपने जीवन का सद्व्यय किया है तो हम एक गौरवपूर्ण बुढ़ापे में प्रवेश करते हैं, और यदि अपव्यय किया है तो पश्चाताप के सिवा कुछ हाथ नहीं आता। पछताने से कुछ नहीं होता, चिड़िया खेत चुग चुकी होती है। अवश्य ही महात्मा-गाँधी, राजेन्द्र बाबू आदि अपने बुढ़ापे को आनन्द मय बना सकते हैं।

ऐसी अवस्था में सन्तोष प्राप्ति के लिए हमें युवावस्था से ही तैयारी करनी होगी। हमें पग-पग पर अपने कर्त्तव्य का ध्यान रखना होगा। समय का सदुपयोग ही जीवन का सदुपयोग है और जीवन का सदुपयोग ही अपनी कीर्ति प्रसार का साधन है। यही कीर्ति हमारे जीवन का गौरवपूर्ण इतिहास रखती है। हम अपने कुल, समाज और देश में इसी से लब्ध प्रतिष्ठ हो सकते हैं। हमारा नाम हमारे काम के ऊपर निर्भर करता है। सन्तोष तो सेवा करने से आता है।

हर मनुष्य बाल्यावस्था में या युवावस्था में यह स्वप्न देखा करता है कि उसे जीवन में ऐसा-ऐसा करना है। वह अपना आदर्श सामने रखता है। अपने जीवन में वह एक कार्यक्रम बनाता है। परन्तु समय के परिवर्तन के साथ-साथ उसमें भी परिवर्तन आता है। उसमें स्वार्थ आदि भावनाएँ आने लगती हैं। उनका आदर्श डग-मग करने लगता है। अन्त में उसे अपने भाग्य पर सन्तोष करना पड़ता है। वह सोचता है, मैं कुछ कर नहीं सकता। वह आधार हीन नौका बन जाता है। उसे मालूम नहीं पड़ता नाव कहाँ जा रही है। अन्त में उसकी नाव पुरानी होकर अघट घाट पर लग जाती है उसे पता नहीं रहता कि वह कहाँ आ गया। जीवन की नाव भी इसी भाँति डाँवाडोल रहती है। अन्त में बुढ़ापे का आगमन होने लगता है। मनुष्य जब अपने जीवन का हिंसावलोकन करता है, तो उसके पीछे सिर्फ हाय-हाय का ही अम्बार रहता है। वह कहने लगता है काश! मैंने यह कार्य न किया होता। इसी भाँति उसका कथन प्रारम्भ होता है। अपने जीवन से कोई रस नहीं रह जाता।

सफल जीवन ही सुखमय बुढ़ापा ला सकता है। बुढ़ापे तक पहुँचकर हमें परिवार वृहद् दिखलाई पड़ता है। अपने ही परिवार में भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों के लोगों से सामना करना पड़ता है। हर प्रकार के मनोवृत्ति वाले सदस्य को संतुष्ट करना पड़ता है। हमारी हार्दिक दशा भी युवावस्था की भाँति नहीं रहने पाती, हमारी आमदनी थक जाती है, हम क्रियाशील जीवन से पूर्णतः विश्राम लेना चाहते हैं। यह हमारे स्वभाव पर निर्भर करता है कि हम अपना बुढ़ापा कैसे बिताते हैं। बच्चे हमारा उपदेश ध्यान में नहीं देते। घर की पतोहू हमारी बोली को टर्राहट का विशेषण देती है। रुपये पैसे के लिए हमें दूसरों पर आश्रित रहना पड़ता है। हम परमुखापेक्षी बन जाते हैं। इसके सिवा, युवावस्था के किए हुए दुष्कर्म हमें अलग बेचैन करते हैं। क्या इस दशा में इससे परित्राण का कोई साधन नहीं है।

इन अभिशापों से बचने के लिए हमें युवावस्था से ही तैयारी करनी है। युवावस्था ही हमारा सन्धि स्थल है। इस सन्धिस्थल पर पहुँचकर हमें सिंहावलोकन करके भावी निर्माण योजना करनी है। इस स्थल पर पहुँचकर सुगमता से पता पा जाते हैं कि हम संसार में कौन सा काम सुगमता से कर सकते हैं। संसार हमसे क्या काम लेना चाहता है। हम संसार में जिस भाँति अपना विशिष्ट स्थान बना सकते हैं, इस भाँति सोचकर यदि हम अपना भावी कार्यक्रम बनावें और उस पर हृदय से अमल करने की चेष्टा करें, धैर्य से काम लें, अध्यवसायी बने रहें तो कोई कारण नहीं कि हमारे जीवन में सफलता का आगमन नहीं है, और हम सात्विक सुख और शान्ति लाभ न करें।

कार्य से प्रेम करने पर हमारे अन्दर सामाजिकता की भावना स्वतः आ जायगी। हम अब निश्चिंत हो जाएंगे। स्वतः आत्मविश्वासी बनकर हम दूसरों का भी विश्वास करेंगे। अपने से प्रेम करके हम दूसरों से भी प्रेम करने लगेंगे। जो हमारे साथ आवेंगे। वे प्रभावित हुए बिना न रहेंगे।

हमें हर प्रकार से अपने स्वभाव में मृदुलता लाने की चेष्टा करनी होगी। देखा यह जाता है कि युवावस्था के सफल मनुष्य बुढ़ापे में भी अपने आगे युवकों को कुछ नहीं समझते, उनकी कदर नहीं करते हैं। सोचते हैं हम ही सबसे काबिल हैं। औरंगजेब का बुढ़ापा इसका सुन्दर उदाहरण है। मरने के पहले उसने जो पत्र अपने पुत्रों को दिये, उनमें उसने अपने कर्त्तव्य की पश्चातापपूर्ण विवेचना की, कहा मैं अपने पापों को लादे अकेले जा रहा हूँ। मैंने देश की दुर्दशा कर डाली है।

इस प्रकार युवावस्था ही हमारी चेतावनी का स्थान है। हम इसी समय अपने को भला या बुरा बना सकते हैं। बुढ़ापे में आर्थिक दुर्दशा का कारण युवावस्था की फिजूल खर्ची है। आमदनी के समय हम आसानी के साथ किंचित संचित करते चलें तो बुढ़ापे में विशेष अर्थ कष्ट न होगा। जीवन बीमा, सेविंग बैंक में जमा करना आदि आजकल के सुन्दर साधन हैं। किसी भाँति हमारे पास कुछ पैसों का बुढ़ापे में होना परमावश्यक है।

बुढ़ापे में पहुँचने के पहले हमें अधिकारों और विशेषाधिकारों को नवयुवकों के जिम्मे सुपुर्द कर देना चाहिए। हमें सिर्फ सलाहकार होने की कोशिश करनी चाहिए। बहुतेरे घरों में झगड़ा अधिकार को लेकर होता है। बूढ़े लोग नवयुवकों के आधुनिक मस्तिष्क को पहचानने में भूल करते हैं और इस भाँति बराबर अधिकार ग्रहण करने की रस्साकशी चला करती है। बुढ़ापे में अधिकार लोभ क्यों? क्यों न वे अधिकार देकर अपने को इस योग्य बना लें कि नवयुवकों को सलाह के लिए उनके पास आना पड़े और वे लोग वृद्धों की सलाह शिरोधार्य कर अपने को धन्य समझें। यह तभी सम्भव है जब युवावस्था का समुचित उपयोग हो। हमारी युवावस्था का कार्य परोपकार पूर्ण हो और हम समाज के एक उपयोगी अंग बनें। बुढ़ापे की तैयारी में सतर्कता की आवश्यकता युवावस्था से ही है।


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