नारी का समुचित सम्मान

August 1952

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वद नारीं विनाकोऽन्यो निर्माता मनु सन्ततेः।

महत्वं रचन शक्तेः स्वास्यानार्याहि ज्ञायताम्॥

अर्थ—मनुष्य की निर्मात्री नारी ही है। नारी की रचना शक्ति का महत्व समझा जाना चाहिए।

मनुष्य की उत्पत्ति नारी के उदर से ही होती है। बालक की आदि गुरु भी उसकी माता ही होती है। पिता के वीर्य की एक बूँद तो निमित्त कारण है—बाकी बालक के समस्त अंग-प्रत्यंग माता के रक्त से ही बनते हैं। उस रक्त में जैसे गुण, संस्कार, स्वभाव होंगे, जैसी स्वस्थता, प्रतिभा, विचारधारा एवं अनुभूति होगी उसी के अनुसार बालक का शरीर मस्तिष्क एवं स्वभाव बनेगा। नारियाँ यदि अस्वस्थ, अशिक्षित, अविकसित, असंस्कृत, पराधीन एवं दीन-हीन रहेंगी तो उनके द्वारा उत्पन्न हुए बालक भी इन्हीं दोषों से युक्त होंगे। ऊसर खेत में अच्छी फसल नहीं पैदा हो सकती।

अच्छे फलों का बाग लगाना हो तो अच्छी भूमि की आवश्यकता होगी। यदि मनुष्य जाति अपनी उन्नति चाहती है तो पहले नारी को शारीरिक, बौद्धिक, सामाजिक, आर्थिक, क्षेत्रों में प्रतिभावान एवं सबलता, सक्षमता, सद्बुद्धि, सद्गुण और महानता के संस्कारों का विकास हो सकता है। नारी को पिछड़ी हुई स्थिति में रखना अपने पैरों में आप कुल्हाड़ी मारना है।

जन समाज दो भागों में बाँटा हुआ है (1) नर (2) नारी। नर की उन्नति सुविधा एवं सुरक्षा के लिए प्रयत्न किया जाता है परन्तु नारी हर क्षेत्र में पिछड़ी हुई है। फलस्वरूप हमारा आधा राष्ट्र, आधा समाज, आधा संसार, आधा परिवार, आधा जीवन पिछड़ा हुआ रह जाता है। जिस रथ का एक पहिया बहुत बड़ा और एक बहुत छोटा हो, जिसके हल में एक बैल बहुत बड़ा और एक बहुत छोटा जुता हो, उसके द्वारा सन्तोषजनक कार्य नहीं हो सकता। हमारा देश, समाज, समुदाय, तब तक सच्चे अर्थों में विकसित नहीं कहा जा सकता जब तक कि नारी को भी नर के समान ही अपनी शक्ति बुद्धि और प्रतिभा को प्रकट करने का अवसर प्राप्त न हो।

आज नारी के प्रति नर का अविश्वास, बन्धन, संकीर्ण भाव अत्यधिक बढ़ा हुआ है। हम अपनी बहिन, बेटी, माता, पत्नी सभी के प्रति अविश्वास करते हैं और यह सोचते हैं कि यदि इन्हें बन्धन रहित, स्वाभाविक जीवन जीने दिया तो ये दुराचारिणी हो जायेंगी। इसी आशंका से प्रेरित होकर उनकी मनुष्योचित सीधी-सादी गतिविधियों पर भी भारी प्रतिबन्ध लगाये जाते हैं। अपने प्रति, अपनी आत्मा के प्रति, अविश्वास करना जितना निष्कृष्ट कार्य है, उससे भी पतित दृष्टिकोण यह है कि हम अपनी बहिन बेटियों को अविश्वस्त समझें। ऐसी पतित मनोवृत्ति, भारतीय संस्कृति की महानता एवं उदारता के सर्वथा प्रतिकूल है।

गायत्री का पाँचवाँ अक्षर “व” यह बताता है कि नारी के प्रति नर का दृष्टिकोण उदार, तथा पूज्य रहना चाहिए। नारी में नर की अपेक्षा सात्विकता की मात्रा बहुत अधिक है, उसमें करुणा, सेवा, प्रेम, दया, सहृदयता, सहानुभूति, कृतज्ञता, एवं ममता की भावना पुरुष की अपेक्षा कहीं अधिक है इसी प्रकार चरित्र, संयम, सदाचार और पवित्रता की दृष्टि से भी नर की अपेक्षा उसका स्थान बहुत ऊँचा है, इसलिए कोई कारण नहीं कि पुरुष अपनी अपेक्षा नारी को हीन समझे, उस पर अविश्वास करे और उसके समुचित विकास में बाधक बनें।

गायत्री माता को पुत्रों की अपेक्षा पुत्रियाँ अधिक प्रिय हैं, क्योंकि उनमें वह सतोगुण कहीं अधिक है जो नटखट लड़कों में नहीं होता है। इसलिए गायत्री माता का सन्देश और आदेश है कि नारी को अशक्त, अशिक्षित, अविकसित एवं पराधीन स्थिति में न रखकर उसे सभी दृष्टिकोण से बलवान, विकसित एवं आत्मनिर्भर बनाने का प्रयत्न किया जाय। नर के ऊपर नारी का बहुत ऋण है। अपने शरीर का ही एक भाग देकर बच्चे का शरीर बनाने वाली और अमित कष्ट सहकर उसका पोषण करने वाली माता के रूप में उसका भारी ऋण है। अपना आत्मार्पण करके अर्धांगिनी बनने वाली नारी का उपकार भी कम नहीं है। पुत्री और बहिन के रूप में भी वह अपनी सौम्य भावना से हमें आह्लादित करके ऋण भार से ढ़क देती है। इन उपकारों का बदला पुरुष अपना सब कुछ उसके चरणों पर अर्पित करके भी नहीं चुका सकता। इतने पर भी यदि पुरुष कृतघ्न बने और नारी के प्रति हेय भाव रखे उसके जीवन विकास में बाधक बने तो यह सर्वथा अनुचित ही है।

प्रकृति ब्रह्म, सीताराम, लक्ष्मीनारायण, राधे-श्याम, गौरीशंकर आदि नामों में जैसे नारी का स्थान प्रथम और नर का द्वितीय है उसी प्रकार श्रेष्ठता और स्वाभाविक महानता की दृष्टि से हमारे सामाजिक जीवन में भी नारी का स्थान प्रथम है। उसका यदि समुचित सम्मान किया जाय, उसकी उन्नति और सुविधा का समुचित अवसर दिया जाय तो वह संसार के लिए वरदान बन सकती है। पुरुष की लड़ाकू और स्वार्थी वृत्ति ने प्रभुता पाकर आज संसार में सर्वनाश की विभीषिका उत्पन्न कर दी है। पर यदि नारी शक्ति का विकास हो जाय तो वह इस व्यापक असुरता पर वह सहज ही नियन्त्रण स्थापित कर सकता है। और आज नरक बना हुआ संसार कल सहृदयता, सरलता, ममता, कला और सरसता से ओत-प्रोत बन कर स्वर्ण समान शान्तिदायक हो सकता है।

राष्ट्र ऊँचा उठाने की अनेक योजनाएँ बन रही हैं। मनुष्य को अधिक अच्छा बनाने के लिए अनेकों प्रयत्न हो रहे हैं, उन सबका तब तक कोई विशेष परिणाम नहीं निकल सकता जब तक कि नारी जाति वर्तमान दुर्दशा ग्रस्त दशा में पड़ी हुई है। यदि खेत ही अच्छा न होगा तो उसमें अच्छी फसल उपजने की क्या आशा की जा सकती है। सुसंस्कृत और सुविकसित नारी के द्वारा ही महान पुरुष पैदा हो सकते हैं, कोई देश या समाज रुपये पैसे से नहीं, वहाँ पुरुषों से ही वास्तविक धनी बनता है। जिस देश की नस्ल बिगड़ी हुई है, जिसकी कुसंस्कार ग्रस्त माताएँ निकृष्ट मनोवृत्ति के बालक उत्पन्न करती हैं उस देश या जाति के पास चाहे कितनी ही धन दौलत क्यों न हो वह सदा पतित दशा में ही रहेगी। बीमार और कमजोर पर सदा अधिक ध्यान दिया जाता है। उसकी सेवा, शुश्रूषा, चिकित्सा एवं परिचर्या के लिए अधिक प्रयत्न किया जाता है, इसी प्रकार आज पुरुष की अपेक्षा स्त्री जाति की सुव्यवस्था की ओर अधिक ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है।

गायत्री माता हमारे दृष्टिकोण में भारी परिवर्तन उपस्थित करती है। यह स्त्री जाति के प्रति पूज्य भावना रखने और उसके साथ तदनुरूप ही व्यवहार करने का आदेश करती है। पश्चिमी देशों में स्त्री को समानता का आन्दोलन चल रहा है। भारतीय संस्कृति में नारी को पहले से ही समानता की अपेक्षा अनेक गुना उच्च ‘पूज्य’ स्थान दिया गया है। उसी दृष्टिकोण को अपनाकर हम अपने देश और समाज का सच्चा कल्याण कर सकते हैं।


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