गायत्री-उपनिषद्

August 1952

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वेदों से ‘ब्राह्मण’ ग्रन्थों का आविर्भाव हुआ है। प्रत्येक वेद के कई-कई ब्राह्मण थे, पर अब उनमें से थोड़े से ही प्राप्त होते हैं। काल की कुटिल गति ने उनमें से कितनों को लुप्त कर दिया।

ऋग्वेद के दो ब्राह्मण मिलते हैं शाँखायन और ऐतेरय। शाँखायन को कोषीतकी भी कहते हैं।

यजुर्वेद के तीन ब्राह्मण प्राप्य हैं- शतपथ ब्राह्मण, कान्व ब्राह्मण, तैत्रिरीय ब्राह्मण।

सामवेद के 11 ब्राह्मण उपलब्ध हैं, आर्षेय ब्राह्मण, जैमिनीयार्षेय ब्राह्मण, संहितोपनिषद् ब्राह्मण, मन्त्र ब्राह्मण, वंश ब्राह्मण, सामविधान ब्राह्मण, षडविंश ब्राह्मण, दैवत ब्राह्मण, ताण्ड्य ब्राह्मण, जैमिनीय ब्राह्मण, जैमनीय उपनिषद् ब्राह्मण।

अथर्ववेद का केवल मात्र एक ब्राह्मण मिलता है, जिसका नाम है गोपथ ब्राह्मण। गोपथ की 31 से लेकर 38 तक आठ कंडिकाएं गायत्री उपनिषद् कहलाती हैं। इनमें मैत्रैय और मौदगल्य के परस्पर विवाद के उपाख्यान द्वारा गायत्री का महत्वपूर्ण रहस्य समझाया गया है। साधारण शब्दार्थ के अनुसार बुद्धि प्रेरणा की प्रार्थना ही गायत्री का तात्पर्य है परन्तु इस उपनिषद् में ब्रह्म विद्या एवं पदार्थ विद्या से सम्बन्ध रखने वाले कई रहस्यों पर प्रकाश डाला है।

अथ गायत्री उपनिषद् :-

एतद्ध स्म एतद् विद्वाँसमेकादशाक्षं।

मौदगल्यं ग्लाको मैत्रेयोऽभ्याजगाम॥

एकादशाक्ष मौदगल्यके समीप लाव मैत्रेय आए।

स तस्मिन् ब्रह्मचर्य बसतीति विज्ञायोवाच।

किं स्विन्मर्या अयं तन्मौद्गल्योऽध्येति।

यदस्मिन्ब्रह्मचर्य वसतीति॥

मौद्गल्य के ब्रह्मचारी को देखकर और उसे सुना कर ग्लाव ने (उपहास उड़ाते हुए) कहा कि मौद्गल्य अपने इस ब्रह्मचारी को क्या पढ़ाते हैं? अर्थात् कुछ नहीं पढ़ाते हैं।

तद्धि मौद्गल्यस्यान्तेवासी शुश्राव।

स आचार्यायाब्रज्या चचष्टे॥

मौद्गल्य के ब्रह्मचारी ने इस बात को सुन कर अपने आचार्य के पास जाकर कहा—

दुरधीयानं वा अयं भवन्तमवोचद्यऽयमधातिथिर्भवति।

जो आज अतिथि हुए हैं, उन्होंने आपको मूर्ख कहा है।

किं सौम्य विद्वानीति—

क्या वह विद्वान् हैं? मौद्गल्य ने पूछा।

त्रीन्वेदान् व्रतेभो इति।

हाँ, वे तीनों वेदों के प्रवचन कर्त्ता हैं, शिष्य ने कहा—

तस्य सौम्य यो विद्वान् विप्रष्ठो विजिगीषोऽन्ते वासी तं मेऽऽह्मयेति।

हे सौम्य! उसका जो विद्वान, सूक्ष्मदर्शी तथा विजय चाहने वाला शिष्य हो तुम उसे मेरे पास ले आओ।

तमाजुहाव। तमभ्युवाचा साविति भो इति।

तब वह उसे बुला लाया और बोला, वे ये हैं।

किं सौम्य त ब्राचाषर्योऽध्येतीति।

मौद्गल्य ने उससे पूछा—हे सोम्य! तुम्हारे आचार्य क्या पढ़ाते हैं?

त्रीन्वेदान व्रूते भो इति।

उसने उत्तर दिया—वे तीनों वेदों का प्रवचन करते हैं।

यन्नु खलुसौम्यास्माभिः सर्वे वेदा मुखतो गृहीताः,

कथं ते एवमाचार्यों भाषते, कथं नु स चेत्सौम्य।

दुरधीयानो भविष्यति, आचार्यो वावब्रह्मचारी,

ब्रह्मचारिणे सावित्रीं प्राह, इति वक्ष्यति॥

हे सौम्य! यदि वे यह जानते होंगे तो कहेंगे कि आचार्य अपने ब्रह्मचारी को जिसका उपदेश देते हैं वह सावित्री है। अर्थात् जो गायत्री का शब्दार्थ, स्थूल अर्थ है उसे ही बता देंगे।

तत्वं व्रूयाद दुरधीयानं तं वैभवानन्मौद्गल्य

मवोचत्, स त्वाँ यं प्रश्नमप्राक्षीन्न तं व्यवोचः।

पुरा संवत्सरादार्तिमारष्यिसीति।

तब तुम कहना, कि आपने तो हमारे आचार्य मौद्गल्य को मूर्ख बताया था, वे आपसे जो प्रश्न पूछते हैं, उसे आप नहीं बतला सके, एक वर्ष के भीतर ही आपको कुछ कष्ट होगा।

शिष्टाः शिष्टेभ्य एवं भाषेरन्। यं ह्येनमहंप्रश्न पृच्छामि न तं विवक्ष्यति, नह्येनमध्येतीति॥

हे सौम्य! हमने भी वेद अध्ययन किये है फिर तुम्हारे आचार्य मुझे मूर्ख क्यों कहते हैं? क्या शिष्टों को शिष्टों के लिये ऐसा कहना ठीक है? हम उनसे जो प्रश्न पूछेंगे, वे उसे न बतला सकेंगे, वे उसे पढ़ाते भी न होंगे।

स ह मौद्गल्यः त्वमन्तेवासीनमुवाच-परे हि सौम्य,

ग्लावं मैत्रेयमुपसीत् अधीहि भोः सावित्रीं गायत्रीं

चतुर्विशति योनिं, द्वादश मिथुनाँ, यस्याभृग्वगिय्शश्च क्षुर्यस्याँ सर्वमिदं श्रितं ताँ भवान् प्राव्रवात्विति।

तब उन मौद्गल्य ने अपने ब्रह्मचारी से कहा—सौम्य! तुम जाओ, ग्लाव मैत्रेय के समीप उपस्थित होकर कहो, कि बारह मिथुन तथा चौबीस योनि वाली भृगु और अंगिरा जिसके नेत्र हैं तथा जिसके आश्रित यह सब हैं उस सावित्री गायत्री को हमें पढ़ाइये।

इस काण्डिका में मौद्गल्य ने मैत्रेय से गायत्री का रहस्य पुछवाया है। साधारण अर्थ तो सभी जानते हैं कि इस मन्त्र में परमात्मा से यह प्रार्थना की गई है कि हमें सद्बुद्धि की प्रेरणा कीजिये ऐसे मन्त्र तो श्रुति स्मृतियों में अनेकों भरे पड़े हैं जिनमें इसी प्रकार की या इससे भी उत्तम रीति से बुद्धि विवेक आदि के लिये प्रार्थनाएँ की गई हैं। फिर गायत्री में ही ऐसी क्या विशेषता है जिसके कारण उसे वेदमाता कहा गया और समस्त श्रुति क्षेत्र में इतना अधिक महत्व दिया गया। इसका कोई न कोई बड़ा कारण अवश्य होना चाहिये। मौद्गल्य ने उसी रहस्य एवं कारण को मैत्रेय से पुछवाया।

स तत्राजगाम यत्रेतरो बभूव। तंहपप्रच्छ स ह न प्रतिपेदे॥

मौद्गल्य का शिष्य मैत्रेय के पास आया, उसने उनसे पूछा, किन्तु वे उसका उत्तर न दे सके।

तं होवाच दुरधीयानं तं वै भवान्मौदागल्यमवो

चत्सत्वायं प्रश्नमप्राक्षीन्न तं व्यवोचेः पुरा

संवत्सरादर्तिमारिष्यसीति।

उसने कहा, आपने मौद्गल्य को मूर्ख कहा था उन्होंने जो आपसे पूछा, आप उसे नहीं बतला सके इसलिये एक वर्ष में आपको कष्ट होगा।

स ह मैत्रेयः स्व नन्तेवासीन् उवाच—यथार्थ भवन्तो यथागृहं यथामनी विप्रसृज्यन्ताम् दुरधींयानं व्यवोचं, तनुपैष्यामि, शान्ति करिष्यामीति।

तब मैत्रेय ने अपने शिष्यों से कहा—अब आप लोग अपनी-अपनी इच्छानुसार अपने अपने घरों को लौट जाइये, मैंने मौद्गल्य को मूर्ख कहा था, पर उन्होंने जो पूछा है मैं उसे नहीं बतला सका हूँ, मैं उनके पास जाऊँगा और उन्हें शान्त करूंगा।

स ह मैत्रेयः प्रातः समित्याणिमौद्गल्यमुव- ससादासौ व अहं भो मैत्रेय इति।

दूसरे दिन प्रातः काल हाथ में समिधा लेकर मैत्रेय मौद्गल्य ऋषि के पास आये और कहा—मैं मैत्रेय आपकी सेवा में आया हूँ।

किमर्थमिति—

किसलिए?—उन्होंने पूछा।

दुरधीयानं वा अहं भवन्तमवोचं त्वं मा य प्रश्नसप्राक्षीर्न तं व्यवोचं, त्वामुपैष्यामि, शान्तिं करिष्यामिति।

मैत्रेय ने कहा—मैंने आपको मूर्ख कहा था, आपने पूछा मैं उसे न बतला सका, अब मैं आपकी सेवा में उपस्थित होऊँगा और आपको शान्त करूंगा।

स होवाच—अत्र वा उपेतं च सर्व च कृतं पापकेन त्वा यानेन चरन्तमाहुः अथोऽयं मम कल्याणस्तं ते ददामि तेन याहीति।

मौद्गल्य ने कहा—आप यहाँ आये हैं, लेकिन लोग कहते हैं कि आप शुद्ध भावना से नहीं आये हैं, लेकिन मैं तुम्हें कल्याणकारी भाव देता हूँ, तुम इसे लेकर लौटो।

स होवाच। एतदेवात्रात्विषं चानृशस्य च यथा भवानाह। उपायामि त्वेव भवन्तमिति।

मैत्रेय ने कहा—आपका कहना अभयकारी एवं सदय है। मैं आपकी सेवा में समित्याणि होकर उपस्थित होता हूँ।

तं हो पेयाय—

तब वे विधिपूर्वक उनकी सेवा में उपस्थित हुये।

तं होपेत्य पप्रच्छ—

उपस्थित होकर उन्होंने पूछा :—

किंस्विदाहुर्भोः सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य कवयः किमाहु।

धियो विचक्ष यदि ताः प्रवेत्थ प्रचोदयन्सवितायाभिरेति॥

1—सविता का वरेण्यं किसे कहते हैं?

2—उस देव का भर्ग क्या है?

3—यदि आप जानते हों तो धी संज्ञक तत्वों को कहिये जिसके द्वारा सबको प्रेरणा देता हुआ सविता विचरण करता है।

तस्मा एतत्प्रोवाच—

उन्होंने उत्तर दिया—

वेदाँश्छंदाँसि सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य कवयोऽन्नमाहुः।

कर्माणि धियस्तदुते व्रवीमि प्रचोदयन्सवितायामिरेति॥

1—वेद और छन्द सविता का वरेण्य है।

2—विद्वान् पुरुष अन्न को ही देव का भर्ग बतलाते हैं।

3—कर्म ही वह घी तत्व है जिसके द्वारा सबको प्रेरणा देता हुआ सविता विचरण करता है।

तमुपसगृह्य पप्रच्छा धीहि भोः, कः सविता, का सावित्रो।

यह सुन कर उनने फिर पूछा, सविता क्या है? और सावित्री क्या है?

मौद्गल्य के अभिप्राय को मैत्रैय भली प्रकार समझ गये, उन्होंने सच्चाई के साथ विचार किया तो जाना कि मैं गायत्री के उस रहस्य को नहीं जानता हूँ जिसके कारण उसे इतना महत्व प्राप्त है। उन्होंने सोचा यह मूल कारण न मालूम हो तो उसके बाह्य प्रतीकों को जान लेने मात्र से कुछ लाभ नहीं हो सकता। इसीलिये वेदों का प्रवचन करने से तब तक क्या लाभ, जब तक कि उनका मूल कारण मालूम न हो। वह सोचकर उनने निश्चय किया कि पहले मैं गायत्री का रहस्य समझ लूँगा तब अन्य कार्य करूंगा। उन्होंने अपने विद्यार्थियों की छुट्टी कर दी और स्वयं नम्र बनकर समिधा हाथ में लेकर शिष्य भाव से मौद्गल्य के पास पहुँचे। विद्या प्राप्त करने की-विशेष रूप से अध्यात्म विद्या की-यही परिपाटी है कि शिक्षार्थी अपने अध्यापक के पास नम्र होकर-उनके प्रति श्रद्धा भाव मन में धारण करके पढ़ने जावे। इस आर्ष प्रणाली को छोड़कर आज के उच्छृंखल ‘स्टूडेण्ट’ जिन उजड्ड भावनाओं के साथ शिक्षा प्राप्त करते हैं, वह शिक्षा गुरु का आशीर्वाद न होने से निष्फल हो जाती है।

मैत्रेय ने पूछा गायत्री के प्रथम पद में आये हुये शब्दों का रहस्य बताइये (1) सविता का वरेण्यं क्या है? अर्थात् उस तेजस्वी परमात्मा को किससे वरण किया जाता है? ईश्वर किस उपाय से प्राप्त होता है? (2) उस देव का भर्ग क्या है? देव कहते हैं श्रेष्ठ को, भर्ग कहते हैं बल को, देव का भर्ग क्या है? अर्थात् श्रेष्ठ लोगों का बल क्या है? (3) यह धी क्या है? जिसके द्वारा परमात्मा सबको प्रेरणा करता है। अर्थात् वह माध्यम क्या है? जिसके द्वारा ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है। इन तीन तत्वों को मैत्रेय ने मौद्गल्य से पूछा।

इनका जो संक्षिप्त उत्तर मौद्गल्य ने दिया है वह बड़े ही मार्के का है। इन उत्तरों पर जितनी गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय उतना ही उसका महत्व प्रकट होता है। मौद्गल्य कहते हैं। (1) वेद और छन्द सविता का वरेण्य है। (2)अन्न को ही देव का भर्ग कहते हैं। (3)कर्म ही धी तत्व है, इसी के द्वारा परमात्मा सबको प्रेरणा देता है सबका विकास करता है। आइये, इन तीनों प्रश्नों पर पृथक-पृथक विचार करें—

(1)वेद अर्थात् ज्ञान, छन्द अर्थात् अनुभव। तत्व ज्ञान से, आत्म ज्ञान से परमात्मा की प्राप्ति होती है, पर वह ज्ञान केवल वाचिक न होना चाहिये। भारवाही गधे की तरह अनेक पुस्तकें पढ़े लेने से शुक सारिकाओं की भाँति कुछ रटे हुए शब्दों का प्रवचन कर देने से काम नहीं चलता हमारा तत्व ज्ञान अनुभव सिद्ध होना चाहिए। जिसको कारण, तर्क, प्रमाण और उदाहरण के द्वारा सत्य मान लिया जाय, उस सत्य के प्रति मनुष्य के मन में अगाध श्रद्धा होनी चाहिए और उस श्रद्धा का, उस ज्ञान का, जीवन में व्यावहारिक आचरण होना चाहिए। पहले पूरी तत्परता, सचाई और निष्पक्षता से यह देखना चाहिये कि कौन-कौन सिद्धान्त उचित एवं कल्याणकारी हैं। जब यह विश्वास हो जाय कि सत्य, परोपकार, संयम, ईमानदारी आदि गुण सब दृष्टियों से श्रेयष्कर हैं तो उन्हीं के सिद्धान्त का जीवन में आचरण होना चाहिए। सद्ज्ञान का श्रद्धा भूमि में परिपक्व होना, यही ईश्वर की प्राप्ति का प्रधान उपाय है। बिना सिद्धान्तों को जाने केवल अनुभव निर्बल है और बिना अनुभव का ज्ञान निष्फल है। जब सद्ज्ञान मनुष्य की दृढ़ श्रद्धा में परिणत हो जाता है, दम्भ, छल, मत्सर, कपट, धूर्तता एवं दुराव को छोड़कर जब समस्त मनोभूमि में एक ही जाति की श्रद्धा स्थापित हो जाती है तो उसी आहार पर परमात्मा की प्राप्ति होती है, वेद और छन्द के संमिश्रण में सविता का वरण किया जाता है और ज्ञान और अनुभव से परमात्मा को प्राप्त किया जाता है।

(2)इसी प्रश्न का उत्तर देते हुए मौद्गल्य कहते हैं देव का अर्थ भर्ग है। श्रेष्ठ का बल, उसके साधन हैं। श्रेष्ठता को तभी बलवान बनाया जा सकता है, जब उसको विकसित करने के लिए अन्न हो, साधन हो। साधन सामग्री-लक्ष्मी-एक शक्ति है, जो असुरों के हाथ में चली जावे तो असुरों को बढ़ाती है, और यदि देवों के हाथ में हो तो उसके द्वारा देवत्व का विस्तार होता है, देवता बलवान होते हैं। शासन सत्ता यदि दुष्ट लोगों के हाथ में हो तो वे दुष्टता फैलाते हैं, पिछली शताब्दियों में भारत की राजसत्ता विदेशियों के हाथ में रही हैं इसके कारण भारत भूमि का कितना अधःपतन किया यह किसी से छिपा नहीं है, वही सत्ता जब अच्छे हाथों में आवेगी तो थोड़े ही दिनों में रूस, अमेरिका की भाँति यहाँ भी उन्नत अवस्था प्राप्त होने की सम्भावना है। योगी अरविन्द ने अपनी ‘माता’ पुस्तक में लिखा है कि लक्ष्मी पर श्रेष्ठ लोगों को आधिपत्य करना चाहिए, इसी प्रकार संसार में सुख-शान्ति बढ़ेगी। यदि लक्ष्मी असुरों के पास चली गई तो उससे विश्व का अनिष्ट ही समझिए। देवताओं को भोग के लिए नहीं, लोभ के लिए नहीं, संग्रह के लिए नहीं, वरन् इसलिए धन और साधन सामग्रियों की आवश्यकता है कि वे उन शक्तियों द्वारा देवत्व की रक्षा एवं वृद्धि कर सकें। अपने आपको बलवान, क्रियाशील और साधन सम्पन्न बना सकें। अन्न को, इस साधन सामग्री को, लक्ष्मी का प्रतीक माना है। मौद्गल्य का दूसरा उत्तर यह है कि—देव का अन्न भर्ग अन्न है श्रेष्ठ का बल साधन है। बिना साधन के तो वह बेचारा निर्बल ही रहेगा।

(3)मौद्गल्य का उत्तर यह है कि—कर्म ही ‘धी’ तत्व है। इसी के द्वारा परमात्मा सबका विकास करता है। यह नितांत सत्य है कि परमात्मा की कृपा से सबका विकास होता है, परमात्मा सबको ऊपर की ओर—उन्नति की ओर, प्रेरित करता है। पर यह भी जान लेना चाहिये कि उस प्रेरणा का रूप है—’धी’। ‘धी’ अर्थात् वह बुद्धि जो कर्म करने के लिये प्रेरणा, प्रोत्साहन देती है और कर्म करने में लगा देती है। परमात्मा की जिस पर कृपा होती है उसे इसी प्रकार की बुद्धि प्राप्त होती है।

(क्रमशः)


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