(प्रो. रामचरण महेन्द्र, एम. ए.)
प्रायः अधिकाँश व्यक्ति मानसिक रूप से आलसी होते हैं। जब वे परीक्षा के लिए किसी पुस्तक को तैयार करने बैठते हैं, तो वे उसका अध्ययन नहीं करते प्रत्युत घोड़े की तरह सरपट दौड़े जाते हैं। पुस्तक पढ़ने के पश्चात् यदि आप उनसे प्रश्न करें कि क्या पढ़ा है, तो वे कुछ भी उत्तर नहीं दे पाते। कारण उनकी स्मृति पुस्तक से कुछ भी ग्रहण नहीं कर पाती। ज्ञान ऊपर से ही निकल जाता है,नवीन संस्कारों को दृढ़ता से मन नहीं पकड़ पाता। प्रतिदिन वे नई पुस्तक पढ़ते हैं किन्तु उनके मन में केवल एक हलकी-सी छाया मात्र रह जाती है।
हमें चाहिए कि मन की इस भाग-दौड़ और भँवर वृत्ति से छुटकारा प्राप्त करें। किसी पुस्तक से स्थायी लाभ प्राप्त करने के लिए हमें चाहिए कि पुस्तक को धीरे-धीरे शान्तिपूर्वक पढ़ें। कुछ पढ़ने के पश्चात् रुकें तथा अपने आप से प्रश्न करते रहें, “हमने अभी तक क्या पढ़ा है?” यदि मन पर नये संस्कार नहीं पड़े हैं तथा स्मृति ने कुछ ग्रहण नहीं किया है तो हमें पुनः उस भाग को पढ़ना चाहिए, यहाँ तक कि नये संस्कार जटिलता से अंकित हो जाय। अध्ययन करते समय इन तत्वों पर विशेष ध्यान रखिए :—
1—मनन :- अर्थात् पढ़ी हुई बात पर पुनः पुनः चिंतन, सोचना, विचार करना जिससे कि वह मन में बैठ सके और भूला न जा सके। पढ़ी बात पर जितना ही चिंतन किया जायगा, वह उतनी ही स्मृति में अच्छी तरह बस जायगी।
2—पूर्व पर्यवेक्षण :- जो कुछ आप पहले पढ़ चुके हैं, उसे नये ज्ञान से संयुक्त करना, उसे न भूलना, वरन् नये विचार से उसका मिलान करना। यदि पिछला भूलते जायं और आगे पढ़ते जायं, तो कोई लाभ नहीं है। अध्ययन का सम्बन्ध विचार से है। टामस हाव्स ने कहा कि यदि मैं उतना ही पढ़ता जितना दूसरे लोग पढ़ते हैं तो मेरा ज्ञान उतना ही कम होता। कारण लोग पहले पढ़े पर सोच विचार करना नहीं चाहते। उनकी मानसिक पाचन क्रिया ठीक नहीं है।
यूनानी तत्वज्ञानी डीमाक्रोटस ने जो ईसा से तीन सौ वर्ष पूर्व हुए थे, उन्होंने अपने नेत्र इसीलिए निकलवा डाले थे जिससे व्यर्थ कागज पर नेत्र दौड़ाने के स्थान पर वह मनन और चिंतन कर सके। पुनः पुनः स्मृति में संगृहीत ज्ञान की आवृत्ति करने से ज्ञान दृढ़ होता है और संस्कार परिपुष्ट होते हैं।
3—ध्यानावस्थिति :-मन का तेजी से पुस्तक के मैटर पर दत्तचित्त रूप में लगा रहना। जितना ही अधिक आपका ध्यान विषय में लगा रहेगा, उतना ही आपका मन नये ज्ञान को ग्रहण करेगा। प्रायः लोग रुचि पूर्वक पुस्तक के विषय में दिलचस्पी नहीं लेते, अतः ध्यान उस पर नहीं लगता। कोई भी लाभ पठन-पाठन से नहीं होता। ध्यान को अधिक से अधिक लगाये रहने से ही नया ज्ञान अन्तस्तल में अंकित होता है। बहुधा लोगों की आंखें तो पुस्तक पर रहती है, मन कहीं अन्य चक्कर लगाता रहता है, जब तक मन की आँखें नये ज्ञान पर केन्द्रित नहीं होंगी, विचार मन में न ठहरेंगे। अधूरे विचारों को नोट करने से ध्यान लगा रहता है।
4—स्मृति को दृढ़ बनाना :- स्मृति को मजबूत करना चाहिये। स्मृति के खजाने में ही सब ज्ञान संचित रहता है। स्मृति हमारे बौद्धिक विकास की प्रथम सोपान है। यदि हमारा ज्ञान स्मृति में सुरक्षित होता रहे, तो निरन्तर ज्ञानवृद्धि होती रहे।
स्मृति को मजबूत करने के लिए नोट लेने तथा पुस्तक पर कठिन और उपयोगी स्थलों पर निशान लगाने की आदत डालनी चाहिये। डेल कार्नेगी ने लिखा है, “हाथ में लाल पेंसिल, काली पेंसिल या फाउन्टेन पेन लेकर पढ़िये। जब-जब आप ऐसा संकेत देखें जिसका उपयोग आप अनुभव करते हैं या भविष्य में कर सकते हैं, उसके नीचे लकीर खींचने से पुस्तक अधिक मनोरंजन बन जाती है और उसको जल्दी से पुनः पढ़ जाना सरल हो जाता है। जिस शीघ्रता से हम भूलते हैं, उसे देखकर आश्चर्य होता है। वास्तविक और स्थायी लाभ प्राप्त करना चाहते हैं तो मत समझिए कि पुस्तक को एक बार सरसरी तौर पर पढ़ जाना पर्याप्त होगा। भली-भाँति पढ़ जाने के पश्चात् भी आपको प्रतिमास उसे दुबारा कुछ घन्टे अवश्य व्यय करने चाहिये जिस पुस्तक को आप पचाना चाहते हैं, उसे नित अपने सामने मेज पर रखिए, निरन्तर मन पर संस्कार डालते रहिए।
राबर्ट लुई स्टीवनसेन के पास सदा दो पुस्तकें रहती थीं, एक पढ़ने के लिए तथा दूसरी अपने विचार उस पर लिखने के लिए। वह सदा नोट करने का आदी था। उसका ख्याल था कि जो विचार लिख लिये जाते हैं वे स्थायी बनकर स्मृति में जम जाते हैं।
टामस हाव्स प्रातः भ्रमण को जाते समय हाथ में एक मोटा डण्डा रहता था। उन दिनों (17वीं शताब्दी में) फाउन्टेन पेन नहीं रखते थे। वह उसी सोटे के सिर में दवात और कलम ऐसे ढंग से रखता था कि दूसरों को दृष्टिगोचर नहीं होने देता था। उसकी जेब में एक नोट बुक होती थी, जिसमें वह भ्रमण में आये हुए विचारों को नोट करता चलता था।
पढ़ने की क्रिया अधिक तेज न हो, नहीं तो मन ग्रहण न कर सकेगा। यदि आँखें मन की अपेक्षा अधिक तेजी से दौड़ रही हैं, तो ग्रहणशक्ति और भी मन्द पड़ती जायगी। पुस्तक या अखबार को जल्दी से समाप्त करने की उतावली न कीजिए। जल्दबाजी से मन नया ज्ञान कदापि ग्रहण नहीं करता। बाहर से यही तृप्ति होती है कि हमने पढ़ भर लिया है। इस मानसिक दौड़ से कोई लाभ नहीं है। यदि गति बढ़ाने की इच्छा है तो विवेक-बुद्धि और ग्रहणशक्ति का विस्तार करते चलिये।
अध्ययन की परीक्षा :- जितना ज्ञान हमने एक दिन में प्राप्त किया है, इसकी जानकारी प्रतिदिन रात्रि में चिंतन मनन द्वारा मालूम करनी चाहिए। प्रति सप्ताह सात दिनों के कार्यों पर विचार करना चाहिये। जाँच का कार्य महत्वपूर्ण है। इससे नीर क्षीर हो जाता है। हम जिस ज्ञान को अपना समझते हैं, वह प्रायः अधूरा धुँधला, अपूर्ण निकलता है। मास के पश्चात् पूरे 4 सप्ताहों के ज्ञान-संचय पर विचार कीजिये। यदि जी चाहे तो किसी मित्र बड़े भाई या पिता की सहायता से परीक्षा कार्य हो सकता है। उनसे कहिये कि वे आपसे उन हिस्सों में से प्रश्न पूछें जो आपने तैयार किये हैं। आप लिखकर परीक्षा दें तो और भी उत्तम है। लिखने से हिज्जों की गलतियाँ भी दूर होती हैं तथा ज्ञान पूर्ण बन जाता है। एक डायरी लिखा कीजिए। ज्यों-ज्यों पढ़ने-लिखने में दक्षता बढ़ती जायगी, उसका ग्रहण-विस्तार प्रतिमास बढ़ता जायगा।