नीति धर्म को मत छोड़िए।

May 1952

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(श्री महात्मा गाँधी)

मनुष्य जब तक स्वार्थी है अर्थात् वह दूसरों के सुख की परवाह नहीं करता तब तक वह पशु-सदृश, बल्कि उससे भी गया बीता है। मनुष्य पशु से श्रेष्ठ है यह हम देख सकते हैं, पर यह तभी होता है जब हम उसे अपने कुटुम्ब का बचाव करते देखते हैं। वह उस समय मानव जाति में और ऊँचा स्थान पाता है जब अपने देश या अपनी जाति को अपना कुटुम्ब मानता है। जब सारी मानव जाति को वैसा मानता है तब उससे भी ऊँचे सोपान पर चढ़ता है, अर्थात् मनुष्य मानव जाति की सेवा में जितना पीछे रहता है उस दर्जे एक वह पशु है अथवा अपूर्ण है। अपनी स्त्री के लिए, अपने बेटे के लिए, मुझे दर्द हो, पर उससे बाहर के आदमी के लिए मेरे दिल में दर्द न हो तो स्पष्ट है कि मुझे मानव जाति के दुख की अनुभूति नहीं है, पर स्त्री, बच्चे या कौम जिसको मैंने अपना मान रखा है उनके लिये भेद-बुद्धि या स्वार्थ बुद्धि से कुछ दर्द होता है।

अतः जब तक हमारे मन में हर एक मानव-संतान के लिए दया न हो तब तक हमने नीति धर्म का पालन नहीं किया और न उसे जाना अब हम देख रहे हैं कि ऊँची नीति सार्वजनिक होनी चाहिए। हमसे सम्बन्ध रखने बाला हर आदमी हमारे ऊपर ऐसा हक रखता है यानी हम सदा उसकी सेवा करते रहें यह हमारा फर्ज है। हमें यह सोच कर व्यवहार करना चाहिए कि हमारा हक किसी के ऊपर नहीं है। कोई यह कह सकता है कि ऐसा करने वाला आदमी इस दुनिया के रेले में पड़कर पिस जायगा। पर ऐसा कहना निरा अज्ञान है, क्योंकि यह जगत्-प्रसिद्ध अनुभव है कि ऐसी एक-निष्ठा से सेवा करने वाले आदमी को ईश्वर ने हमेशा बचा लिया है।

इस नीति के पैमाने से मनुष्य मात्र समान हैं। इसका अर्थ कोई यह न करे कि हर आदमी समान पद अधिकार भोगता है, या एक ही तरह का काम करता है। उसका अर्थ यह है कि अगर मैं ऊँचा पद अधिकार भोगता हूँ तो उस पद की जिम्मेदारी उठाने की मुझमें शक्ति है। इससे मुझे गर्व से इतराना न चाहिए और न यह मानना चाहिए कि दूसरे लोग जो छोटी जिम्मेदारी उठाते हैं मुझमें हेठे हैं।

इस नियम के अनुसार एक जाति या राष्ट्र अपने स्वार्थ के लिए दूसरी जाति या राष्ट्र पर राज्य नहीं कर सकता। अमरीका की गोरी जनता का वहाँ के मूल निवासियों को दबाकर उन पर हुकूमत करना, यह नीति विरुद्ध है। ऊँची शिक्षा संस्कार वाली जाति का नीची जाति से साबका पड़े तो उसका यह कर्त्तव्य होता है कि उसको उठाकर अपने बराबर कर ले। इस नियम के अनुसार राजा प्रजा पर हुकूमत करने वाला नहीं बल्कि उसका नौकर होता है। अधिकारी अधिकार भोगने के लिए नहीं बल्कि प्रजा को सुखी करने के लिये होता है। जिस राज्य में शासक लोग स्वार्थी हों तो वह राज्य निकम्मा है।

फिर इस नियम के अनुसार एक राज्य में बसने वाले या एक कौम के आदमियों में जो बलवान हों उनका काम है दुर्बलों की रक्षा करना, न कि उनको कुचलना, उनका दलन करना। ऐसी राज्य-व्यवस्था में भूखों मरने वाले नहीं हो सकते और न यही हो सकता है कि कुछ लोगों के पास बेहद दौलत इकट्ठी हो जाय, इसलिए कि हम अपने पड़ोसी का दुःख देखते रहें और सुखी रहें यह हो नहीं सकता। श्रेष्ठ नीति का अनुसरण करने वाले आदमी से धन बटोरने का काम होने वाला नहीं। ऐसी नीति दुनिया में थोड़ी दिखलाई देती है, यह सोचकर नीतिमान को घबड़ाना न चाहिए क्योंकि वह अपनी नीति का मालिक है, उसके नतीजे का नहीं।

वर्ष -13 सम्पादक - श्रीराम शर्मा आचार्य अंक -5


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