चित्त को सत् में ही लगाओ।

August 1952

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(श्री डॉ. चतुर्भुज सहाय जी)

इच्छा व संकल्प एक ऐसी महान शक्ति है कि संसार का कोई काम बिना उसके सहारे नहीं हो सकता। यह इतना बड़ा ब्रह्माण्ड, यह पृथ्वी-सूर्य, चन्द्र-तारे-मनुष्य-पशु-पक्षी, स्थावर और जंगम सभी एक महान चैतन्य की संकल्प शक्ति का खेल है। इच्छा से ही इसकी उत्पत्ति हुई और इच्छा से ही उसका विनाश होगा। यह एक तमाशा है जो किसी अज्ञात पुरुष के द्वारा हो रहा है और हम सब सारे प्राणी उसी की इच्छा में बँधे हुए यहाँ झूठे खेल खेल रहे हैं।

माँ-बाप अपने बच्चों को निर्जीव खिलौने पकड़ा देते हैं, वह उनसे खेला करता है, बच्चा अपनी अज्ञानता से उन्हें सच्चा जीव समझ के अपने को उनमें ऐसा उलझा लेता है कि कभी-कभी अपने को भी भूल जाता है। माता-पिता दूर से इस तमाशे को देखते और प्रसन्न होते हैं। उन खिलौनों के संसर्ग में आकर वह बालक कभी दुखी हो लेता है, और कभी हँस लेता व सुखी हो लेता है, पर इस हर्ष शोक का प्रभाव माता-पिता पर कुछ भी नहीं होता क्योंकि वह उनकी असलियत को जानते हैं, ऐसे ही इस जगत के सृजनहार का हाल है। अपने संकल्प से अनेकों प्रकार की रचना कर जीवों के चारों ओर बखेर दी है और खुद दृष्टा बन तमाशा देख रहा है। जीव अपनी मूर्खता से भ्रम में पड़ उन सबको सच्चा समझ बैठा है। इस मिथ्या खेल में लिप्त हो अपने को भी भूल बैठा है, सुखी होता है, दुखी होता है, खुश हो लेता है, और कभी शोक सागर में डुबकियाँ खाने लगता है, पर उस तमाशा देखने वाले ‘दृष्टा’ को इससे क्या? क्योंकि वह जानता है कि यह सब भ्रम है, धोखा है, जब समझ आ जायगी, भ्रम का पर्दा हटेगा, तब कुछ नहीं रहेगा, ऐसा शास्त्रों का मत है। लोग उससे दया की भिक्षा माँगते हैं, उससे अपने लौकिक व पारलौकिक कष्टों के दूर करने की विनती करते हैं, और उसका फल प्रत्यक्ष देखने को मिलता है। जब वह चैतन्य पुरुष केवल दृष्टा है और कुछ किसी के लिए करता नहीं है तो उसकी भजन व प्रार्थना किस प्रकार फल देती है? यह एक प्रश्न कुछ लोगों के मस्तिष्क में गूँजने लगता है। इसका समाधान साधारण है, और वह यह है कि—मनुष्य जब अति दुखी होकर अपनी दीन दशा किसी दूसरे को सुनाता है तो उसका चित्त चारों ओर से सिमट के उस पुरुष पर ही केन्द्रित हो जाता है कि जिसे हम अपनी करुणा कहानी सुनाने चले थे। उसका ही यह नतीजा निकलता है कि एकदम उसकी विचार शक्ति व इच्छा शक्ति को बल मिलता है। जिस अँधेरे में खड़ा वह रो रहा और परेशान हो रहा था, वहाँ एक धुँधला सा प्रकाश उसकी आँखों के सामने आ जाता है, उसे कुछ-कुछ दिखाई देने लगता है उसकी समझ में यह बात आ जाती है कि आगे मुझे क्या करना है, क्या मेरा कर्त्तव्य है? यह ऐसा ज्ञान उसे प्रसन्नता देता है, उसकी अशान्ति थोड़ी देर को दूर कर उसे शान्त बनाता और उत्साह प्रदान करता है। भजन व प्रार्थना की एकाग्रता मन में बल उत्पन्न कर देती है, और मन की बलवती धारा उसे अँधेरे से निकाल प्रकाश में लाती है, उसका मार्ग सुगम करती है, और उसे आशावादी बनाती है। यही प्रार्थना व भजन का फल है, एकाग्रता का प्रभाव है जो मन के ऊपर पड़ता है और उसका ऐसा संस्कार किया हुआ मन ही उसका रास्ता साफ करता है, बुद्धि से भ्रम का पर्दा हटा देता है और ज्ञान देता है। ईश्वर कुछ नहीं करता, वह तो दृष्टा बना देखता रहता है परन्तु उसकी उपासना मन में और आत्मा में बल लाती है और ऐसी बलवती आत्मा और बलवान मन ही उस (जीव) को उठाकर शान्ति और आनन्द के धाम में पहुँचाता है इसीलिए कहा जाता है कि—इच्छा शक्ति और विचार शक्ति को बलवान बनाओ, इन्हीं के द्वारा जीव का कल्याण होता है, वह मोक्ष धाम में पहुँचाता है, आवागमन के चक्कर से छुटकारा पाता है। मन की बिखरी हुई शक्तियों को एकाग्र करना और विचार पर संयम करना ही मनुष्य का कर्त्तव्य है।

उपरोक्त कथन से यह बात साबित होती है कि मन को किसी एक वस्तु पर केन्द्रित करना ही जीव के उद्धार का कारण है, इसी से आत्मा और मन में बल आता है। ईश्वर का कोई हाथ इसमें नहीं है, तो फिर मन को ईश्वर पर ही क्यों टिकाया जाय, जिसको न देखा है, और न उसका रूप सामने है, केवल कल्पना है कि इस प्रकार की कोई सत्ता है जो सर्वशक्तिमान और चैतन्य है। इससे तो अच्छा यह है कि—किसी देखीभाली वस्तु को जो हमको प्यारी मालूम दे और जो प्रत्यक्ष हमारे सन्मुख है, उसको ही इस काम के लिये क्यों के लिये क्यों न छाँट लिया जाय। इससे एकाग्रता की कठिनाइयाँ बहुत कुछ दूर हो सकती हैं और काम जल्दी हो सकता है, यह ऐसा प्रश्न भी अनेक मस्तिष्कों में उठ सकता है? इस ऐसी शंका का समाधान भी शास्त्रों ने किया है और वह इस प्रकार है :—

इस जगत की रचना में चैतन्य और अचैतन्य दो पदार्थों का मिलाप है, एक सदा एक ही अवस्था में रहने वाली है, न कभी घटती है न बढ़ती है, न उसका नाश होता है, न उत्पन्न होती है। उसमें ज्ञान है, उसमें प्रकाश है, इस एक-रस रहने वाली वस्तु को ‘सत्’ कहा जाता है। दूसरी वस्तु परिवर्तनशील है, वह बनती और बिगड़ती है, उसमें ठहराव नहीं है। उसका प्रत्येक कण हर समय चलता ही रहता है। जो शकल आज हमारी आँखों के सामने है, कल नहीं रहती। वस्तु के जिस रूप को आज हम देख रहे हैं, विनाश उसके संग-संग चलता है। उसमें ज्ञान नहीं है, स्थिरता नहीं है, प्रकाश नहीं है, दूसरे के सहारे अपना काम करती हुई अनेक रूपों से प्रकट होती है। उसमें समुद्र की तरह हर समय तरंग उठती रहती है एक लहर आगे चलती है और सैकिंड में उसके स्थान पर दूसरी लहर आ जाती है, यह सिलसिला उसका कभी समाप्त नहीं होता। बुलबुले उठते हैं, कुछ देर दिखाई देते हैं, वह भी किसी धक्के से आगे को बहते हुए नजर आते हैं, एक स्थान पर नहीं टिकते और अन्त में लोप हो जाते हैं। फिर पता भी नहीं चलता कि वह किधर से आये थे और किधर चले गये। इन सब ऐसे पदार्थों को ‘असत्’ बोला जाता है।

जो स्त्री आज युवा है, कुछ दिन में ही उसका चन्द्र मुख मलिन होने लगेगा, उसके सुन्दर शरीर की कान्ति क्षीण होने लगेगी और आगे चलकर वह एक वृद्धा के रूप में आयेगी पीछे शरीर भी नहीं रहेगा, इनमें से किस रूप को और कैसे तुम पकड़ोगे और किस पर अपने को केन्द्रित करोगे। यही दृष्टान्त सन्तान के लिये भी है। आज वह बालक है, उसकी अठखेलियाँ, उसकी तोतली भाषा हमको अपनी ओर आकर्षित करती है पर वह सदैव ऐसा ही नहीं करेगा, दिन-दिन बदलेगा, उसके शरीर का आकार बदलेगा, उसके भाव बदलेंगे। उसकी भाषा बदलेगी, उस पर बाल्यावस्था के बाद जवानी आयेगी, फिर बुढ़ापे के शिकंजे में कसा जायगा, इस प्रकार बराबर परिवर्तन होता जायेगा। इनमें से तुम किसकी उपासना करोगे, किस रूप को पकड़ के अपने दिल में बिठाओगे। उपनिषद्कार ऋषि यह उपदेश दे रहे हैं कि इन सबकी ओर से अपना चित्त हटा के केवल भगवद् चरणों में लगाओ—वह ही एक ‘सत्’ है और उसकी उपासना जीव का कल्याण करती है। यही उस प्रश्न का उत्तर है कि ‘हम ईश्वर की उपासना क्यों करें। इसके लिए किसी दूसरी देखी-भाली अपनी प्यारी वस्तु को क्यों न छाँट लें’ उपनिषद् आगे और भी कहता है :—

अन्य देवाहुः सम्भवादन्यदाहुर सम्भवात्।

इति शुश्रुम धीराणाँ ये नस्तद्विचि चक्षिरे॥

अर्थ—चैतन्य और एक रस रहने वाली (आत्मा) की उपासना से और फल मिलता है और प्रकृति के बने हुये पदार्थों, शरीर इत्यादि की उपासना का और (दूसरा) फल मिलता है। ऋषि कह रहे हैं कि—ऐसा बुद्धिमान धीर पुरुषों से हमने सुना है और उन्होंने खोल के अर्थात् स्पष्ट हमको बतलाया है।

इस मन्त्र में भी यही संकेत आया है कि संसार से चित्त हटा कर प्रभु को अपने हृदय में बिठाओ, इसी से जन्म सफल होता है, आत्मा का उद्धार होता है। परन्तु शरीर को भूल बैठे और सब कुछ त्याग के केवल आत्मा का ही देखता रहे, यह कैसे सम्भव है? शरीर रखते हुए शरीर की भी खबर रखनी होगी, यदि शरीर स्वस्थ नहीं है, शरीर निर्बल है तो उपासना भी नहीं बन पड़ेगी कोई साधन मन की एकाग्रता का नहीं हो सकेगा, ध्यान व पूजन भी ऐसा निर्बल मनुष्य नहीं कर सकेगा, तो ऐसी दशा में क्या करना उचित है? इसका उपाय भी उपनिषद्कारों ने बताया है :—

सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयं सह।

विनाशेन मृत्युँतीर्त्वा सम्भूत्या ऽमृतम्श्नुते॥

अर्थ—जो आत्मा को और प्रकृति के बने हुए इस नश्वर शरीर का जानता है, दोनों को साथी समझ के दोनों की उपासना करता है, आत्मा और शरीर दोनों को बल देता है, शरीर और आत्मा दोनों के रोगों को दूर कर उन्हें स्वस्थ बनाता है, वही अमरता को प्राप्त होता है।

यह मन्त्र सारी शंकाओं का समाधान करता है, वह कहता है कि वीर्य रक्षा से, मिथ्या आहार-विहार के त्याग से, प्रत्येक कर्म में संयम रखने से, नियमपूर्वक अपना जीवन-व्यवहार करने से, शरीर में बल आता है और ऐसा निरोग शरीर ही साधन में सफलता प्राप्त कर सकता है। क्षीण वीर्य और निर्बल मनुष्य एकाग्रता नहीं प्राप्त कर पाता, उसकी उपासना ढीली रहती है, उसका चिंतन और ध्यान एक रस नहीं चल पाता है, वह आत्म चेष्टा में हिम्मत हार बैठता है, वह मन के धक्के का सहन नहीं कर सकता, विघ्न आने पर उनका मुकाबला नहीं कर सकता, बलहीन में साहस और उत्साह की कमी रहती है, उसका इरादा अथवा संकल्प मजबूती लिए नहीं होता, करता है फिर छोड़ देता है, ऐसों को अमरधाम में पहुँचना एवं मन पर अधिकार करके आत्मसाक्षात्कार करना बड़ा ही कठिन हो जाता है। वह सफल हो सकेगा या नहीं इसमें सन्देह ही रहता है। इसलिए ठीक रास्ता जिज्ञासु के लिए यह है कि—वीर्य रक्षा करके और रोगों से बचा करके शरीर को बलवान बनाओ फिर आत्म साधनों में लग पड़ो और उस अवस्था में अपने को पहुँचाओ जहाँ आगे पीछे, ऊपर नीचे, दाएँ-बाएँ एक शुद्ध चैतन्य पुरुष की सत्ता भरी हुई दृष्टि-गोचर हो, प्रत्येक वस्तु उसके रंग में रंगी हुई दिखाई दे, प्रत्येक पदार्थ में उसके रूप की झलक झलकती हुई नजर आवे, प्रकृति के प्रत्येक कण तुम्हारे लिए दर्पण बन जाये जिसमें प्यारे का मुखड़ा चमकता हुआ जान पड़े। तुममें तुमसे बाहर, औरों में औरों से बाहर वही एक तत्व भरा हुआ अनुभव हो, वह सबमें और सब उसमें प्रत्यक्ष मालूम देने लगें, इसका नाम ही ‘ब्रह्मचर्यावस्था’ है और यहाँ तक पहुँचा हुआ ही ‘ब्रह्मचारी’ है। वीर्य रक्षा, विचार संयम और इच्छा शक्ति को बलवान बनाने से और निरन्तर अपना उद्योग जारी रखने से आगे चल कर कुछ काल में साधकों पर यह अवस्था आ जाती है। मार्ग दर्शक गुरु यदि अनुभवी है तो उसमें समय की कुछ बचत हो जाती है, जल्दी हो जाती है।


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