जाकी रही भावना जैसी

May 1952

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(प्रो. रामचरण महेन्द्र एम. ए.)

एक बार एक अदालत में एक स्त्री ने एक युवक पर मुकदमा दायर किया था और कारण यह बताया था कि अमुक व्यक्ति उसको बड़े अजीब ढंग से निहारता है। वह हत्या कर सकता है तथा अन्य कुछ हानि युवती को पहुँचा सकता है। युवक के चरित्र की पुलिस ने छानबीन की तो ज्ञात हुआ कि वह साधारण मानसिक स्थिति वाला निर्मल चरित्र व्यक्ति था, जिससे किसी प्रकार के अपराध की आशा नहीं की जा सकती थी। मुकदमा खारिज कर दिया गया था।

जब उस युवती का मनः विश्लेषण किया गया तो ज्ञात हुआ कि वह स्वयं ही सन्देह वृत्ति से ग्रसित थी। वह स्वयं दूसरों में हत्या, भय, सताने की वृत्ति, चोरी, डकैती, खूँरेजी, अपवित्रता, व्यभिचार, ईर्ष्या, द्वेष, प्रतिहिंसा इत्यादि की घृणित भावनायें आरोपित किया करती थी। चूँकि उपरोक्त दुर्गुण स्वयं उसकी कमजोरियाँ थीं, वह दूसरों में इन्हीं की प्रतिच्छाया देखा करती थी। उसे सभी लोग खराबियों से परिपूर्ण दुर्बल चरित्र वाले दिखाई देते थे।

दूसरों में हम प्रायः उन्हीं गुणों की परछांई देखते हैं, जो वास्तव में स्वयं हमारे अन्तःकरण में गुप्त रूप से मानसिक ग्रन्थियों के रूप में निवास करते हैं। यदि हम सावधानी से अपने मनः क्षेत्र के गहन गह्वर की परीक्षा करें तो हमें विदित हो सकता है कि हमारे गुप्त मन में किस प्रकार के विचारों की भावना ग्रन्थियाँ विनिर्मित हो चुकी हैं।

मालूम कीजिये कि दूसरों-अपने आस-पास के व्यक्तियों, जान पहचान वालों, नये व्यक्तियों, भाई-बहिनों, परिचितों, विद्यार्थियों, ग्राहकों के विषय में आपके मन में कैसे विचार आते हैं। क्या आप उनके प्रति नेकी और भलाई की बात सोचते हैं या ईर्ष्या, द्वेष, फरेब की परछांई आती है? यदि वे संकट में हों तो क्या आप उनकी सेवा और सहायता को प्रस्तुत होंगे, या हाथ झाड़कर दूर खड़े हो जायेंगे? यदि वे अकेले में मिल जायें तो क्या आप उन पर प्रहार करेंगे या प्रेम के दो शब्दों से हँस कर स्वागत करेंगे? यदि उन्हें किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता हो, तो क्या आप उनकी सहायता को प्रस्तुत करेंगे? इन प्रश्नों पर निष्पक्षता से विचार करने पर आपको आरोप की वृत्ति का ज्ञान हो जायेगा। आपको यह मालूम कर आश्चर्य होगा कि अनेक व्यक्तियों को हम योंही बिना पर्याप्त कारण के घृणा करते हैं। हम अपने दुर्गुण उनमें आरोपित कर उन्हें रुचि-अनुसार भला बुरा बनाया करते हैं। दूसरों के चरित्र के विषय में हमारे निर्णय सदैव हमारी गुप्त मन में बसी हुई मान्यताओं से स्वचालित होते रहते हैं।

महात्मा गाँधी जी पर दो बार घातक प्रहार हुआ था। जिस व्यक्ति ने प्रथम बार उनकी हत्या का प्रयत्न किया था उसे गाँधी जी ने माफ कर दिया। वे यह समझ ही नहीं सकते थे कि कोई व्यक्ति उनके प्रति दुर्भाव रख सकता है। चूँकि वे स्वयं सज्जन पुरुष थे, सदा सर्वदा दूसरों की नेकी और भले का ही ख्याल रखते थे।

आरोप की प्रवृत्ति मनुष्य की एक दुर्बलता है, जो सही विचार एवं तर्क में बाधा स्वरूप खड़ी हो जाती है। अनेक व्यक्तियों में यह कुछ के प्रति बड़े अत्याचार का कारण बन जाती है। भारत में भंगी, चमार, कोली, भील इत्यादि निम्न जातियों के प्रति जो घृणा और तुच्छताओं की भावनायें हैं उनका कारण एक प्रकार से आरोप ही हैं। पशुओं में सूअर के प्रति बड़ा अत्याचार देखने में आता है। मुहल्ले टटियाँ, गन्दगी, सड़ी गली चीजें जिन्हें खाकर सूअर सफाई में योग पहुँचाते हैं, उनकी ओर कोई दृष्टिपात नहीं करता। मनुष्य के संचित आरोप उनकी इस घृणा का कारण हैं।

अधिक विकसित होकर आरोप की प्रवृत्ति क्रोध, ईर्ष्या, प्रतिशोध, घृणा, लोभ, जनित भयंकर मानसिक जटिल मानस रोगों में प्रस्फुटित होती है। मनुष्य को अपने इर्द-गिर्द सभी अपने शत्रु, दुष्ट, पापी, खूनी, हत्यारे, चोर, डाकू प्रतीत होते हैं। उसे ऐसा प्रतीत होता है जैसे सभी उसका बुरा चाहते हों, उससे प्रतिशोध लेने को समुत्सुक हों, सदा उसी की टीका-टिप्पणी करते हों और हाथ धोकर उसके पीछे पड़ गये हों। वह स्वयं असंख्य शंकाओं, दुश्चिन्ताओं, कल्पित भय, कायरता, अंतर्द्वंद्व, आवेश से उद्विग्न हो उठता है। घर में, उद्यान में, सभा सोसाइटी में, बाजार में, कभी भी उसे मानसिक सन्तुलन प्राप्त नहीं होता। उसका जीवन एक विडम्बना बन जाता है।

तुलसीदास जी ने भक्तों पर भगवान राम का दर्शन वर्णन करते हुए एक स्थान पर निर्देश किया है-

‘जाकी रही भावना जैसी।

प्रभु मूरति देखी तिनतैसी॥”

प्रभु एक हैं, किन्तु भिन्न-भिन्न, रुचि प्रकृति स्वभाव वाले भक्तों को प्रभु की भिन्न-भिन्न आकृति और रूप दृष्टिगोचर हुए। विद्वानों को विद्वान भक्त और शक्तिवालों को वे शक्ति के अवतार दिखाई देते हैं। मूल अभिप्राय भावना की विभिन्नता ही है। जैसी जिसकी भावना, वैसा उसका दर्शन। यही बात संसार के विषय में भी लागू होती है। इस त्रिगुण जगत् के अनन्त भण्डार में सत, रज, तम आदि अनेक प्रकार के गुण अवगुण भरे पड़े हैं, किन्तु मनुष्य अपनी भावना के अनुसार उनकी प्रतीति करता है।

हम जैसे अन्दर से स्वयं हैं, हमारा बाह्य संसार भी वैसा ही है। जिनकी भावना भीतर से भलाई, सचाई, प्रेम, सहानुभूति, करुणा, शील, सौहार्द, वात्सल्य, सद्भाव की ओर झुकी हुई है, उसे उसके संसार में इन्हीं दैवी गुणों का बाहुल्य प्रतीत होता है। वह सर्वत्र उत्तम पवित्र वस्तुओं के ही दर्शन करता है। दूसरों की भलाई की ओर ही देखता है। उसके संसार में ये ही सत्य गुण फलित पुष्पित होते हैं। दुर्भाव की विषबेल नहीं उगती। वह सर्वत्र प्रेम वितरण करता है, परिवर्तन में वही भाव दुगना चौगुना प्राप्त करता है।

महात्मा ईसा को सूली पर ले जाया गया। रूढ़िवाद तथा अज्ञान के अन्धकार में फँसी हुई जनता उनके दिव्य दर्शनों को समझ नहीं पा सकी थी। मृत्यु से पूर्व उनके मुख से ये शब्द निकले, “मेरे प्रभु! इन लोगों को क्षमा करना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।” ईसा के इन वचनों में कितना मर्म भरा हुआ है! उनकी ममता, प्रेम, सहानुभूति की अजस्र धारा प्रवाहित हो रही है। जनता मूर्ख है। वह धर्म का मर्म नहीं समझती। वह ईसा को धर्म का शत्रु मान बैठी है क्योंकि उनके गुप्त मन में हिंसा, विद्वेष, क्रोध, प्रतिशोध के भयंकर कीटाणु बैठे हुए हैं। लेकिन उदार हृदय ईसा अपनी सद्भावना फिर भी बखेर रहा है। ईसा! तुम धन्य हो!

पर छिद्रान्वेषण आज का प्रमुख दुर्गुण है। अमुक व्यक्ति ऐसा है, वैसा है। झूठ बोलता है, चोरी करता है, ईर्ष्या, द्वेष, बैर में फँसा हुआ है। समाज का शत्रु है। उससे इतनी हानि हो रही है। इत्यादि बातें कोई भी व्यक्ति दूसरों के विषय में कह देते हैं। ऐसी टीका टिप्पणी करने वाला व्यक्ति ये बातें उच्चारण करते हुए केवल दूसरों की ओर ही दृष्टिपात करता है, जबकि ये समस्त दुर्गुण स्वयं उसी के गुप्त संस्कारों में जटिलता से बैठे रहते हैं। वह यह नहीं सोचता कि दूसरों की आलोचना करने वाला वह स्वयं कितने दुर्गुणों, पापमय दीपक के नीचे स्वयं कितना अन्धकार एकत्रित है?

एक पाश्चात्य विचारक का कथन हैं कि यदि सज्जन कहलाने वाले व्यक्तियों के समस्त दोष प्रकट हो सकें, (जोकि उसके गुप्तमन, अन्तःकरण में छुपे रहते हैं) तो हममें से प्रत्येक व्यक्ति इतने अंशों में दोषी है कि उसे फाँसी की सजा मिल सकती है। अन्दर से हम सब नानाप्रकार के पापमय संकल्पों एवं गुप्त अनुभवों से भरे रहते हैं। चूँकि उनके पाप ढके रहते हैं जब तक लोग हमें सज्जन समझते हैं। प्रकट होने पर इन्हीं पापमय संकल्पों के कारण हम भयंकर से भयंकर सजा के अधिकारी हो सकते हैं।

इस कथन में गहरी सत्यता है। हममें से सबके पास एक बड़ा जरूरी कार्य करने के लिए मौजूद है—स्वसंस्कार अर्थात् हमें सर्वप्रथम भावनाओं की सफाई करनी चाहिए। यह बड़ा कठिन कार्य है। इसकी प्राप्ति के दो ही उपाय हैं। (1) आत्म-नियन्त्रण, (2) दीर्घकालीन अभ्यास। प्रथम तो यह कि जब किसी के प्रति मन में कुसंस्कार उदित हों तो ठीक उनके विपरित मैत्रीभाव द्वारा, दुर्भाव का निराकरण द्वारा आत्मशुद्धि का उत्तरदायित्व पूर्ण कार्य हो सकता है। दुर्भावों से युद्ध करना उनके स्थान पर दया, प्रेम, सहानुभूति का पालन करना हमारी साधना का प्रधान अंग होना चाहिये। जिसने इस ओर पग उठाया है, उसने जीवन में एक महत्वपूर्ण कार्य किया है। सबके प्रति सद्भाव, मित्रभाव, प्रेम, सहानुभूति, सेवा, सहायता की मनोवृत्ति आन्तरिक शान्ति प्रदान करने वाली अवस्था है। मैली भावना के अभ्यास से मानव दिन रात अमित सुख का अनुभव करता है, रात्रि में मीठी नींद सोता है; बुरे स्वप्न नहीं देखता, सबका प्रिय हो जाता है; अमानव दुष्टों का भी प्रिय होता है, देवता उसकी रक्षा करते हैं; अग्नि, विष या हथियार तक से उसे हानि नहीं पहुँचती, शीघ्र ही उसे समाधि लग जाती है, उसका आकार सदा प्रसन्न रहता है। बिना किसी अंतर्द्वंद्व के मृत्यु को प्राप्त होता है। यदि वह अर्हन्त पद तक नहीं पहुँच पाता तो अवश्य ही वह ब्रह्म लोक में जन्म लेता है।

सबसे मित्रता, सबका कल्याण, सबकी भलाई प्रेम की भावना से जब मानव का अंतःकरण परिष्कृत हो उठता है, तो उसके शुभ भावों की विद्युत् तरंगें समीप के वातावरण को भी विशुद्धता, पवित्रता से भर देती हैं। जब हम दूसरों का भला चाहते हैं तो हम सबको प्रेममय, मित्र सखा के रूप में देखने लगते हैं। किसी के प्रति दुर्भाव, ईर्ष्या, द्वेष का होना ही अशान्त, ईर्ष्यामय अन्तर्द्वन्द्वपूर्ण जीवन बिताना है। सद्भावना न केवल कर्त्ता को सुख शान्ति प्रदान करती है वरन् समीप के व्यक्तियों में भी उसी भाव को विस्तृत कर स्वार्थ, दुष्कर्म एवं संकुचिता से मुक्त करती है।


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