धर्ममय समाज

May 1952

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(श्री शचीन्द्र नाथ सान्याल)

आधुनिक शिक्षित जन के मन से धर्म के विरुद्ध एक संस्कार-सा बनता जा रहा है। पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त अधिकाँश व्यक्ति धर्म का नाम सुन ही नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं। जब राजनीति के क्षेत्र में धर्म की भावना को मिलाया जाता है, तब वे अधीर हो जाते हैं, और कहने लगते हैं, कि बस अब चौपट हो गया, वे ही पुरानी बातें फिर आई जिनके कारण भारत का अधःपतन हुआ।

धर्म की तरह धर्माधीशों और मठाधीशों के प्रति जनसाधारण के मन में एक प्रकार के विरोध की भावना बनी हुई है। ऐसा होने का एक विशेष कारण है।

जिस दिन से हम धर्म को समाज से एक भिन्न वस्तु समझने लगे, सामाजिक आचार-व्यवहार, रीति-नीति, विधि-व्यवस्था, आदि से धर्म को अधिक महत्व देने लगे, परमार्थ- साधन को ऐहिक साधन से भिन्न एवं श्रेष्ठ लगने लगे, उस दिन से न हमारी धार्मिक साधना ही उत्कर्ष को प्राप्त हुई और न व्यावहारिक जीवन में ही हमने उन्नति प्राप्ति की, जिस दिन से संसार को अविद्या समझकर हम उसकी उपेक्षा करने लगे, और सामाजिक निष्क्रियता को ही धार्मिक जीवन का सर्वोत्कृष्ट लक्षण समझने लगे, जिस दिन से पार्थिव ज्ञान को अविद्या मान कर उसे हेय समझने लगे और इस अभिव्यक्त संसार से अपने को भिन्न समझकर पारमार्थिक विद्या को ही एकमात्र विद्या समझने लगे, उस दिन से हमारा समाज, हमारा धार्मिक जीवन धन- तमसावृत हो गया, उस दिन से हमारी दुर्गति प्रारम्भ हुई और उस दिन से हम समाजनीति और राजनीति से अलग होने लगे। उसी दिन यह निश्चय हो गया कि हमारा देश पराधीन हो जायगा और धार्मिक जीवन में भी हम अधःपतित हो जायेंगे।

आज के दुर्दिन में हम देखते हैं कि आलसी, निर्जीव, स्वार्थपरायण, अज्ञान में डूबा हुआ व्यक्ति धर्म की दुहाई देकर राजनीति और समाज-सेवा से अपने को दूर रखते हैं और मदमत्त होकर दूसरे को यह उपदेश देते हैं कि ‘धर्म के साथ राजनीति का क्या सम्बन्ध? स्वार्थी व्यक्ति ही अपना काम बनाने के लिये राजनीति में भाग लिया करते हैं और अपने को बड़े-बड़े नेता समझने लगते हैं’। फिर जग अधिकारी राज-पुरुषों की खुशामद करने से कुछ स्वार्थ सिद्धि होती है, तब यही धर्मध्वजी गण प्राचीन संस्कृति की दुहाई देकर राष्ट्रीयता-विरोधी संस्थाओं में जाकर सम्मिलित होते हैं और जिस राजनीति से उन्हें घृणा थी, उसी राजनीति में जाकर घृणित मार्ग का अवलम्बन करते हैं। इससे उनका अपना भी अकल्याण होता है और समाज का भी।

यथार्थ में ऐसे व्यक्तियों के कारण ही प्राचीन संस्कृति आज लुप्त होने जा रही है। यथार्थ में आज हम आधुनिक विज्ञान से भी परिचित नहीं हैं और प्राचीन संस्कृति से भी हाथ धो बैठे हैं। प्राचीन संस्कृति में इह लौकिक साधना को छोड़कर केवल पारलौकिक साधना को ही महत्व नहीं दिया गया है। इस तत्व को भूलने से ही आज हम अन्धकार में पड़े हैं। इसका संकेत यजुर्वेद में भी दे दिया गया है। ईशोपनिषद् इसी यजुर्वेद का एक अध्याय है। ईशोपनिषद् के नवें श्लोक में इसी बात का संकेत है—

अन्धं तमः प्रविशन्ति य्रेऽविद्यामुपासते।

ततो भूय इव ते तमो यउ विद्यायाँ रवाः॥9॥

अर्थात्— जो अविद्या में रत रहते हैं, वे घोर अन्धकार को प्राप्त होते हैं, और जो केवल विद्या की ही आराधना करते हैं, वे और भी भीषण अन्धकार में निमज्जित होते हैं। इसका सबसे ज्वलन्त दृष्टान्त आधुनिक भारत है, समाज से धर्म को अलग करने से अथवा धर्म को समाज से अलग करने से ऐसी घोर दुर्दशा में निमज्जित होना पड़ता है। धार्मिक जीवन और सामाजिक जीवन को हम अलग-अलग रूप में देखने लगे थे, इसीलिये आज हम न धार्मिक जीवन का ही लाभ कर सके हैं और न सामाजिक जीवन में ही विजय को प्राप्त कर सके हैं।

परा और अपरा—दोनों विद्याओं में हमें पारदर्शी होना है। इहलोक और परलोक—इन दोनों लोकों के विज्ञान से हमें अच्छी तरह परिचित होना है। एक को छोड़ कर दूसरे की उपासना करने से हम इहलोक और परलोक दोनों से गिर जायेंगे; इसका भी संकेत ईशोपनिषद् में ही ग्यारहवें श्लोक में किया गया है—

विद्याञ्चाविद्याञ्च यस्तद्वोदोभयं सह।

अविद्यया मृत्युँ तीर्त्वा विद्ययामृतमश्नुते ॥11॥

अर्थात्- जो व्यक्ति विद्या और अविद्या दोनों को ही तत्व के अंतर्गत समझता है, वही मृत्यु को लाँघ कर अमृतत्व को प्राप्त करता है ।

इसी प्रकार हमारे श्रुति- स्मृति आदि ग्रन्थों में सामाजिक जीवन और धार्मिक जीवन को समग्र रूप में देखने की चेष्टा हुई है। मानव का जो सर्वोत्कृष्ट परिपूर्ण आदर्श है उसमें सामाजिकता और धार्मिकता का अपूर्व समन्वय है। इस समन्वय से हम गिर गये हैं, इसीलिये हमारी दुर्दशा का अन्त नहीं है।

आज हमने एक महान् युगसन्धि के मुहूर्त में जन्म ग्रहण किया है। एक युग का अन्त और दूसरे युग का उदय होने वाला है इसलिये एक ओर तो अधःपतन के लक्षण दिखाई दे रहे हैं और दूसरी ओर अभ्युदय के। इसी से हम भविष्य के अरुणोदय की प्रतीक्षा में दिन बिता रहे हैं। हमें आशा है,विश्वास है, हम जानते हैं कि इसकी प्रेरणा से यह संसार अभिव्यक्त हुआ है, जिसकी प्रेरणा से संसार में नित्य नव-नव परिवर्तन होते रहते हैं, जिसकी प्रेरणा से बड़े-बड़े साम्राज्य का ध्वंस होता है और जिसकी प्रेरणा से सबकी आँखों की ओट में नवीन धर्मराज्य सहसा उदय होकर सबको अचम्भे में डाल देता है, उस फलीलायम की अव्यर्थ प्रेरणा से बेचैन होकर समाज-सेवा की वासना सबके मन में आज जागृत हो रही है।

आज इस अरुणोदय के दिन हम सामाजिक और धार्मिक आदर्शों को भिन्न रूप में नहीं देख पाते हैं। आज समाज की सेवा धर्मबुद्धि के साथ ही करनी है और धार्मिक जीवन में सामाजिकता को साथ लेकर ही चलना है। सामाजिक जीवन में धर्म को छोड़कर चलने से हमें पाश्चात्य की तरह दुर्भोग भोगना पड़ेगा और धर्म की दुहाई देते हुए यदि हम सामाजिक जीवन से अलग हो जाते हैं, तो भी हमें विनाश को ही प्राप्त होना पड़ेगा। यही प्राचीन संस्कृति का सन्देश है।


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