गुरुजनों का आदर करिए।

December 1954

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(श्री दौलत राम कटरहा, जबलपुर,)

आदत या स्वभाव का व्यक्ति के जीवन में वैसा ही स्थान है जैसा स्थान सामाजिक जीवन में रीति−रिवाजों का है। उत्तम शिक्षण का एक उद्देश्य यह भी है कि व्यक्ति को जीवन में अच्छी आदतों से सज्जित व समलंकृत किया जावे। व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाना उत्तम शिक्षा कर प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए। किंतु दुर्दैव से हमारी पाठशालाओं का शिक्षण क्रम कुछ ऐसा है तथा हमारे घरों का वातावरण भी इतना प्रतिकूल है कि छात्र जितना अधिक पढ़ते जाते हैं उतने ही अधिक वे अविनयी व उद्धत होते जाते हैं। ज्यों-ज्यों आज कल का तथा कथित ज्ञान विद्यार्थियों के मस्तिष्क में घुसता जाता है त्यों-त्यों विनय या शील बाहर निकलता जाता है। आज कल की विद्या का नशा ठीक शराब जैसा ही है। शराब के संबंध में इटालियन लोगों में यह कहावत प्रचलित है कि जब शराब अंदर जाती है तो सद्बुद्धि बाहर निकल जाती है। आज भी विद्या मदिरा के प्रभाव से सद्बुद्धि व उत्तम शील भाग खड़े हुए हैं। ऐसे समय में इस ज्ञान के प्रचार की, विद्या की शोभा विनय से है, आवश्यकता दिनों दिन बढ़ती जा रही है।

विद्यार्थियों को विनय शील बनाने के लिए भगीरथ जैसे प्रयत्न की आवश्यकता नहीं है। बल्कि यदि हम चौकन्ने रहें असावधानी व प्रमाद को स्थान न दें तो हमें अनेक छोटे-छोटे ऐसे अवसर प्राप्त होंगे जिनका सदुपयोग कर हम बालकों को अपनी इच्छानुसार विनय शील सम्पन्न बना सकते हैं। बच्चे अविनयी इसलिए होते हैं कि न तो हम स्वयं संयत व्यवहार करते हैं और न स्वयं बच्चों को सुसंयत रखने की क्षमता रखते हैं। बच्चा हमारे सामने अपने बड़े भाई या बहिन का या स्वयं हमारा ही नाम लेता है, तो हम हँस देते हैं। हम सोचते हैं कि बच्चा शब्दों का उच्चारण करना सीख रहा है तो उसे सफल होते देख हम प्रसन्न हो उठते हैं। हमारा बच्चा जब अन्य बच्चे को गाली देता है या अपने से बड़े किसी व्यक्ति को छड़ी से मारता है तो उसके साहस को देखकर हमें प्रसन्नता होती है। बच्चा जब हमारी आज्ञा को टाल देता है तो हम भी आज्ञा पालन पर जोर नहीं देते और फिर जब वह बड़ा होकर पूर्णतया उच्छृंखल, निरंकुश और उद्धत हो जाता है तब हम अपने भाग्य को कोसते हैं। जो वातावरण हम उनके सामने उपस्थित करते हैं उस वातावरण में पलने वाला बालक उद्धत और अविनयी न हो तो क्या हो? दोष हमारा है और हम दैव को दोष देते हैं।

इस दयनीय परिस्थिति से त्राण पाने के लिए हमें अपने बच्चों के लिए सुन्दर और स्वस्थ परिस्थिति का निर्माण करना होगा। सुन्दर वातावरण व मानसिक परिस्थितियों का निर्माण शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए। कारण यह है कि किसी विशेष परिस्थिति में बालकों को रखने का अर्थ है उन्हें दूसरी परिस्थिति से साफ दूर रखना। यदि हम बालकों के लिए अच्छी परिस्थिति का निर्माण कर देंगे तो वे बिना प्रयास बुराइयों से बच जावेंगे। क्योंकि एक अच्छे वातावरण में रहने वाला बालक दूसरे वातावरण के कार्य कर ही नहीं सकता। उदाहरणार्थ नित्य माता-पिता को प्रणाम करने वालों के वातावरण के लड़के न अपने माता-पिता को गाली दे सकते हैं। अतएव हमें अपने बच्चों को सुन्दर वातावरण में रखकर बुरे वातावरण से इतनी दूर रखना चाहिए कि बुरे वातावरण में पले व्यक्तियों जैसे आचरण करना उनके लिए कठिन हो जावे। सुन्दर वातावरण में रहने से बालक अपने आप बुरे वातावरण व उसके प्रभाव से दूर रहेंगे। अतएव जो लोग चाहते हों कि उनके बच्चे विनयशील निकलें उन्हें अभी से वैसा वातावरण तैयार करने का प्रयत्न करना चाहिए। बालक के जन्म से पहले ही यह प्रयत्न होना चाहिए।

यदि दुर्भाग्य वश प्रारम्भ से ही हमने वातावरण को सुधारने का प्रयत्न नहीं किया है तो भी हमें हताश नहीं होना चाहिए। जब से हम सुधार करना प्रारम्भ करेंगे तब से ही हमें अपने प्रयत्नों का फल मिलना शुरू हो जायेगा। सत् प्रयत्न कभी निरर्थक नहीं होते। कल्याण कारी कर्मों को करने वाला कभी दुर्गति को नहीं प्राप्त होता, अतएव जब से हम चेत जावे तभी से सत प्रयत्न आरम्भ कर दें। कल्पना करिए कि आपके माँ-बाप या अन्य गुरुजन जीवित हैं और आपके बच्चे अभी छोटे-छोटे हैं, तो यदि आप आज से ही यह निश्चय कर लेते हैं कि हम अपने माँ-बाप और गुरुजनों के नित्य प्रातःकाल चरण स्पर्श करेंगे तो आपके बच्चे आपकी इस रीति से प्रभावित हुए बिना न रहेंगे। उनके कोमल चित्त पर अदृष्ट रूप से पवित्र संस्कार जमा होते जावेंगे। और बड़े होने पर वे भी आपके इस आचरण का अनुकरण करेंगे।

माता-पिता को प्रणाम करने का पवित्र प्रभाव आप पर भी पड़ेगा। यदि आपके गुरुजनों की धारणा आपके प्रति अभी तक अच्छी नहीं रही है, आपके प्रणाम करने का तात्कालिक असर यह होगा कि उनकी भावनाएँ आपके प्रति शुद्ध हो चलेंगी और आपको उनका आशीर्वाद मिलना प्रारम्भ हो जायेगा। यदि आपके प्रति उन्होंने कुछ गलत धारणाएँ बना ली हैं तो वे गलत धारणाएं धीरे-धीरे काफूर हो जावेंगी और सच्चे मन से वे आपके लिए शुभ कामनाएँ करेंगे जो कि निष्फल नहीं होंगी।

यदि आप अपने गुरुजनों को नित्य प्रति प्रणाम करते हैं और आपकी पत्नी भी स्वेच्छा से अपने सास ससुर और अन्य गुरुजनों को नित्यशः प्रणाम करती है तो विचारिये तो सही कि इस छोटे से मूल्य की कुटुम्ब पर कैसा स्वस्थ प्रभाव पड़ेगा। पहला प्रभाव तो यह होगा कि सास बहू का आपसी मन मुटाव और मत भेद दूर होने लगेगा बहू को सास का अनुग्रह प्राप्त होगा और उनकी कृपा दृष्टि से घर के वातावरण में अधिकाधिक शाँति आती जावेगी। बहू जब सास को नित्यशः प्रणाम करने का संकल्प कर लेगी तो उसके हृदय में भी सास के प्रति पूज्य भाव उत्पन्न होंगे। जिसके परिणाम स्वरूप सभी अपनी-अपनी मर्यादाओं के भीतर रहेंगे, कोई मर्यादाओं का उल्लंघन कर अनुचित चेष्टाएँ न करेंगे और दोनों ओर से हृदय अधिकाधिक शुद्ध होता जायगा। मैं समझता हूँ कि कौटुम्बिक मर्यादाओं के पालन के लिए गुरुजनों को प्रणाम करने जैसी छोटी-छोटी बातें अनिवार्य हैं। इनके बिना एक सम्मिलित कुटुम्ब की एकता कायम नहीं रखी जा सकती। अतएव हमें चाहिए कि हम गुरुजनों को प्रणाम करने जैसी छोटी-छोटी बातों का महत्व समझें, स्वयं अभिवादन शील बनें और अपने बच्चों को भी अपने गुरुजनों को नित्यशः प्रणाम करने की शिक्षा दें।

शास्त्र कहते हैं कि नित्य वृद्धों की सेवा करने वाले अभिवादन-शील व्यक्तियों की आयु, विद्या, यश और बल नित्य बढ़ते जाते हैं। अभिवादन शील व्यक्ति का यश तो निश्चय ही बढ़ता है पर उसका बल और विद्या भी बढ़ती है यह भी ध्रुव सत्य है। जो अभिवादन शील है जिसने वृद्धों की सेवा का व्रत लिया है वह अपने लिए एक विशेष प्रकार के वातावरण का निर्माण कर लेता है। जिसमें कि प्रमाद, अविधा, असंयम आदि दुर्गुण पनप नहीं सकते, अतएव वह सेवा व्रती व्यक्ति आपसे आप नित्यशः दूषित वातावरण से दूर-दूर हटता चला जाता है और सुन्दर वातावरण के क्रमशः निकट पहुंचता हुआ समस्त सद्गुणों और पवित्र वस्तुओं को अपनी ओर आकर्षित करता है।

किसी बुद्धिमान व्यक्ति ने सूत्र रूप कहा है...

बे अदब, बे नसीब

बा अदब, बा नसीब।

अर्थात् अविनयी अभागा होता है और विनयी भाग्यवान। इस छोटी सी उक्ति में कितनी सच्चाई भरी है, इसे यदि हम समझ लें तो सद्विद्या का रहस्य हमें समझ में आ जायगा, अन्यथा हमारा सारा ज्ञान एक बोझ मात्र और निरर्थक है।


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