शास्त्र क्या है?

August 1952

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(श्री डॉ. भगवानदास जी)

‘शास्त्र क्या वस्तु है?’ इसको पहले देखना चाहिए। शायद इसमें किसी को आपत्ति न होगी, यदि कहा जाय कि ‘शास्त्र’ शब्द से जो ग्रन्थ आज कल समझे जाते हैं, वे सब, किसी न किसी मानव की ‘बुद्धि’ से ही उत्पन्न हुए हैं।

न जातु जनयन्तीह शास्त्राणि मनजान् क्वचित्,

मनुजाः एव शास्त्राणि रचयन्ति पुनः पुनः,

बुद्धयैव रचना कार्य तच्च संपाद्यते सदा।

शास्त्र को पुरुष उत्पन्न करते हैं, पुरुष को शास्त्र नहीं।

न बुद्धिर स्तीत्यपि बुद्धिसाष्यं,

न तत्प्रभुत्वं तु कदापि बाध्यं।

‘बुद्धि’ की गति यहाँ नहीं है—यह निर्णय भी हमारी आपकी बुद्धि ही करती है। बुद्धि के प्रभुत्व का बाधक कभी हो नहीं सकता,यदि है, तो वह भी बुद्धि ही है। यदि कहा जाय कि हमारी बुद्धि से अमुक सज्जन ऋषि महर्षि की बुद्धि अच्छी है, मान्य है—तो यह निर्णय भी हमारी ही बुद्धि करती है।

यथैव कश्चित् स्वाँ छायाँ न ह लंघयितुँ क्षमः,

तथैव नहि कश्चित्स्वाँ बुद्धि लंघयितुँ क्षमः।

कोई भी अपनी छाया को नहीं लाँघ सकता, न अपनी बुद्धि को।

विचारस्य खण्डनमपि विचारेणैव क्रियते।

विचार का खण्डन भी विचार ही करता है।

गीता का यह श्लोक अक्सर सुनने में आता है—

तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते, कार्याकार्यव्यवस्थितौ,

क्या कार्य है, क्या अकार्य—इसके निर्णय के लिए शास्त्र प्रमाण है। इस स्थान पर गीता के पढ़ने वाले के मन में शंका उठ सकती है—

किंतु किं में प्रमाणं स्यात् शास्त्राशास्त्रविनिर्णये?

माना कि शास्त्र से निर्णय करो, पर किस शास्त्र से? कौन शास्त्र है, कौन अशास्त्र है, कौन मानने योग्य है, कौन नहीं? इसका निर्णय कौन करे? यहूदियों के लिए ‘ओल्ड टेस्टामेण्ट’, ‘बाइबल’ का पूर्वार्द्ध परम मान्य अपौरुषेय ब्रह्मवाक्य है, ईसाइयों के लिए ‘न्यू टेस्टामेन्ट’, ‘बाइबल’ का उत्तरार्ध, मुसलमानों के लिये कुरान, बौद्धों के लिए ‘त्रिपिटिक’ जैनों के लिए ‘जैनागम-सुत्त’ इत्यादि। सभी अपने-अपने को परम महामान्य शास्त्र बताते हैं। कौन निर्णय करे, सिवा अपनी ‘बुद्धि’ के, कि किसके पीछे चलना, किसके नहीं? और भी स्वयं वेदानुयायियों में बड़े मतभेद हैं, कोई ऋग्वेदी, कोई यजुर्वेदी, कोई सामवेदी, कोई अथर्ववेदी है, अन्य तीन अथर्व को बहुत अपवित्र मानते हैं, यहाँ तक कि ‘चार वेद’ की पंक्ति में से वह उठा ही दिया गया, और ‘त्रिवेदी’ भारत में मान्य रह गई, ऋक् और यजुः वाले, साम को भी अशुचि मानते हैं, यहाँ तक कि मनुस्मृति के प्रचलित पाठ में भी लिखा है—

सामवेदः स्मृतः पित्र्यः, तस्मात् तस्य अशुचिर् ध्वनिः।

(कहना कठिन है कि यह क्षेपक है या सचमुच मूल ग्रन्थ में था)। प्रत्युत इसके, गीता में कहा है, ‘वेदानाँ सामवेदोऽहं’। इसका निर्णय कौन करे, सिवा बुद्धि के? ‘शास्त्र’ माने हुए भिन्न-भिन्न ग्रंथों में लिखे हुए ऐसे विरुद्ध वाक्यों की समरसता को अवसर-भेद, प्रसंग-भेद आदि कह कर, व्याख्याता लोग, अपनी बुद्धि के ही द्वारा, स्थापित करते हैं। गीता का द्वितीय अध्याय तो एकमात्र ‘बुद्धि’ की महिमा का गीत है। जितनी बार बुद्धि शब्द का प्रयोग गीता में हुआ है, उतनी बार केवल ‘आत्मा’ और ‘अहं’ (मा, मे, मम) का हुआ है, और किसी शब्द का नहीं [अव्ययों को छोड़ कर]। महामान्य गायत्री मन्त्र में ‘धियो यो नः प्रचोदयात्’, बुद्धि को प्रेरणा करे, परमात्मा सद्बुद्धि दे—ऐसी प्रार्थना की है, शास्त्र दे-नहीं, सद्बुद्धि मिलेगी तो हम स्वयं शास्त्र बना लेंगे। यह भी वैदिक मन्त्र की प्रार्थना है-’स नो बुद्ध्या शुभया संयुनक्तु’, ‘शास्त्रेण संयुनक्तु’ नहीं इत्यादि।

‘शास्त्रवादी’ कहते है कि ‘शास्त्रीय’ विरोधों का परिहार, ‘शास्त्रीय’ सिद्धान्त का निर्णय करना चाहिए। ठीक है, पर कौन करे? आपकी और हमारी और सज्जन मित्रों की बुद्धि ही न? जो दशा ‘श्रुति’ की [चिरकालीन परम्परा से ‘सुनी’ हुई बात की], ‘वेद’ पदार्थ की है,उससे भी अधिक बिगड़ी दशा ‘स्मृतियों’ की (वृद्धों द्वारा ‘याद’ की हुई बातों की) और अन्य ‘धर्म-शास्त्रों’ की है। वहाँ तक कि वेदव्यास जी ने यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में युधिष्ठिर के मुख से कहलाया है—

तर्कोऽप्रतिष्ठः, श्रुतयो विभिन्नाः,

नैको ऋषिः (स्मृतिकर्त्ता) यस्य वचः प्रमाणं,

धर्मस्य तत्व निहितं गुहायाँ,

‘महाजनो’ येन गतः स पन्थाः।

तर्क की कहीं समाप्ति नहीं, श्रुतियाँ विविध, परस्पर भिन्न, एक भी स्मृतिकार ऋषि नहीं, जिसकी ही बात मानी जाय, धर्म का तत्व तो मनुष्य की हृदय गुहा में (उसकी बुद्धि के प्रेरक आत्मा के, रूप में) छिपा हुआ है। जिस ‘महा-जन’ समूह में, जनता में, समाज में, रहना हो, वह जन साधारण ‘लोकमत’, भूयसीयन्याय से, ‘मेजारिटी ओपिनियन’, कसरत राय से, जिस रास्ते पर चले, वही रास्ता ठीक है धर्म है। महाजन शब्द का अर्थ ‘महापुरुष’, बड़ा आदमी’ नहीं है, जैसा भ्राँति से, बहुधा समझा जाता है, बल्कि ‘जनता’, ‘जन-समूह’, ‘पब्लिक’, जो ही अर्थ आज तक गुजराती भाषा में, इस शब्द का चला आता है। (‘मानव धर्म-सार’ में इसके समर्थक, कई पुराने संस्कृत ग्रन्थों से बहुतेरे उदाहरण दिये गये हैं।) ‘नैको ऋषिर्यस्य मनं न भिन्नं’ ऐसा भी पाठ है, अर्थ वही निकलता है। जितने ऋषि उतने मत, प्रत्येक ऋषि का मत दूसरों से भिन्न होता है’, विवाद-ग्रस्त विषयों में। जब ऋषियों की प्रामाणिकता, इस प्रकार, संशयित हो गई, तब ‘महाजन’ शब्द का अर्थ ‘महा-पुरुष’ करके, उसको प्रमाणिक निर्णायक कहना कैसे उचित हो सकता है? क्या ऋषि-महर्षि भी ‘महा-पुरुष’ नहीं? तो और कौन?

निष्कर्ष यह है कि, कितना भी अधिक पूजित या पूजनीय, ‘शास्त्र’ नामक कोई ग्रन्थ हो, जब उलझन पड़ती है तब, अन्ततोगत्वा, किसी न किसी मनुष्य की बुद्धि ही उसको सुलझाती है। ‘शास्त्र’ से ऊपर ‘बुद्धि’ है, शास्त्र का निर्माण ‘बुद्धि’ करती है, बुद्धि का निर्माण शास्त्र नहीं करता। और भारतवर्ष की ‘महा-जन-बुद्धि’ ने निर्णय कर रखा है कि—

शास्ति यत् साधनोपायं चतुर्वर्गस्य निर्मलं,

तद्वाधनापायं, एषा शास्त्रास्य शास्त्रता।

तस्मात्, कौन्तेय!, विदुषा, धर्माधर्मविनिश्च्ये,

बुद्धिमास्थाय लोकेस्मिन् वर्त्तितव्यं कृतात्मना।

धर्मः प्रतिविधातव्यो बुद्धया राज्ञा ततस्ततः।

बुद्धेः समवहारोयं, कविभिः संभृतं मधु।

(म. भा. शाँ. अ. 141, 142)

उत्सर्गेणापवादेन, ऋषिभिः कपिलादिभिः,

अध्यात्मचिंतामाश्रित्य, शास्त्राण्युक्त नि, भारत!

(अ. 360)

वही शास्त्र है जो मूल्य को चतुर्वर्ग, अर्थात् धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष चारों पुरुषार्थों के साधन का उपाय, और उनके बाधकों का अपाय (दूर करने का प्रकार) सिखावे, ‘शासै’। धर्म क्या है, अर्थ क्या है, इसका निर्णय निश्चय, बुद्धि से करके, कृतात्मा कृतबुद्धि आत्मवान् स्वावलम्बी स्वयं प्रज्ञ मनुष्य को लोक-व्यवहार निबाहना चाहिए। राजा का कार्य है कि बुद्धियुक्त ‘धर्म’ बनाये, ऐसे धर्म का विधान करे, जिससे प्रजा का ‘धारण’ हो, सब प्रकार का भला हो।

धारणार्द्धमः इत्याहुर्, धर्मो धारयति प्रजाः।

इसलिए कपिल आदि महर्षियों ने ‘अध्यात्मज्ञान’ को, जीवात्मा रूपी मनुष्य के चित्त और देह की प्रकृतियों के ज्ञान को, अपनी बुद्धि में रखकर, शास्त्र रचे, और उनमें उत्सर्ग अर्थात् सामान्य नियम और अपवाद अर्थात् उत्सर्गों के बाधक विशेष नियम भी, कहे। जैसे मधुमक्खी शहद इकट्ठा करती है, वैसे ही, कवियों ने, अपनी बुद्धियों से जो तत्व-तत्व बातों को एकत्र कर दिया है, उसी समूह को अपनी बुद्धियों के व्यवहार को शास्त्र कहते हैं। ऐसे शास्त्र का, ‘बुद्धि-निश्चित’ सिद्धान्त यह है कि—

देश-काल-निमित्तानाँ भेदैर्धर्मो विभिद्यते,

अन्यो धर्मः समस्थस्य, विषमस्थस्य चापरः,

न त्वेवैकान्तिको धर्मः, धर्मोहि आवस्थिकः स्मृतः

(म. भा. शाँ.)

देश-काल निमित्त के भेद से धर्म में भेद होता है, धर्म ऐकान्तिक, आत्यंतिक, एकाकार, एकरूप, अत्यन्त अटल अपरिवर्ती नहीं है, प्रत्युय, आवस्थिक है, अवस्था बदलने से बदलता रहता है। प्रत्यक्ष ही, फौजी सिपाही का धर्म दूसरा, किसान का दूसरा, अध्यापक का दूसरा, दुकानदार का दूसरा, एक ही आदमी का, अच्छे दिनों में दूसरा और मुसीबत के दिनों में दिनों में दूसरा। किस व्यवस्था में क्या धर्म है, इसका निर्णय सात्विकी बुद्धि ही ठीक-ठीक कर सकती है। ऐतरेय आरण्यक में व्याख्यान है कि, जब ऋषि लोग इस लोक से जाने लगे तब मनुष्यों ने उनसे पूछा कि अब हम लोगों को, कठिनाई के समय, उपदेश देने वाला ऋषि कौन होगा, तब ऋषियों ने उनको ‘तर्क’ दिया, और कहा कि—यही तुम लोगों का ‘ऋषि’ होगा। अर्थात्,तर्क करना बुद्धि का काम है, अपनी बुद्धि पर भरोसा रखो, अपने पैरों पर खड़े हो, दूसरों का ही मुँह मत ताकते रहो, यह मत चाहो कि पुराने लोग सदा तुमको गोद में लिये रहें, अपने लिए समयानुसार, नए-नए शास्त्र रचते रहो। आखिर यूरोपीय मानव भी वैसे ही ब्रह्मदेव की सन्तान हैं, जैसे भारतीय। पर अधिक बुद्धिमान् हैं नए-नए आश्चर्यकारी शास्त्र बना ही रहे हैं, जिनके आगे सब होम-हवन-यज्ञ आदि का कर्मकाण्ड थोथा-सा-जान पड़ता है, जिनके बल से उनकी गति वैसी अप्रतिहत हो रही है, जैसी एक ओर रावण आदि की, और दूसरी ओर, कृष्ण, साल्व आदि की, जिनके बल से ऐसे आश्चर्य के कम कर रहे हैं, जिनके समान कार्य पुराणों में भी जल्दी नहीं मिलते हैं।

यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा, शास्त्रं तस्य करोति किं?

लोचनाभ्याँ विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति?

जिसको स्वयं प्रज्ञा नहीं, बुद्धि नहीं, जो विवेक विचार से शास्त्र को पढ़ और जाँच नहीं सकता, उसको शास्त्र से क्या लाभ होगा? जिसके आँख नहीं, वह आइना देख कर क्या करेगा? यह वाक्य भी परम शास्त्र ही है।


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