चारित्रिक दृढ़ता

May 1952

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(महात्मा जेन्स ऐलन)

सत्यवादी अपने अंगीकृत दैवी नियमों से विचलित नहीं होता। रोग, दारिद्रय, दुःख, मित्र-विछोह स्थानाच्युति—इन सब आपत्तियों के अतिरिक्त, यदि उसे मौत का भी सामना करना पड़े तो वह अपने सच्चे तथा न्याय-पथ से नहीं डिगता। सब पाप समूहों से बढ़कर यदि कोई वस्तु अधिक दुःखद भयावह और त्याज्य है तो वह है “नियम-च्युति”। यदि सच्चे नियम से तुरन्त सुन्दर, स्वास्थ्य, द्रव्य तथा आराम न मिले और इस कारण कोई दैवी नियम से मुख मोड़ कर परीक्षा के समय में कायर बनता है—भय, वासना, तथा दुष्ट अन्तःवेगों का दास हो जाता है तो—वह अपना आत्मपतन करता है। यह सब दोषों से बढ़कर दोष और सब पापों से बढ़कर पाप है।

हम रोग और मृत्यु से छूट नहीं सकते। यद्यपि बहुत काल तक हम उनसे बचते रहते हैं, किंतु अन्त में उसके शिकार हो जाते हैं। परन्तु हम दुष्कर्म से बच सकते हैं। हम डर तथा कायरता को दूर कर सकते हैं। जब हम दुष्कर्म का त्याग कर भय को हटा देंगे, तब जीवन के घोर पाप-कर्म हमारे पास आने पर भी हमें विचलित न कर सकेंगे—पराजित होने के कारण उनसे जी चुराने के स्थान पर हम उन्हें पूर्ण रूप से उन्हीं के घर में उन पर विजय प्राप्त कर चुके रहेंगे।

बहुत से लोगों का कहना है कि पर-रक्षार्थ कुकर्म करना उचित है। अर्थात् परोपकारार्थ झूठ बोलना अच्छा है अथवा दूसरे शब्दों में यों कहिये कि कठिन परीक्षा काल में सत्य का त्याग करना उचित है। उच्च कोटि के अत्यन्त उदात्त पुरुष, सिद्ध तथा ऋषिगण ऐसी बातों का समर्थन नहीं करते। क्योंकि दिव्य चक्षु वाले महात्मा इस बात को भली भाँति जानते हैं कि कोई भी परिस्थिति, किसी दुष्कर्म को सुकर्म का रूप नहीं दे सकती और वे यह भी समझते हैं कि झूठ के पाँव नहीं होते। दुःख की अपेक्षा कुकर्म अधिक पापमय है। असत्य बोलना मृत्यु से भी बढ़कर भयावह और विनाशकारी है। पीटर अनुचित कार्य द्वारा अपने स्वामी की रक्षा करना चाहता था, इस पर महात्मा ईसा ने उसे बहुत धिक्कारा। कोई भी बुद्धिमान पुरुष यथा अवसर दूसरे का नैतिक पतन कराकर अपने जीवन की रक्षा कभी न चाहेगा।

सब धर्मों को एक दृष्टि से देखने वाले मनुष्य का आदर और प्रशंसा सभी करते हैं। जो स्त्री और पुरुष कुकर्म, कायरता और असत्य से डरकर दुःख और मृत्यु का सामना करते—कठिन परीक्षा-काल में अपने निश्चित समय पर दृढ़ तथा शान्त खड़े रहे—और जिस समय शत्रुगण उनको निरुत्साही करने के लिये उनकी हँसी उड़ाकर उन पर ताना मारते थे और प्रेमीगण अपने अश्रु तथा दुःखद शब्दों द्वारा आपत्ति के चंगुल से निकलने के लिए उनसे प्रार्थना करते थे—वे अपने स्थान पर खड़े रहे, पीछे कदम नहीं हटाए। क्योंकि उन्हें यह काफी अच्छी तरह ज्ञात था कि अखिल विश्व का कल्याण तथा मोक्ष उनकी अन्तिम परीक्षा पर ही निर्भर था। इसीलिए वे धर्मरूपी पर्वत की और सर्व मानवजाति की रक्षा तथा उन्नति करने वाली शक्ति के केन्द्र की भाँति, आवश्यक काल तक दृढ़ रहे। परन्तु जिसने अपने अभिन्न प्रेमियों के लिए असत्य का आश्रय लिया— उसका नाम कहीं सुनाई तक नहीं पड़ता। क्योंकि उस निश्चित पथ से विचलित होते ही उसकी शक्ति नष्ट हो गई। यदि उसका नाम कोई लेता भी तो उस असत्य के लिए नहीं। उसे लोग कायर समझते हैं और संकेत करते हैं कि यह कठिन परीक्षा काल में असफल रहा। उच्चतम धर्म के आदर्श की दृष्टि से, सब समय में सब लोग उसे ठुकराते चलते हैं।

यदि सब लोगों का विश्वास होता कि कठिन परिस्थितियों से असत्य बोलना उचित है तो स्वधर्मार्थत्यक्त जीवित मनुष्य तथा ऋषि कभी न होते। मनुष्य जाति का नैतिक जीवन समूल नष्ट हो गया होता और संसार-उसे विश्वव्यापी अन्धकार में टटोलता फिरता।

जो मनुष्य परोपकारार्थ अनुचित कर्म को उचित समझता है—उसके दृष्टिकोण में खिन्नता, दुःख और मृत्यु की अपेक्षा, दुष्कर्म तथा असत्य उपेक्षणीय पाप हैं। परन्तु धर्मात्मा के लिये दुष्कर्म और असत्य अति महान पाप हैं। इसीलिये अपने तथा दूसरों के लाख प्रयत्न करने पर भी वह इन बुराइयों के पास नहीं फटकता।

सुख तथा वैभव के समय में सब लोग दृढ़व्रती होने की डींग हाँकते हैं। परन्तु जब दुःख उनको पकड़ता—दुर्भाग्यमय अँधेरा उन्हें घेरता है और कठिन परिस्थितियाँ अपने भार से उन्हें दबाना चाहती हैं—तभी उनके परीक्षा का समय होता है। इसी समय में यह भली भाँति निश्चित हो जाता है कि वह सत्य का पुजारी है या स्वार्थमय वासनाओं का दास।

आवश्यक समय पर नियम हमारे मुक्ति के साधन होते हैं। उस समय यदि हम उन्हें ठुकरा देते हैं तो स्वार्थ-जन्य दुःख तथा मायाजाल से छुटकारा कैसे होगा?

तात्कालिक दुःख से बचने के लिये अथवा कोई पाप छिपाने के लिये जो आत्म-विरोधी कार्य किया जाता है, उससे दुःख तथा पाप की वृद्धि होती है। भला आदमी दुःख से बचने की चिन्ता में उतना नहीं रहता जितना पाप-कर्म से छुटकारा पाने में। हमारे आनन्द की बाजी लगते ही, नित्य तथा रक्षक नियम को त्याग कर, न तो हम कोई कौशल दिखाते हैं और न रक्षा का ही प्रबन्ध करते हैं। यदि हम प्रेम के लिये श्रेय को छोड़ते हैं, तो यह श्रेय और प्रेम दोनों से हाथ धो बैठेंगे। परन्तु यदि हम प्रेम की तिलाँजलि दे दें तो श्रेय-जन्य शान्ति से हमारे दुःख की शान्ति हो जायगी। यदि हम अच्छी चीज देकर बुरी चीज खरीदते हैं, तो हम मनस्ताप तथा असारता (शून्यता) का बलिदान करेंगे। अनन्त तथा अनित्य के त्यागने से हमें शरण कहाँ मिलेगी? परन्तु यदि हम तुच्छ वस्तु के बदलें श्रेष्ठ वस्तु को लेते हैं, तो श्रेष्ठ-वस्तु-जन्य बल और सन्तोष के हम भागी होंगे! हम पूर्ण आनन्द को प्राप्त करेंगे। जीवन के पापों तथा चिन्ताओं से विलग होने पर सत्य की आश्रय-शिला पर हमें स्थान मिलेगा।

जीवन के सब परिवर्तनों के बीच की नित्यता को पाना—और सर्व परिस्थितियों में इसको अपनाये रहना ही सच्चा आनन्द है। यही मुक्ति तथा अन्तिम शान्ति है।


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