श्रद्धा तथा स्नेह

May 1952

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(सुश्री शुभा कुमारी महेन्द्र एम. ए. (प्री.)

श्रद्धा और स्नेह, मानव-मन में प्रवाहित एक भाव सरिता की दो निर्मल धाराएं हैं। पारस्परिक विभिन्नता होते हुए भी दोनों ही हृदय की रागात्मक प्रवृत्तियाँ हैं। श्रद्धा अधिक व्यापक है तो स्नेह कुछ सीमित। श्रद्धा समष्टि से सम्बन्धित है तो स्नेह व्यष्टि प्रधान है। स्नेह व्यक्तिगत रुचि और पारस्परिक परिचय पर पलता है, श्रद्धा के लिये ऐसा स्नेह नियम नहीं।

श्रद्धा का उद्भव-

श्रद्धा वह सात्विक, पूज्य एवं आनन्द भाव है जो किसी व्यक्ति विशेष में किन्हीं असाधारण, असामान्य एवं महत्वपूर्ण गुणों से साक्षात्कार होने पर हृदय में उदित होता है। किसी व्यक्ति की शालीनता, विद्वत्ता, वाक् विदग्धता, धर्मज्ञता अथवा इसी प्रकार के अन्य गुणों को असामान्य रूप में देख कर हृदय विचित्र रूप से प्रभावित होता है और यह प्रभाव अनन्तः आनन्दानुभूति में परिणित हो जाता है। किसी अप्रत्याशित, अनुचित एवं आपत्तिजनक व्यवहार के अभाव में यह आनन्द-भाव हृदय की एक स्थायी सम्पत्ति का रूप धारण कर लेता है। हमारा समस्त स्नेह, सारा सम्मान, निस्वार्थ सद्भावनाएँ और समस्त शुभकामनाएँ ऐसे श्रद्धेय जन के लिए सुरक्षित हो जाती हैं। हृदय में संचरित यही स्नेह-सम्मान, यही उल्लास भाव, यही परमहत्व स्वीकृति, यही पूज्य बुद्धि का संचार, यही निस्वार्थ अनुराग सम्बन्ध-श्रद्धा है।

यह है श्रद्धा का साधारण स्वरूप, किंतु इससे अधिक उच्च एवं व्यापक रूप में श्रद्धा मन की वह आध्यात्मिक, उच्च एवं गम्भीर है। एक विद्वान के शब्दों में “श्रद्धा मन का वह भाव है जो मनुष्य की उत्कृष्ट विचार-बुद्धि को अनन्त की ओर, अज्ञात, अगोचर, परात्पर की ओर प्रेरित करता है और चेतना को उस सूक्ष्म जगत् की ओर ले जाता है जहाँ सभी पूर्ण हैं और स्थूल, दृश्यमान वस्तु से भी कहीं बढ़कर सत्य है। यह मन की वह अवस्था है जो ज्ञानपूर्ण है क्योंकि वह सदा चैतन्य बुद्धि और प्रकाश के उच्चतम शिखर पर आसीन रहता है”। श्रद्धा ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है, इहलोक और परलोक में श्रद्धा ही उसकी वास्तविक प्रतिष्ठा है। गीता का अमर सन्देश है—

“सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः”

मनुष्य को श्रद्धा सम्पन्न होने की प्रेरणा देता है। श्रद्धा की प्रेरणा से निष्काम भाव से किये गये कर्म, ध्यान, सेवा, सत्संग मनुष्य के हृदय-जगत को पवित्र एवं शुद्ध बना देते हैं, ज्ञान-सूर्य के प्रकाश से वह आलोकित हो जाता है। तब श्रद्धा ईश्वर प्राप्ति का साधन बन जाती है। मनुष्य का प्रथम और प्रधान कर्तव्य है आत्मा को उन्नत बनाना। प्रभु का कथन है :—

‘उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानवसादयेत्’

पूर्ण-प्राप्ति की ओर उन्मुख कर श्रद्धा मानव आत्मा की उन्नति के महान कार्य में पूर्ण योग देती है।

श्रद्धा विश्वास की चरम सीमा है उसकी अग्रिम स्थिति है। अटल प्रतीति तथा दृढ़ विश्वास श्रद्धा को जीवन देता है। यही आत्म-प्रतीति और पर-प्रतीति श्रद्धा की प्रेरक है। श्रद्धा प्रतिदान की अपेक्षा नहीं रखती, वह निःस्वार्थ स्नेह-भाव है जो स्वार्थियों और अभिमानी, संकुचित एवं मलिन हृदय को अपना उद्गम स्थल नहीं बना सकती। श्रद्धा का मूलभाव है पर-महत्व-स्वीकृत, किन्तु दर्पपूर्ण, दम्भी एवं अभिमानी हृदय ऐसी महत्व-स्वीकृति की अभ्यस्त नहीं। श्रद्धा सलिल-सरिता उसके हृदय की मरुभूमि में प्रवाहित ही कैसे हो सकती है? उसका उदय तो ऐसे कर्मों के प्रतिकार में होता है जिनका शुभ प्रभाव किसी व्यक्ति विशेष पर ही नहीं समस्त मनुष्य समाज पर पड़ता है। स्वार्थी व्यक्ति को ऐसी आनन्दपूर्ण कृतज्ञ-भावना की अपेक्षा नहीं जो केवल समाज के प्रतिनिधि रूप में प्रकट की जा सकती है।

स्नेह की सुकुमार भावना-

मानव-हृदय की द्वितीय सुकुमार रागात्मक प्रकृति है स्नेह। स्नेह को प्रेम की पवित्र और निस्वार्थी अनुजा कहें तो अनुचित न होगा। मनुष्यों के विविध पारस्परिक सम्बन्धों के साथ प्रीति का रूप भी परिवर्तित होता है। माता-पिता और शिशु के मध्य का प्रीति-सम्बन्ध वात्सल्य कहलाता है, भाई बहिनों, मित्रों और अन्य परिचितों के मध्य का रागात्मक सम्बन्ध स्नेह है तथा प्रिय-प्रेमी और युवक-युवती के मध्य का सुकोमल स्नेह सम्बन्ध प्रेम है। यों स्नेह एक व्यापक सा शब्द है और समस्त प्रीति सम्बन्धों को स्वयं में समेटने का क्षमता रखता है। स्नेह और प्रेम दोनों में कौन अधिक महत्व पूर्ण है यह एक विवाद ग्रस्त विषय है। भाई बहिन और परिचितों के मध्य का स्नेह भाव, माता, शिशु, पति पत्नी या प्रिय प्रेमी के प्रेम से कम सरस और कह सकते हैं कम मादक भी नहीं है। यह कभी नहीं कहा जा सकेगा कि इस प्रकार के स्नेह और उस प्रकार के प्रेम में कौन अधिक सुखद और उपयोगी है। यह अवश्य कहा जा सकता है कि उस प्रकार के प्रेम की गहराइयों में जाने वाले बहुत हुए हैं और इस प्रकार के स्नेह की गहराइयाँ अभी बहुत कम खोजी गई हैं।

श्रद्धा के समान स्नेह भी हृदय का राग प्रधान भाव है किन्तु दोनों में महान विभिन्नता है। स्नेह श्रद्धा से हल्की वस्तु है। वह व्यक्ति प्रधान है तो यह कर्म प्रधान। श्रद्धा में दृष्टि पहले कर्मों की प्रकृति से टकराती है, स्नेह किसी विशिष्ट व्यक्ति या विशेष वस्तु के प्रति उत्पन्न होने वाला वह रागमय भाव है जो पारस्परिक परिचय और परस्पर सान्निध्य के पश्चात् हृदय में जाग्रत होता है। व्यक्तिगत रुचि पारस्परिक परिचय और पारस्परिक निकट-सम्बन्ध स्नेह की जीवनदायिनी शक्तियाँ हैं। ब्रज की ग्वालिनें जब माता यशोदा से आग्रह करती हैं।

‘नैक गोपाल मोको दैरी’

तो व्यक्तिगत परिचय के कारण ही तो। किन्तु श्रद्धा ऐसी व्यक्तिगत परिचय और सान्निध्य की अपेक्षा नहीं रखती। हमारे ही बापू के प्रति आज विश्व के सैकड़ों, हजारों, लाखों ही नहीं करोड़ों व्यक्तियों की अपार श्रद्धा है किन्तु इन असंख्य नर नारियों में से संभवतः मुट्ठी भर ही ऐसे मिलेंगे जिनका बापू से व्यक्तिगत परिचय हो, निजी संपर्क रहा हो। योगी अरविंद का नाम लेते ही राष्ट्रीयता के आचार्य, बंग भंग विरोधी आन्दोलन के प्रचंड नेता, नवयुवकों में नवीन जीवन फूँकने वाले आदर्शवादी, मानव आत्मा में बसी सनातन आध्यात्मिक प्यास का बुझाने में प्रयत्नशील महान कर्मयोगी का जो चित्र नेत्रों के सम्मुख चित्रित हो उठता है हृदय उसके सम्मुख स्वतः ही श्रद्धानत हो उठता है, किन्तु हम भारतीयों में से ही कितने इतने भाग्यशाली हैं जिन्होंने उस महान् विभूति के कभी दर्शन भी किये हों। स्नेह लतिका के सिंचन के लिये जिस परिचय जल की आवश्यकता है वह श्रद्धा लतिका के लिये निरर्थक है।

स्नेह शील हृदय प्रतिदान की आकाँक्षा रखता है। स्नेह तभी टिक सकेगा जब दोनों ओर से स्वभावतः ही यह उत्पन्न हो। तभी वह पुष्प में समाई सुरभि के समान स्थायी रह सकता है। एकाँगी स्नेह मरुभूमि में वर्षा के समान निरर्थक सिद्ध होगा। श्रद्धा एक सामाजिक भावना है इसलिए हम श्रद्धेय से अपनी श्रद्धा के विनियम में कुछ नहीं चाहते। स्नेहशील व्यक्ति अपने स्नेह भाजन पर एक अधिकार सा अनुभव करता है अपने स्नेह सूत्र में उसे बाँधकर रखना चाहता है। वह उसके हृदय में प्रवेश पाकर उसमें समाने की चेष्टा करता है, उसके अन्तः स्थल में एक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान सुरक्षित कर लेने में प्रयत्नशील रहता है। श्रद्धावान व्यक्ति श्रद्धेय पर किसी ऐसे अधिकार का विचार तक नहीं कर पाता और श्रद्धेय भी व्यक्तियों के हृदय में प्रवेश पाने की क्या कामना करेगा?

आज विश्व की विशेष विषम स्थिति को सुलझाने में मानव-मन की ये दोनों रागयुक्त भावनाएं श्रद्धा एवं स्नेह अद्भुत योग दे सकती हैं। श्रद्धा मानव-जाति को स्वार्थ एवं सस्ते साँसारिक सुखों की पूर्ति के हेतु सर्वनाश की सड़क पर सरपट दौड़ने से रोक कर उसे विश्व-कल्याण और प्रगति के प्रशस्त पथ की ओर उन्मुख कर सकती है। विशुद्ध स्नेह भाव मानव-मन में विश्व-बन्धुत्व, निस्वार्थ पारस्परिक प्रेम, सद्भावना और अगाध विश्वास को जन्म देगा। श्रद्धा और स्नेह मनुष्य के मानस नेत्रों के सम्मुख सत्य के उस निगूढ़ सत्य को प्रदर्शित कर सकेंगे, जिसका ज्ञान उसे सभी प्रकार की दुर्बलताओं से मुक्त कर सकेगा और तब क्या हम विश्वशान्ति और विश्व-संघ सरकार की संस्थापना के स्वप्नों को साकारता नहीं दे सकेंगे?


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