(श्री राम लौटन प्रसाद जी अध्यापक, बीकानेर)
भारत माता को स्वाधीनता प्राप्त हो जाने के पश्चात् जो सबसे महत्वपूर्ण रचनात्मक कार्य राष्ट्र के मुख है वह है—”शिक्षा”। शिक्षा को ही किसी देश का मेरुदंड कहा जा सकता है। इसी आधारशिला पर उसकी उन्नति अवनति निर्भर रहती है। भावी पीढ़ी को जैसा कुछ भी बनाना हो वैसी ढालने के लिए शिक्षा पद्धति ही साँचे का काम देती है।
अंग्रेजों की गुलामी की जड़ें भारत में गहरी जमाने का प्रयत्न करते हुए मैकाले महोदय ने शिक्षा का विधान ऐसा बनाया था जिससे उस साँचे में ढले हुए नवयुवक केवल नौकरी करने के ही लायक रहें। वे जानते थे कि शिक्षा पद्धति ही किसी समाज का मेरुदण्ड होता है। इस तथ्य को हमें भी भली भाँति समझ लेना है और अपने राष्ट्र को ऊँचा उठाने के लिए शिक्षा सम्बन्धी समस्याओं पर समुचित ध्यान देना है।
यों तो अंग्रेजों से विरासत में मिली हुई वर्तमान शिक्षा प्रणाली में अनेक त्रुटियाँ हैं परन्तु उसका एक दम परिवर्तन होना कठिन है। अतएव उसमें जो सुधार सरल एवं अधिक आवश्यक हों उनकी ओर शीघ्र ध्यान दिया जाना चाहिए। कुछ ऐसे ही सुधारों की चर्चा इस लेख में की जा रही है।
पाठशाला में प्रवेश करते समय बालक की आयु 6 वर्ष से कम न हो, यदि वह 7 वर्ष का हो और भी अच्छा। क्योंकि इससे छोटी आयु में शिक्षा का दबाव पड़ने से बालक के स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता।
पाठ्यक्रम में व्यावहारिक जीवन संबन्धी जानकारियों को स्थान अवश्य दिया जाय, जिससे विद्यार्थी को स्वास्थ्य, यात्रा, शिष्टाचार, रेल, डाक, तार,व्यापार तथा राजकीय नियमों की आवश्यक जानकारी हो जाय।
(3)परीक्षा में उत्तीर्ण अनुत्तीर्ण होना वार्षिक परीक्षाओं पर निर्भर न रहे। वरन् विद्यार्थी के कार्य की मासिक प्रगति के विवरण के आधार पर उसे उत्तीर्ण या अनुत्तीर्ण किया जाय।
(4) प्राइवेट परीक्षाओं में किसी प्रकार की अड़चन न हो। जिससे अन्य कार्य करते रहकर भी शिक्षा में उन्नति करने की हर किसी को सुविधा रहे।
(5) सब प्रान्तों में एक ही प्रकार का पाठ्य क्रम हो जिससे एक प्रान्त के विद्यार्थी को दूसरे प्रान्त में जाने पर दाखिला सम्बन्धी कोई अड़चन न हो।
(6) पाठ्य क्रम में पुस्तकों का बहुत भारी बोझ न रहे। वरन् थोड़ी किन्तु उपयोगी पुस्तकें ही रखी जावें।
(7) लड़के और लड़कियों की सम्मिलित शिक्षा न हो विशेषता तथा वयस्क बालक बालिकाओं का पठन पाठन तो पृथक स्कूलों में ही होना चाहिए।
(8) छात्रों और अध्यापकों की आदतें वेशभूषा तथा अनुशासन प्रियता पर कड़ाई से ध्यान दिया जाय। उच्छृंखलता को शिक्षा के क्षेत्र से बहिष्कृत किया जाय। सफाई, सादगी, सदाचार, शिक्षाचार और सेवा भाव को पुरस्कृत एवं प्रशंसित किया जाय।
(9) बालकों का सामान्य ज्ञान बढ़ाने के अधिक साधन उपस्थित किये जायं। इसके लिये एक अध्यापक एवं घंटा स्वतंत्र रूप से भी रखा जाना चाहिए।
(10) अध्यापक की आयु 25 वर्ष से कम न हो यदि वह 30 वर्ष रखी जाय तो और भी अच्छा। शिक्षकों को उनके स्वास्थ्य के अनुसार 60-65 की आयु तक काम करने दिया जाय।
(11) अध्यापकों को वेतन इतना दिया जाय कि वे आर्थिक चिन्ताओं से दुःखी न रहकर शान्त चित्त से शिक्षण कार्य में मन लगा सकें। उनके स्थान परिवर्तन किसी अनिवार्य कारण से ही हों, अन्यथा उन्हें अपनी सुविधा के एक स्थान पर जम कर काम करने दिया जाय।
(12) स्कूलों पर उत्तम निरीक्षण की सुव्यवस्था रहे। शिक्षा की प्रगति पर उच्च अधिकारी कड़े निरीक्षण की व्यवस्था रखें, जिससे कहीं ढील पोल न चलने पावें।
(13) शिक्षा शुल्क, इतना कम हो कि उसे साधारण श्रेणी के लोग भी आसानी से उठा सकें। असमर्थ एवं होनहार बालकों के लिए विशेष सुविधाओं की उदार व्यवस्था रहे।
(14) प्रत्येक स्कूल में ईश्वर प्रार्थना के उपरान्त ही शिक्षा कार्य प्रारम्भ किया जाय। प्रार्थनाओं में कर्त्तव्य पालन, सदाचार एवं लोक सेवा की बुद्धि देने की प्रार्थनाओं को प्रधानता दी जानी चाहिए।
(15) पाठ्य पुस्तकें बार बार बदलने से शिक्षकों, विद्यार्थियों तथा पुस्तक बनाने वालों को असुविधा होती है। पुरानी पुस्तकें रद्दी हो जाने से कागज आदि का व्यर्थ ही अपव्यय होता है और पुरानी पुस्तकें खरीद कर काम चलाने की सुविधा से गरीब विद्यार्थी वंचित हो जाते हैं। इसलिए पाठ्य पुस्तकें बहुत सोच समझ कर चुनी जायं जो चुन ली जायं वे बार बार बदली न जाय।
(16) सरकारी धन उच्च शिक्षा पर अधिक व्यय होने की अपेक्षा प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा का अधिक व्यय होना चाहिए।
(17) स्कूलों में औद्योगिक शिक्षा की समुचित व्यवस्था हो।
(18) लड़कियों की शिक्षा में उनके भावी जीवन से सम्बन्ध रखने वाली जानकारियों का आवश्यक समावेश रहे।
(19) अशिक्षित प्रौढ़ स्त्री पुरुषों के लिए भी उनकी सुविधा के समय का ध्यान रखते हुए पाठशालाएँ खोली जायं और उनका पाठ्यक्रम उनकी स्थिति के अनुकूल रखा जाय।
(20) स्कूलों का वातावरण प्राचीन गुरु कुलों जैसा सात्विक बनाने का प्रयत्न किया जाय जिसकी अच्छी छाप पड़ने से बालक बड़े होने पर राष्ट्र के सुयोग्य एवं प्रतिष्ठित नागरिक सिद्ध हो सकें।
यह सुझाव ऐसे हैं जो साधारण होते हुए भी अपना विशेष महत्व रखते हैं। सरकार को, शिक्षा विभाग के, विद्वानों के एवं प्रत्येक अभिभावक के इन सुझाव एवं सुधारों पर मनोयोग पूर्वक विचार करना चाहिए। यदि उन्हें कार्यान्वित किया जा सका तो शिक्षा क्षेत्र में उत्साहवर्धक स्थिति उत्पन्न हो सकती है, राष्ट्र निर्माण के लिये इन सुझावों पर विचार किया जाना उचित दिशा में कदम उठाना सिद्ध होगा।