निर्जीव और सजीव आहार

May 1952

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(डॉ. युगल किशोर जी चौधरी, एन. डी.)

जिन्दा अथवा जीवित वस्तु ही जीवन प्रदान कर सकती है ऐसा प्रकृति का नियम है। हर एक भोज्य पदार्थ के विषय में भी यही नियम लागू होता है।

अगर आज हम अपनी थाली या मेज पर रोजाना खाई जाने वाली खुराक की जाँच करेंगे तो निश्चय हो जायगा कि उनमें 80 या 90 फीसदी खुराक मुर्दा खुराक है। इसकी पहचान यह है कि आप उस अनाज को जमीन में बोवें वह न उगेगा, क्योंकि उसके प्राण नष्ट हो चुके हैं।

मनुष्य सृष्टि के सभी प्राणियों में श्रेष्ठ है इस लिए ईश्वर ने सबसे ऊँचे दर्जे का आहार मेवा, फल, शाक, कंद मूल, हरा कच्चा अन्न, दूध आदि पदार्थ उसके लिए बनाये हैं। कहा जाता है कि आदम इस भोजन पर दृढ़ रहा परन्तु ईवा इस स्वाभाविक भोजन को छोड़कर अभक्ष्य भक्षण करने लगी और परिणाम में बीमार रहने लगी। स्वयं हमारे पाप ही हमारे लिए दण्ड स्वरूप बन जाते हैं।

मुर्दा भोजन से कभी प्राण स्थिर नहीं रह सकते यह रसायन शालाओं के प्रयोगों से भली भाँति सिद्ध हो चुका है। हम थोड़ी बहुत मात्रा में जीवित भोजन तैयार करते हैं इसीलिए अपने जीवन को कायम रखने में समर्थ हो रहे हैं।

यद्यपि हमारी थाली में कुछ न कुछ फल, मेवा, हरा शाक, कच्चा दूध आदि जीवित पदार्थ कुछ मात्रा में रहते हैं परन्तु सर्वसाधारण इतनी अधिक मात्रा में मुर्दा खुराक खाते हैं कि उनको पोषण तो बहुत कम मिलता है और मल मूत्र बहुत अधिक बनता है और अधिकाँश पदार्थ बेकार चले जाते हैं। इतना होने पर भी यह ठीक न होगा कि सदा से पके हुए अन्न आदि खाने वाले एक दम उन्हें छोड़कर कच्चा स्वाभाविक आहार करने लग जाएं, ऐसा करना अनुचित होगा। शरीर एकदम कच्चे आहार का आदी न हो सकेगा और अनेक शिकायतें पैदा हो जायेंगी। आग से आपकी मुर्दा खुराक खाने वाले स्वस्थ दीर्घजीवी हो सकते हैं परन्तु वे लोग अगर स्वाभाविक कच्चे आहार पर गुजारा करते तो न जाने कैसे नीरोग, सुन्दर निष्पाप व दीर्घ जीवी होते।

जिन रोगियों की जठराग्नि लगभग नष्ट होने वाली है जैसा किसी तेज बीमारी के बाद होता है या जो हालत पुराने रोगों के अन्त में हुआ करती है, ऐसे समय कम लोग कच्चे भोज्य पदार्थों को स्वाभाविक रूप में नहीं खिलाते बल्कि हम समय फलों का रस अथवा हरे कच्चे शाक आदि का रस निकाल कर रोगियों को देते हैं और जब यह उन्हें पचने लगते हैं तब फल व शाक आदि खिलाते हैं। इसके बाद धीरे धीरे पके हुए पदार्थ बिलकुल बन्द कर दिये जाते हैं और ज्यों-ज्यों शरीर आदी होता जाता है एक दम सभी आहार कच्चा स्वाभाविक अवस्था में देने लगते हैं।

इन प्रयोगों से धीरे धीरे बिलकुल क्षीण, नष्ट प्रायः जठराग्नि भी फिर से लौट आती है और फिर से अपना काम ठीक करने लग जाती है, यहाँ तक कि असाध्य मरणासन्न रोगी भी पुनः स्वास्थ्य लाभ कर लेते हैं और बहुत से तो बाद में जाकर बड़े ही तन्दुरुस्त, हट्टे-कट्टे बन जाते हैं, अलबत्ता उनका कोई अंग या भाग जो बिलकुल ही नष्ट हो चुका हो वह शायद फिर पहले जैसा न भी बने।

हर एक वैज्ञानिक कच्चे और पकाये हुए पदार्थों के अन्तर या भेद को भली भाँति जान सकता है कि गर्मी से पदार्थों का स्वभाव सर्वथा बदल जाता है। आग से पक जाने पर टमाटर उतने गुणदायक नहीं रहते जितने की कच्चे, परन्तु उबाले हुए भी खाये जा सकते हैं। टमाटर बड़े ही आरोग्य दायक होते हैं और उनमें विटामिन काफी मात्रा में पाये जाते हैं। फलों में प्रत्यक्ष अमृत है और ताजे फलों में सब रोगों को दूर करने की शक्ति होती है, परन्तु उन्हें अप्राकृतिक रूप से पकाने व उबालने पर वे प्राण रहित मुरदा हो जाते हैं। यह बात नहीं है कि फलों को आग में सेंकने या पकाने से वे हानिकर हो जाते हैं अर्थात् वे सारहीन, गुणहीन बन जाते हैं।

बहुत समय आग से पकी हुई मुरदा खुराक खाते रहने से हमारा पेट, आँतें इतने खराब हो गये हैं कि कच्चा आहार, कच्ची तरकारी, सलाद आदि खाने में हमें बड़ी कठिनाई उठानी पड़ती है। यद्यपि कच्चे शाक, सलाद अत्यन्त गुणकारी होते हैं।

इसीलिए पहले कच्ची व हरी तरकारियों को पीस कर उनका रस निकाल लेना चाहिए और नारंगी, मौसमी, अनार या और किसी फल के रस में मिलाकर उसे पीना ठीक रहेगा और धीरे-धीरे शरीर स्वयं कच्चे शाक आदि को ग्रहण करने लग जायगा। धीरे-धीरे शरीर हर एक फल व शाक को कच्चा ग्रहण करके पचाने लगेगा और इस अवस्था में शरीर को स्वस्थ व सशक्त रखने के लिए बहुत थोड़ी मात्रा में भोजन काफी होगा।

इसी प्रकार धारोष्ण कच्चा दूध जीवित गुण युक्त होता है, परन्तु औटाने पर उसका अधिकाँश गुण नष्ट होकर वह भारी हो जाता है, परन्तु दूध अकेले पर बहुत अधिक काल रहना ठीक न होगा, उसके साथ साथ फल, हरे शाक, मेवा, हरा व कच्चा अन्न आदि वस्तु भी खाना आवश्यक है।

फिर भी छोटी उम्र के बालकों के लिये कच्चा दूध बड़ा ही उत्तम भोजन है परन्तु हमारे समाज में तो बकरी या गाय के स्वाभाविक अमृत तुल्य दूध को अधिक महत्व नहीं दिया जाता। हम लोग अपने बच्चों को विलायती दूध, सूखा दूध, बालामृत, आदि सारहीन मुरदा चीजें पिलाकर नीरोग व दीर्घजीवी रखने की आशा करते हैं जो भारी भूल है।

जिन घरों में, खास कर धनवानों में माताएँ फल दूध, हरे शाक आदि का सेवन नहीं करती और जिनके बच्चे भी ताजा फल, हरे शाक, कच्चा दूध आदि नहीं खाते पीते, वहाँ वे अधिकाँश कमजोर, बुज़दिल, मन्दाग्नि वाले हो जाते हैं।

परन्तु आप डॉक्टर वैद्यों से तो पूछिये, कच्चे दूध में कीटाणु बताये जाते हैं, इसलिये क्षय आदि रोगों से बचने के लिए सूखा विलायती दूध पिलाने की राय देते हैं, भला हमारे बच्चों की तरह क्या कोई जानवरों के बच्चे भी विलायती दूध पीकर जिन्दा रह सकते हैं, कभी नहीं। जो जानवर आग से पकी चीजें खाते हैं वे बीमार ही रहते हैं।

कुछ भी हो यह निश्चित सिद्धान्त है कि कोई भी खुराक जो आग से पकाई जाती है, असली व कुदरती खुराक नहीं कहलाई जा सकती क्योंकि आग की गर्मी से उसके गुण व स्वभाव बिलकुल बदल गये हैं और इसीलिए सेके व उबाले हुए बीज आदि फिर नहीं उग सकते क्यों? उनके प्राण जा चुके जो वापस नहीं आ सकते।

मनुष्य जब पैदा होता है उस समय उसमें एक सीमित मात्रा में जीवन शक्ति को हम जीवित स्वाभाविक भोजन द्वारा स्थाई कर सकते हैं अथवा अस्वाभाविक मुर्दा आग से पके पदार्थ खाकर धीरे-धीरे नष्ट कर सकते हैं।

जरा सोचिए कि अगर हम मुर्दा खुराक खाते रहेंगे तो हमारी जीवन शक्ति उससे कायम ही कैसे रहेगी और इसीलिये मुर्दा भोजन से हमारे शरीर क्षीण हो जाते हैं। साराँश यह है कि जो मनुष्य थोड़े फल, हरे शाक और मेवे खाकर रहेगा वह कभी भी बीमार नहीं होगा। बहुत बड़ी उम्र तक जवान बना रहेगा क्योंकि इन्हीं चीजों में सभी जरूरी पोषक तत्व मौजूद हैं और जो ऐसा करते हैं वे इसके असाधारण गुणों को जानते हैं।

यह भी ध्यान रहे कि खाने की चीजों को एक दम निगलना बड़ा ही बुरा है उन्हें खूब चबा-चबा कर खाना ठीक है, बस ऐसी हालत में आरोग्य स्थाई रह सकता है।

गायत्री चर्चा—


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