योग साधना क्यों करनी चाहिए?

December 1954

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री स्वामी शिवानन्द जी)

योग उस साधन को कहते हैं जिसके द्वारा व्यक्ति की आत्मा समष्टि की आत्मा से मिलती है। याज्ञवलक्य जी ने योग की परिभाषा करते हुए लिखा है “व्यक्ति की आत्मा और समष्टि की आत्मा के मिलने का नाम ही योग है।”

योग का उद्देश्य मनुष्य को प्रकृति के चंगुल से छुड़ा कर यह अनुभव कराना है कि वह पूर्णरूपेण स्वतन्त्र है। उसको योग परमानन्द के लिए तैयार करता है।

योग में उन क्रियाओं का विस्तृत विवेचन है जिनसे मन की लहरों को नियन्त्रण में रखा जाता है। और उस दिव्य चेतना को प्राप्त किया जाता है। जिसमें पुनर्जन्म के बीज पूर्णतया जल जाते हैं। योगी पूर्णता या स्वतंत्रता को प्राप्त होता है।

शक्ति की कामना, लोभ, काम स्वार्थ और पाशविक वासनाओं ने मनुष्य को सच्चे आध्यात्मिक जीवन से पृथक कर दिया है और उसको भौतिकता में घसीट कर डाल दिया है। अगर मनुष्य सच्चाई और उत्साह के साथ योग के सिद्धान्तों पर चले तो वह पुनः अपनी खोई हुई दिव्यता को उपलब्ध कर सकता है। योग से आसुरी वृत्तियाँ नष्ट होती हैं और दैवी स्वभाव की प्राप्ति होती है।

योग के अभ्यास से तुम्हें उद्वेग और वासनाओं पर विजय प्राप्त करने में सहायता मिलेगी। तुम प्रलोभनों को जीत सकोगे। मन को अस्थिर बनाने वाली चीजों को दूर कर सकोगे। योग तुमको मानसिक संतुलन बनाये रखने की सामर्थ्य प्रदान करेगा। उसमें तुम्हें शान्ति और चित्त की एकाग्रता प्राप्त होगी। तुम्हें भगवान का साक्षात्कार होगा और तुम जीवन का सबसे बड़ा सुख प्राप्त कर सकोगे।

योगाभ्यास द्वारा तथा मनोवृत्तियों पर नियन्त्रण करके तुम अनेक शारीरिक मानसिक और दिव्य शक्तियाँ प्राप्त कर सकते हो। यौगिक व्यायाम जैसे यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा और ध्यान द्वारा तुमको अपने शरीर और मन पर पूर्ण नियन्त्रण करना चाहिये। इनके अभ्यास से तुम शरीर और मन की चंचलता से मुक्त हो जाओगे। तुम अनन्त शक्ति और उत्साह प्राप्त करोगे। तुम्हारी आयु बढ़ेगी और तुम यौवन का आनन्द ले सकोगे। तुम्हारा मन शक्तिशाली बनेगा।

संयम से रहो। हृदय में सद्गुणों को स्थान दो। मन की चंचलता दूर करो। चित्त को एकाग्र करने का अभ्यास करो। तुम्हारे अन्दर जो शक्तियाँ गुप्त हैं वे प्रकट होंगी। चर्म चक्षुओं की सहायता के बिना भी तुम देख सकोगे। बिना कानों से सुन सकोगे तुम अपने मन से ही सीधे देखने और सुनने की क्षमता प्राप्त कर लोगे।

योग का मार्ग आन्तरिक है और उसमें प्रवेश करने का दरवाजा तुम्हारा हृदय है। तुम्हारे अन्दर साहस, अध्यवसाय, धैर्य तितिक्षा और आत्मोन्नति की तीव्र कामना होनी चाहिये। कमजोर मनुष्य योग के इस मार्ग पर नहीं चल सकता।

जो मनुष्य योग के इस मार्ग में चलना चाहता है उसे सरल, विनयशील, दयालु, संस्कृत और सहिष्णु होना चाहिए। उसे प्रत्येक स्थान पर सत्य की खोज करनी चाहिए। उसके हृदय में महात्माओं के लिए आदर का भाव होना चाहिए। उसे शास्त्रों में विश्वास होना चाहिये।

अगर तुम योग के मार्ग में सफलता चाहते हो तो तुम्हें कठोर तपस्या करनी होगी। इससे तुम्हारी मानसिक शक्ति बढ़ेगी। तुम्हारे अन्दर पवित्रता आयेगी फिर तुम दिव्य चेतना और चित्त की एकाग्रता प्राप्त कर सकोगे।

अगर तुम अपने अन्दर छिपी हुई दिव्यता को प्राप्त करना चाहते हो-अगर तुम साँसारिकता के बन्धन से मुक्त होना चाहते हो तो तुम्हें अपने विचारों पर अधिकार पाने की कला को तुम राजयोग द्वारा सीख सकते हो। तुमको सही तरीके से सोचते रहने, बोलने और कार्य करने के तरीके जानना चाहिए। तुम्हें सदाचार से रहना चाहिये। तुम्हें जानना चाहिये कि मन को किस प्रकार बाह्य पदार्थों से हटा कर किसी एक स्थान पर केन्द्रित किया जाता है। तुम्हें धारणा और ध्यान का सही ढंग जानना चाहिये। तभी तुम सच्चे अर्थ में सुखी हो सकोगे। तभी तुम शक्ति और स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकोगे। तभी तुम अमरत्व और पूर्णता प्राप्त कर सकोगे।

मन के समस्त विकार मानसिक संयम, धारणा तथा ध्यान से नष्ट हो जाते हैं। अन्त में व्यक्ति की आत्मा परमात्मा से मिल जाती है। हठयोगी अपना अभ्यास शरीर और प्राण से प्रारम्भ करता है और ज्ञान योगी बुद्धि तथा संकल्प शक्ति से प्रारम्भ करता है।

तुम्हें अपने मन पर बड़ी होशियारी से अधिकार करना होगा। तुम्हें इसके लिये बुद्धिमता पूर्ण साधनों को अपनाना होगा। पाशविक शक्ति के प्रयोग की कोई आवश्यकता नहीं। अगर तुम बल प्रयोग करोगे तो वह और अधिक गड़बड़ मचायेगा। जो मनुष्य मन को पाशविक बल से अधिकार में लाना चाहते हैं वह उन लोगों के समान हैं जो एक पतली डोरी से हाथी को बाँधना चाहते हैं।

सही ढंग से सोचो। विचारों के नियमों को जानो। अपने को मन से पृथक करो। अपने को विचारों से पृथक करो। तुम अपने विचारों के मूक साक्षी बनो। तुम ऐसा न समझो कि तुममें और तुम्हारे विचारों में कोई अन्तर नहीं है। धीरे-धीरे सब प्रकार के विचार नष्ट हो जायेंगे। जिस प्रकार बिना ईंधन के आग बुझ जाती है और बिना घी के दीपक बुझ जाता है उसी प्रकार मन भी अपने मूल स्थान से मिल जाता है जब विचार समाप्त हो जाते हैं। अब तुम आत्मा में प्रवेश करोगे।

अगर तुम ने योग के अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचने का दृढ़ संकल्प कर लिया है, अगर तुम आध्यात्मिक जीवन का लक्ष्य प्राप्त करने में दृढ़ व्रत हो तुम कई बार असफल होने पर भी अवश्य उठोगे और आगे बढ़ोगे। अपने अन्दर दिव्य शक्ति का अनुभव करो। साँसारिक पदार्थों के लिए घृणा और ईश्वर के साक्षात्कार के लिए तीव्र उत्कण्ठा पैदा करो। साँसारिक इच्छाएँ त्यागो, हमेशा उच्च आध्यात्मिक ज्ञान में विचरण करो। अपने पौरुष नैतिक साहस तथा आध्यात्मिक शक्ति को प्रदर्शित करो।

योग के अभ्यास के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। लेकिन तुम्हें अपने गुरु के निर्वाचन में बड़ी सावधानी रखनी चाहिए। योग या अध्यात्म के क्षेत्र में अनेक ऐसे गुरु हैं जो लाभ के स्थान पर हानि ही अधिक पहुँचाते हैं। एक योगी जो इस मार्ग में चल चुका है वह तुम्हें बिना किसी खतरे के गन्तव्य स्थान तक पहुँचा देगा। मार्ग में आने वाले भय और कठिनाईयों की ओर से तुम्हें सावधान कर देगा। अगर तुम्हें ऐसा गुरु नहीं मिलता तो तुम अपने से अधिक योग्य साधक से ही सहायता ले सकते हो। अच्छा तो यह रहे कि अगर तुम उनसे शिक्षा ले सको और अभ्यास कर सको। बाद में तुम घर पर भी योगाभ्यास कर सकते हो और अपने गुरु के साथ पत्र व्यवहार रख सकते हो। जब तुमको अवकाश मिले तब तुम उनके पास कुछ समय व्यतीत कर सकते हो। अगर तुम्हें ऐसा गुरु नहीं मिलता तो तुम अनुभवी योगियों ओर महात्माओं द्वारा लिखे गये ग्रन्थों से प्रारम्भिक कार्य चला सकते हो। इन ग्रन्थों से तुम्हें प्रेरणा मिलेगी, तुम्हारे सारे संदेह मिट जायेंगे। अगर उन ग्रन्थों के लेखक जीवित हैं तो तुम उनसे पत्र व्यवहार कर सकते हो और अवकाश मिलने पर उनके साथ रह भी सकते हो।

अगर तुम शारीरिक शक्तियाँ या रहस्य पूर्ण अनुभव प्राप्त करना चाहते हो तो तुम्हें योग के मार्ग में सफलता नहीं मिलेगी। तुमको सत्य के लिये तीव्र कामना रखनी होगी। तभी तुम योग के सोपान पर चढ़ कर दिव्य चेतना प्राप्त कर सकोगे। तुम्हारे अन्दर तीव्र वैराग्य का होना भी अत्यावश्यक है। बिना तीव्र वैराग्य के आत्मानुभूति नहीं हो सकती और बिना आत्मानुभूति के स्वतंत्रता, पूर्णता और अनंत आनन्द भी नहीं उपलब्ध हो सकते।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118