धन का उचित उपयोग

May 1952

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

वित्त शक्त्या तु कर्त्तव्या उचिताभाव पूर्तयः।

न तु शक्त्या नया कार्य दर्पोद्धत्य प्रदर्शनम्।

अर्थ-धन की शक्ति द्वारा अभावों की पूर्ति करनी चाहिए। उस शक्ति द्वारा घमण्ड और उद्धतता का प्रदर्शन नहीं होना चाहिए।

गायत्री के ‘तत्’ और ‘स’ अक्षरों की व्याख्या करते हुए यह बताया जा चुका है कि ‘ज्ञान’ और ‘सत्ता’ का उपयोग स्वार्थ और अनीति के लिये नहीं वरन् परमार्थ और सेवा के लिये होना चाहिए। अब तीसरे अक्षर ‘वि’ में यह बताया जा रहा है कि तीसरी शक्ति-वित्त शक्ति का उपयोग भूलोक हित के लिए, उचित अभावों की पूर्ति के लिए ही होना चाहिए। अमीरी का बड़प्पन दिखाने एवं उद्दंडता पूर्ण कुकृत्य करने के लिए धन की शक्ति नहीं बनी है।

विद्या और सत्ता की भाँति धन भी एक महत्वपूर्ण शक्ति है। इसका उपार्जन केवल इसी लिए आवश्यक है कि अपने तथा दूसरों के उचित अभावों की पूर्ति की जा सके। शरीर, मन, बुद्धि तथा आत्मा के विकास के लिए, साँसारिक उत्तरदायित्वों की पूर्ति के लिए धन का उपयोग करना चाहिए और इसीलिए उसे कमाया जाना चाहिए।

परन्तु आश्चर्य है कि आज अधिकाँश व्यक्ति उसके सदुपयोग को भूल कर उसके जमा करने में अपनी प्रतिष्ठा अनुभव करते हैं। धन का जमा करना उसकी दृष्टि में कोई बहुत बड़ी बात होती है, अधिक कीमती सामान का उपयोग करना, अधिक अपव्यय, अधिक भोग, अधिक विलास, उन्हें जीवन की सफलता के चिह्न मालूम पड़ते हैं। इसलिए जैसे भी बने वैसे धन कमाने की उनकी तृष्णा प्रबल रहती है। इसके लिए वे धर्म-अधर्म का, उचित-अनुचित का विचार करना छोड़ देते हैं। धन की उसकी इतनी तन्मयता होती है कि स्वास्थ्य, मनोरंजन, स्वाध्याय, आत्मोन्नति, ईश्वराधना आदि सभी उपयोगी दिशाओं से मुँह मोड़ लेते हैं। धनपतियों को एक प्रकार का नशा सा चढ़ा रहता है, जिससे उनकी सद्बुद्धि, दूरदर्शिता और सत् असत् परीक्षणी प्रज्ञा कुण्ठित हो जाती है।

विचार करना चाहिए कि क्या धन का यही उपयोग है? क्या इसी गतिविधि के लिए धनोपार्जन होना उचित है? धन कमाना इसलिए आवश्यक है कि उससे हमारी वास्तविक आवश्यकताएं उचित सीमा तक पूरी हो सकें। कमाने का सही तरीका और उसके उपयोग का उचित मार्ग इन दोनों ही बातों को हमें भली प्रकार समझ लेना है। तभी धन की शक्ति से लाभ उठाया जाना संभव है, अन्यथा अनुपयुक्त अमीरी का परिणाम तो गरीबी की अपेक्षा अनेक गुना अधिक दुख-दायक होता है।

कमाने का उचित तरीका वह है जिसमें मनुष्य का पूरा शारीरिक और मानसिक श्रम लगा हो, जिसमें किसी दूसरे के हक का अपहरण न किया गया हो जिससे कोई चोरी, छल, प्रपंच, अन्याय, दबाव आदि का प्रयोग न किया गया हो। देश या समाज के लिये किसी प्रकार की हानि न पहुँचाकर सहायक एवं उपयोगी सिद्ध हो वही सच्ची कमाई कही जा सकती है। ऐसी ही कमाई से उपार्जित किया हुआ पैसा फलता फूलता है और उसी से मनुष्य की सच्ची उन्नति होती है। आजकल लोग बहुत जल्दी, अन्धाधुन्ध धन कमाने के लिए उतावले हो रहे हैं। इसके लिए वे सट्टा, दड़ा, फाटका, वायदा, जैसे जुए खेलते हैं। रिश्वत, चोरी, छल, फरेब, अनाचार, अन्याय, शोषण, आदि का आश्रय लेते हैं या ऐसे व्यापार करते हैं जिनसे लोगों को प्रकारांतर में हानि ही होती है, ऐसी कमाई से कोई मनुष्य यदि तत्काल धनी बन भी जाय, तो वह धन उसके लिए अभिशाप ही सिद्ध होता है। उससे शारीरिक रोग, द्वेष, शत्रुता, पारिवारिक वैमनस्य, व्यसन, व्यभिचार, दुर्गुण, बुरी आदतें, चिन्ताएँ, उद्दंडता, अहंकार, तृष्णा आदि अनेकों ऐसी बुराइयाँ उठ खड़ी होती हैं जो जीवन की शक्ति को नष्ट करती रहती हैं। बाहर से देखने में ऐसे अमीर लोग, सम्पन्न और सुखी दिखाई पड़ते हैं पर वस्तुतः वे गरीबों की अपेक्षा अधिक दुखी, अशान्त एवं चिन्ताग्रस्त रहते हैं। अनुचित रीति से कमाया हुआ पैसा कभी किसी को सुख नहीं दे सकता यह बात पूर्णतया निश्चित है।

जिस प्रकार धन के उपार्जन में औचित्य का ध्यान रखने की आवश्यकता है वैसे ही उसके खर्च करने में, उपयोग में, सतर्कता बरतनी उचित है। अपने शरीर को, मन को, आत्मा को, परिवार को समुचित रूप से विकसित करने के लिये जिन वस्तुओं या परिस्थितियों की आवश्यकता है उनके लिये धन का व्यय होना प्राथमिक कर्तव्य है। भविष्य के लिये जोड़ना, जायदादें खरीदकर सात पुश्तों को अमीर बनाये रखने की बात सोचना, नितान्त मूर्खतापूर्ण है। जो लोग अपने बच्चों को सुशिक्षित, स्वस्थ और स्वावलम्बी बनाने में खर्च करने की अपेक्षा उनके लिए जायदाद खरीदते हैं वे यह भूल जाते हैं कि जिसने जिस पैसे को कमाने में पसीना नहीं बहाया है वह उस पैसे का मूल्याँकन नहीं कर सकता। मुफ्त की कमाई उपयोग के लिए मिलने पर वह सन्तान आलसी, व्यसनी, अपव्ययी, और अन्य बुराइयों की शिकार बन सकती है और वह पैतृक सम्पत्ति उसके लिए अन्ततः दुखदायक ही सिद्ध हो सकती है।

चाहे सन्तान के लिए हो, चाहे अपने लिए, फालतू पैसा जमा करना सर्वथा अनुपयुक्त है आज की अपनी सर्वोत्तम आवश्यकताओं की पूर्ति करने से ही वह दृढ़ता आती है जिसके कारण मनुष्य कभी भी गरीबी का मुँह नहीं देखता। जोड़ा हुआ धन चोरी, अग्नि, मुकदमा, बीमारी आदि में खर्च हो सकता है पर अपना ज्ञान, अनुभव, स्वास्थ्य, यश, योग्यता, मित्रता, प्रतिष्ठा आदि बढ़ाने में जो धन लग गया है, वह कभी नष्ट नहीं होता, वह आड़े वक्त में भी काम आता है और गिरी हुई परिस्थिति में पहुँचने पर भी फिर उठ खड़े होने की क्षमता उसमें बनी रहती है। जो लोग केवल जोड़ना ही सीखे हैं और उस जोड़ने की धुन में अपना सब कुछ गवाँ चुके हैं, वे यदि भाग्यवश गरीब बन जायं तो उन्हें सीधी तरह कोई धक्के भी नहीं देता।

कई व्यक्तिओं की आमदनी काफी होती है। पर वे उसको अपनी शान शौकत, अमीरी के चोचले, फैशन, ठाठ-बाठ, प्रदर्शन की वाह वाही में ही उड़ा देते हैं। बड़े बड़े राजा रईस, अमीर उमराव, अपने खर्च इतने बढ़ा लेते हैं कि उनकी भारी आमदनी भी पूरी नहीं पड़ती। ब्याह-शादियों, मृतभोजों, त्योहारों में लोग इतने इतराते हैं कि वर्षों की गाढ़े पसीने की कमाई एक दो दिन में ही फूँक देते हैं। कपड़े, गहने, सवारी, नौकर आदि को लोग अपनी आवश्यकता के अनुरूप नहीं शान के अनुरूप रखते हैं। नशेबाजी, जुआ, नाच तमाशे, सैर सपाटे, ऐय्याशी आदि के ऐसे चस्के किन्हीं किन्हीं को लगते हैं कि वे आदमी अच्छी आमदनी को उसी में खो देते हैं। यदि इन अपव्ययों से पैसे को बचाकर केवल जीवनोपयोगी कार्यों में उसे खर्च किया गया होता तो निश्चय ही वे अनेक दृष्टियों से बहुत उन्नत दशा को पहुँच गये होते।

गायत्री मन्त्र का तीसरा अक्षर ‘स’ हमें बताता है कि धन के महत्व को, उसके उचित उपार्जन की आवश्यकता को, उसकी सदुपयोग प्रणाली को भूलना नहीं चाहिये। वह तीन भूलें ऐसी हैं जिनके कारण अमीरी भी दुखपूर्ण हो जाती है, और इन तीनों तथ्यों को ठीक प्रकार समझ लेने से भी गरीबी में भी आनन्द उल्लास कम नहीं होता।

अधिक धन के स्वामित्व की तृष्णा एक मनोवैज्ञानिक भूल है जिस पर मुहम्मद गजनी और सिकन्दर जैसे अतुल सम्पत्ति के स्वामियों को मृत्यु के समय भारी पश्चाताप करके आँसू बहाने पड़े थे, सिकन्दर ने अपने मृत शरीर के खाली हाथ अर्थी से बाहर निकले रहने का आदेश किया था ताकि उसकी भूल को दूसरे लोग न दुहरावें और देखें कि सिकन्दर जैसे धनी को भी बिना एक पाई साथ लिए खाली हाथ यहाँ से जाना पड़ा था। खेद है कि लोग इस सत्य का समझते हुए भी धन को अधिक मात्रा में जोड़ने के पीछे पागल हो रहें है। अमीर से लेकर गरीब तक इसी बीमारी से ग्रस्त हैं। कुछ दिन पूर्व मथुरा में एक कोढ़ी की मृत्यु हुई थी, उसके पास 64 गिन्नी निकली थीं। वह कोढ़ी दिन भर भीख माँगता था, और आधे पेट खाकर अपनी भिक्षा के पैसों को जोड़ता जाता था। उसकी जीवन भर की कमाई उसके किसी काम न आई। उसने गिन्नियाँ जोड़ने की अपेक्षा यदि उन पैसों से जीवन का स्वस्थ विकास किया होता तो निश्चय ही वह अधिक सुखी जीवन व्यतीत कर सका होता।

आज अधिकाँश व्यक्तियों की मनोदशा उस कोढ़ी जैसी ही है। जेवर बनवाने, जायदाद खरीदने, नफा कमाने, दौलत बढ़ाने की तृष्णा में क्या गरीब क्या अमीर सभी अपनी सामर्थ्य और स्थिति के अनुसार लगे हुए हैं। वे यह नहीं सोचते कि जीवन को समुन्नत और शान्तिमय बनाने के लिए धन की कितनी आवश्यकता है। उसके विपरीत वे उन्नति और शक्ति को नष्ट करके भी धन का स्वामित्व बढ़ाने में संलग्न रहते हैं। यह स्थिति सर्वथा अनावश्यक एवं अनुपयुक्त है, ऐसा गायत्री के इस तीसरे अक्षर में बताया गया है।

धन को कमाने में कोई दोष नहीं, उसे जितना अधिक कमाया जा सके अच्छा है। परन्तु दो कसौटियों पर उस धन को सदैव कसते रहना चाहिए (1) अनुचित रीति से तो नहीं कमाया गया है, (2) उसका दुरुपयोग तो नहीं हो रहा है? इन दो कसौटियों पर कसते हुए धन उपार्जन का जो प्रयत्न किया जायगा वह आत्मा की एक शक्ति ही बनेगा, उससे जीवन की एक महत्वपूर्ण दिशा की उन्नति ही होगी। हमारा लक्ष जीवन की सर्वांगीण उन्नति है। उसके लिए स्वास्थ्य, विद्या, धन, कुशलता, मित्र, समुदाय, यश, मनोबल, आदि सभी बलों की आवश्यकता है। जीवन को हँसी खुशी का बनाने को, उसे आनन्द और उल्लासमय बिताने को, उपरोक्त सातों शक्तियों को बढ़ाना और उपयोग करना आवश्यक है। इन सातों पर ही समान रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए। अन्यों की उपेक्षा करके केवल एक को ही बढ़ाना और उसको भी अवरुद्ध एवं अनुपयुक्त रखना किसी भी प्रकार उचित नहीं कहा जा सकता। आज अमीर और गरीब सभी इस अनौचित्य के शिकार हो रहे हैं।

धन को जीवन केन्द्र न मान कर उसे अमुक सीमा तक शक्ति रखने वाला एक साधन जब मान लिया जाय तभी यह संभव है कि मनुष्य अपने जीवन का, अन्य दिशाओं का विकास करने की ओर ध्यान दें और स्वस्थ शरीर, परिमार्जित मस्तिष्क, व्यवस्थित व्यवहार, हेल मेल भरी मधुर सामाजिकता, उचित मनोरञ्जन, परमार्थ और लोक सेवा (यश) आत्मिक उन्नति आदि के लिए समुचित प्रयत्न करें। सच्चा धनी उसे ही कहा जा सकता है जिसकी सभी जीवन दिशाएं परिपुष्ट हैं। जो जोड़ने के चक्कर में कोल्हू के बैल की तरह लगा हुआ है, जिसे अन्य कार्यों के लिए फुरसत नहीं उसकी विचार धारा को बीमार ही कहा जायगा, ऐसे बीमारों को अस्पताल की चारपाई पर भले ही न पड़ा रहना पड़े पर वे वस्तुतः सदा उतने ही दुखी रहते हैं जितने कि अन्य रोगों के रोगी।

पाश्चात्य देशों के निवासी बहुत कुछ इस महान् सत्य को समझते जा रहे हैं। और उनकी बढ़ी हुई आमदनी उनकी चौकीदारी की चिन्ता नहीं बढ़ाती वरन् आनन्द उल्लास के साँसारिक और आध्यात्मिक साधन जुटाने में प्रयुक्त होती है। गायत्री की शिक्षा हमारे लिए भी यही है कि हम धन की उपयोगिता के एवं शक्ति के वास्तविक रहस्य को समझें, उसे अधिकाधिक कमावें किन्तु उचित साधनों से ही कमावें। जो कुछ भी थोड़ी और बहुत कमाई हो उसका एक छोटा अंश भविष्य के लिए बचाना भी बुरा नहीं है पर सबसे अधिक ध्यान अपनी आज की अवस्था से ऊँची दशा में उठने के लिए रहना चाहिए। धन की निश्चय ही हमें आवश्यकता है पर इसीलिए कि हमारे वास्तविक अभावों की पूर्ति उससे हो। जो धन अनुपयुक्त रीति से कमाया जाता है और जिसका सदुपयोग नहीं होता वह मनुष्य में घमंड, दुर्व्यसन आदि नाना प्रकार की बुराइयां ही उत्पन्न करता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118