भगवत् प्रेम का त्रिकोण

May 1952

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(श्री स्वामी जी विवेकानन्द)

प्रेम को एक त्रिकोण के रूप से दिखाया जा सकता है। उसका प्रत्येक कोना मानों उसके एक-एक समूचे रूप को प्रकट करता है। तीन कोने के बिना कोई त्रिकोण नहीं हो सकता, इसी प्रकार तीन गुणों के बिना प्रेम—प्रकृत अथवा सच्चा प्रेम—भी नहीं हो सकता। प्रेम रूप त्रिकोण का एक कोना यह है कि प्रेम में किसी प्रकार का क्रय-विक्रय, लेवा-बेची का भाव नहीं है। जहाँ किसी बदले की आशा रहती है वहाँ सच्चा प्रेम नहीं उत्पन्न हो सकता। वह एक दुकानदारी सी हो जाती है। जब तक हमारे हृदय में भगवान का भय, निश्चित भक्ति और उसकी आज्ञा पालन के बदले में उससे किसी प्रकार वर पाने की इच्छा रहती है तब तक हमारे हृदय में प्रकृत-प्रेम पैदा नहीं हो सकता। जो लोग कुछ पाने की आशा से भगवान् की उपासना करते हैं वे वर-प्राप्ति की आशा न रहने पर उपासना न करेंगे, किन्तु भक्त तो भगवान् को प्रेमास्पद जान प्रेम करता है।

प्रकृत भक्त के इस देववाँछित प्रेमोच्छ्वास में कोई और स्वार्थ नहीं होता। एक कथा है कि किसी समय वन में एक राजा की एक साधु से भेंट हुई। थोड़ी ही देर बातें करने पर साधु की पवित्रता और ज्ञान का परिचय पाकर राजा को सन्तोष हुआ और राजा ने साधु को कुछ देना चाहा और प्रार्थना की कि मुझे कृतार्थ करने के लिये कुछ ग्रहण कीजिये। किन्तु साधु ने स्वीकार नहीं किया और कहा—”वन के फल मेरे भोजन के लिये बहुत हैं, पर्वत से निकला हुआ पवित्र जल मेरे पीने को काफी है, पहनने को पेड़ों की छालें बहुत हैं और रहने को पर्वत-कन्दरा यथेष्ट है, फिर मैं क्यों आपसे या किसी से कुछ लेने लगा।” राजा ने फिर विनय की और कहा—”भगवान्, मुझे कृतार्थ करने के लिये ही मेरे हाथ से कुछ ग्रहण कीजिये, मेरे साथ राजधानी में पधारिये।” बहुत अनुरोध के बाद साधु राजा के साथ गया। राजा साधु को कुछ दान देने के पहले उससे बार बार वर माँगने लगा—”प्रभो, मेरा शरीर नीरोग रहे” इत्यादि। राजा की प्रार्थना समाप्त होने के पहले ही साधु चुपचाप उठकर जाने लगा। यह देखकर राजा चकित हो गया तथा उसके पीछे-पीछे चला और पुकारने लगा-”महात्मन्, जा रहे हो? मेरा दान नहीं ग्रहण किया!’ साधु ने उसकी ओर फिरकर कहा-अरे भिखमंगे, मैं भिखमंगे से भिक्षा नहीं लेता। तुम स्वयं एक भिक्षुक हो, तुम मुझे क्या दे सकते हो? मैं इतना मूर्ख नहीं हूँ कि तुम्हारे जैसे भिक्षुक से भिक्षा लूँ। जाओ, मेरे पीछे न लगो।”

इस उदाहरण में भिक्षुक और भगवान् के सच्चे प्रेमी का अच्छा भेद दिखलाया गया है, और तो क्या, मुक्ति प्राप्ति के लिए भगवान् की उपासना करना भी अधर्म बताया गया है। प्रेम किस फलाभ की आकाँक्षा नहीं रखता। प्रेम केवल प्रेम के लिए ही होता है। भक्त भगवान् से प्रेम इसलिए करता है कि वह प्रेम किये बिना रह ही नहीं सकता। तुम एक सुन्दर प्राकृतिक दृश्य देखकर उससे प्रेम करने लगते हो, तुम इस दृश्य से कुछ माँगते नहीं हो और न दृश्य ही तुमसे कुछ प्रार्थना करता है। दृश्य के दर्शन से हृदय में आनन्द का उदय हो जाता है, यह आनन्द अशाँति दूर करके मन को शान्त कर देता है और एक प्रकार क्षण भर के लिए नश्वर प्रकृति से बाहर ले जाकर स्वर्गीय आनन्द से आनन्दित कर देता है। प्रेम का यह भाव ऊपर कहे हुए त्रिकोणात्मक प्रेम का एक कोना है। प्रेम का बदला मत चाहो, बस केवल देते चले जाओ, भगवान को अपना प्रेम दो, पर उससे भी इसके बदले में कुछ न चाहो।

प्रेम रूप त्रिकोण का दूसरा कोना यह है कि प्रेम में किसी प्रकार का भय नहीं है। जो भगवान् को भय से प्रेम करते हैं वे अधम मनुष्य हैं। उनमें मनुष्यत्व का अभी तक भी विकास नहीं हुआ। वे दण्ड के भय से भगवान् की उपासना करते हैं। उनका ख्याल है कि भगवान् एक बड़े आदमी हैं, उनके एक हाथ में सोटा और दूसरे में चाबुक है, उनका हुकुम न मानने से डंडा पड़ने लगेगा, दण्ड के भय से की हुई उपासना के नाम से ही पुकारना हो तो कहना पड़ेगा कि यह प्रेम की अत्यन्त अविकसित अवस्था है। जब तक हृदय में किसी प्रकार का भय बना हुआ है तब तक प्रेम का विकास कैसे हो सकता है? प्रेम स्वभाव से ही सम्पूर्ण भय को नाश कर देता है। मान लीजिए एक माता रास्ते में खड़ी है, किसी कुत्ते के भूँकते ही वह डरी और पास घर में चली गयी। किन्तु सोचिये, यदि माँ के साथ उसका बच्चा होता और सिंह बच्चे के ऊपर झपट पड़ता तो माँ कहाँ जाती? अवश्य सिंह के मुँह में आ जाती। प्रेम वास्तव में सम्पूर्ण भय का नाश कर डालता है। कहीं संसार से नाता टूट जायगा, ऐसे ही किसी स्वार्थ-भाव से भय उत्पन्न होता है।

हम अपने को जितना ही अधिक तुच्छ और स्वार्थी बना लेंगे, हमारा भय भी उतना ही अधिक हो जायगा। यदि कोई सोचे कि मैं कोई चीज नहीं हूँ, तो अवश्य वह भय भीत होगा। मनुष्य अपनी तुच्छता को जितना कम सोचेगा उतना ही उसका भय कम हो जायगा। जब तक तुममें तनिक सा भी भय बना हुआ है तब तक तुम में प्रेम नहीं रह सकता। प्रेम और भय दो विपरीत भाव हैं। जो भगवान् से प्रेम करता है वह कभी उससे भयभीत नहीं होता। सच्चा भगवत्-प्रेमी ‘भगवान् का नाम वृथा न लेना, -यह आदेश सुनकर हंस पड़ता है। प्रेम-धर्म में भगवन् निन्दा का क्या काम? किस रूप में हो, भगवान् का नाम जितना ले सको, उतना ही भला है। तुम उसे चाहते हो इसी से उसका नाम जपते हो।

प्रेम रूप त्रिकोण का तीसरा कोना यह है कि प्रेमी का कोई दूसरा प्रेम पात्र न रहे, क्योंकि वही प्रेमी का सर्वोच्च आदर्श होगा। जब तक प्रेमपात्र सबसे ऊंचे आदर्श के रूप में नहीं देख पड़ता तब तक प्रकृत प्रेम नहीं उत्पन्न होता। हो सकता है कि अनेक स्थलों में मानवीय प्रेम असत् मार्ग में जा रहा हो, किन्तु प्रेमी के लिये उसकी प्रिय वस्तु ही सर्वोच्च आदर्श होती है, कोई तो अत्यन्त नीच मनुष्य में अपने उच्च आदर्श को देखता है और कोई अत्यन्त उच्च मनुष्य में। किन्तु सर्वत्र ही प्रकृत और प्रगाढ़ रूप से अपने आदर्श को प्यार किया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति के उच्चतम आदर्श को ही ईश्वर कहते हैं। ज्ञानी, अज्ञानी, साधु, असाधु, पुरुष, स्त्री, शिक्षित अशिक्षित-मनुष्य मात्र का उच्चतम आदर्श ईश्वर है। सम्पूर्ण सौंदर्य, महत्व और शक्ति के उच्चतम आदर्शों के मिले हुए रूप में प्रेममय और प्रेमास्पद भगवान् का पूर्ण भाव पाया जाता है। ये आदर्श किसी न किसी रूप में प्रत्येक व्यक्ति के मन में स्वभावतः वर्तमान हैं और ऐसे वर्तमान हैं कि मानों मन के अंग या अंश विशेष बन गये हैं। मानव प्रकृति में जिन क्रियाओं का विकास देख पड़ता है वे सब आदर्शों को व्यावहारिक जीवन में परिणत करने की चेष्टा-स्वरूप हैं।

समाज में जितने काम और आन्दोलन होते हुए देख पड़ते हैं वे सब केवल भिन्न-भिन्न आत्माओं के भिन्न-भिन्न आदर्शों को कार्य में परिणत करने की चेष्टाओं के परिणाम हैं। जो भीतर है वह बाहर आना चाहता है। मानव-हृदय में आदर्शों का यह प्रबल प्रभाव ही सर्वानयंत्री महाशक्ति है, उसकी क्रिया मानव-जाति में सदा होती रहती है। सम्भव है सैकड़ों जन्म में सहस्रों वर्ष तक चेष्टा करने पर मनुष्य यह समझ सके कि आभ्यन्तरिक आदर्श बाहर की अवस्थाओं के साथ पूर्णरूप से नहीं मिल सकता। किन्तु जब समझ जायगा तब बाह्य जगत् को अपने आदर्श के अनुसार गढ़ने की चेष्टा छोड़ देगा और उच्चतम प्रेम के साथ अपने आदर्श की उपासना आदर्श रूप में करना प्रारम्भ कर देगा। वह समझ लेगा की अन्य सब आदर्श इस आदर्श के भीतर ही हैं।


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