बुझी न ज्योति शृंखला (Kavita)

December 1954

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

बुझे असंख्य दीप पर बुझी न ज्योति शृंखला!

अनेक कण उठे, मिले कि शृंग तुँग हो गया,

कि एक-एक बिन्दु में असीम सिंधु खो गया।

इसी तरह अनेक क्षण बँधे कि जिन्दगी बनी,

मगर बँधे न क्षण रहे, खुली न मृत्यु मेखला!

अनेक बार प्राण यह जला, न पर मिटी जलन!

न राह की कभी चुकी, न कभी मिटी थकन!

गरल पिया पियास में, पियास और भी बढ़ी,

मनुष्य यह इसी तरह तृषार्त तृप्ति में पला!

खिले, झरे, प्रसून पर मिटी न वह परम्परा,

अमर्त्य ही रही सदा मरण भरी वसुन्धरा!

न जन्म मृत्यु से बँधा, न मृत्यु जन्म से बँधी,

घिरे तिमिर जलद बहुत, मगर बँधी न चंचला!

न आदि का पता यहाँ, न अन्त का विभाग है,

अनन्त सृष्टि में भरा अनादि एक राग है!

यहाँ न फूल फूल है, यहाँ न धूल धूल है,

अजर यहाँ विनाश, तो अमर यहाँ सृजन-कला!


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118