सत्य और असत्य के परिणाम

August 1952

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(पं.श्री लालजीरामजी शुक्ल, एम. ए.)

संसार के सभी लोग सचाई की लड़ाई करते हैं। ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं मिलेगा जो मिथ्या आचरण और दूसरों को धोखा देने को भला कहे। पर यह भी एक साधारण अनुभव की बात है कि विरला ही व्यक्ति पूर्णतः सचाई को अपने व्यवहार में लाता है। इतना ही नहीं, जो व्यक्ति जितना अधिक दूसरों से सच्चे व्यवहार की आशा करता है, वह उतना ही स्वयं धूर्त होता है। धूर्त व्यक्ति को संसार के सभी लोग छल और कपट से भरे दिखाई देते हैं। वह अपने कपट-व्यवहार की ओर दृष्टि नहीं डालता, पर दूसरों के कपट व्यवहार से सदा सतर्क रहता है। ऐसा व्यक्ति जितना भोले-भाले लोगों की प्रशंसा करता है, उतना अपने जीवन में सत्य व्यवहार करने वाला नहीं देखा जाता।

अब प्रश्न आता है कि सच्चे लोग सचाई की महिमा का बखान करें तो युक्तिसंगत है, झूठे लोग क्यों सचाई की महिमा गाते हैं, वे लोग क्यों सच्चे लोगों की खोज में रहते हैं? संसार के प्रायः सभी लोग अपने आप सच्चे न होकर फिर सच्चेपन को क्यों अच्छा कहते हैं, और जब वे एक प्रकार के व्यवहार को अच्छा कहते हैं, तो स्वयं तदनुकूल आचरण क्यों नहीं करते?

प्रश्न के पहले भाग का उत्तर यह है कि सच्चे लोग जितनी सरलता से ठगे जा सकते हैं, उतनी सरलता से झूँठे लोग नहीं ठगे जा सकते। यदि धूर्तों को सदा उन्हीं-जैसों से व्यवहार करना पड़े तो उनकी धूर्तता का महत्व कुछ भी न रह जाय। ठगों को उनकी ठगी-विद्या से तभी लाभ हो सकता है जब दूसरे लोग ठगोरी करने को मिलते हैं। ठगों को भोले-भाले आदमी प्रिय लगते हैं। जो व्यक्ति उनके नग्न स्वरूप को उन्हीं के सामने खड़ा कर दे, उससे बड़ा दुश्मन वे किसी दूसरे को नहीं मानते। हम सचाई की प्रशंसा आत्मरक्षा की भावना से करते हैं। हम दूसरों से ठगे नहीं जाना चाहते, अतएव सच्चे लोगों को भला कहते हैं। पर जब हम सचाई को भला गुण कहते हैं, तब अपने आन्तरिक मन में हम स्वयं सच्चे बनें और सब प्रकार धूर्तता और चतुराई से अलग रहें।

इसका क्या कारण है? इसका कारण है कि हमने वास्तव में सचाई के महत्व को नहीं समझा। सचाई से व्यवहार करने वाला व्यक्ति प्रायः साँसारिक दृष्टि से घाटे में रहता है। अतएव हम मन-ही-मन सचाई को एक प्रकार की बेवकूफी समझते हैं। विरला ही व्यक्ति ही व्यक्ति सचाई की मौलिकता को ठीक से समझता है। इसीलिये हमें अपने मन में अनेक युक्तियों से वह बिठा लेना आवश्यक है कि वास्तव में धूर्तता त्याज्य है और सचाई लाभकारी है। बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि जो व्यक्ति सारे संसार को अनेक प्रकार की युक्तियों द्वारा सचाई, कर्त्तव्यपरायणता और सरलता की मौलिकता समझा सकता है, वही इन गुणों से वंचित रहता है। सचाई का उपदेश देने वाले व्यक्ति ही प्रायः बढ़े धूर्त होते हैं। जो बात तीक्ष्ण बुद्धि वाला व्यक्ति अनेक तरह से लोगों को समझाता है, ठीक उसी बात के प्रतिकूल उसका आचरण होता है। अतएव इस प्रकार के विद्वान से संसार के लोग धूर्तता ही सीखते हैं न कि सचाई। वास्तव में ये विद्वान विद्वान ही नहीं, ये तो परम मूर्ख हैं। तभी तो महात्मा कबीर ने कहा है—

पण्डित और मसालची इनकी येही रीति।

औरन को करें चाँदनो आप अँधेरे बीच॥

सचाई का वास्तविक पुरस्कार क्या है—यह जानना एक दिन की बात नहीं। सच्चे काम का फल अच्छा रहता है और झूठे का बुरा। यह जीवन के अनुभव के पश्चात् किसी-किसी व्यक्ति की समझ में आता है। झुठाई से मनुष्य को तत्कालिक लाभ की सम्भावना रहती है, यदि किसी लड़के ने अच्छी तरह से अपना पाठ याद नहीं किया है और नकल करके परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाता है तो वह नकल करने के सुअवसर से लाभ क्यों न उठावे। यदि वह लड़का नकल करने के मौके को काम में नहीं लाता तो उसे एक पूरे साल पुरानी कक्षा में ही ठहरना पड़ता है। ऐसी सचाई से क्या लाभ जिससे जीवन बरबाद हो। ऐसे गुड़ से क्या लाभ जो मौत को आमन्त्रित करे। इस प्रकार के विचार मनुष्य को झूँठे व्यवहारों में प्रवृत्त करते हैं।

मनुष्य सदा छोटे मार्ग को ढूँढ़ा करता है। इसी प्रवृत्ति के कारण वह सचाई के लम्बे रास्ते को छोड़ कर मिथ्यात्व में पड़ता है। इस प्रकार के आचरण से मनुष्य अन्त में दुःख भोगता है। इसका विचार उसे नहीं रहता। जब चोर चोरी करे तब यदि वह यह सोचने लग जाय कि उसे प्रत्येक चोरी के लिए कभी-न-कभी दण्ड मिलेगा तो वह कुमार्गगामी ही क्यों बने? मनुष्य को अपने कृत्यों के प्रति सन्निकट के निष्कर्ष ही दिखायी देते हैं, उसे अन्तिम परिणाम दिखाई ही नहीं देता। इसीलिये वह अपने को लालच से नहीं रोक पाता।

जिस मनुष्य का हृदय विशुद्ध है वह प्रत्येक काम के शुभ और अशुभ परिणाम को तुरन्त देख लेता है। प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव दो प्रकार की प्रवृत्तियों से मिलकर बना है- एक उसे स्वार्थ परायण बनाती हैं और दूसरी परोपकार में प्रवृत्त करती हैं। ये दोनों ही प्रवृत्तियाँ समानरूपेण प्रबल हैं। जब मनुष्य की स्वार्थ-सम्बन्धी प्रवृत्तियाँ प्रबल होती हैं, तो वह छल-कपट और धूर्तता से काम लेता है और जब उसकी मानसिक प्रवृत्ति परोपकार की ओर जाती है अर्थात् वह परमार्थ का चिन्तन करता है तो वह सचाई का मार्ग ग्रहण करता है। जो मनुष्य अपने आपके प्रति सतर्क है, वह जब भी सच्चे मार्ग से विचलित होता है तो वह अपनी त्रुटि को तुरन्त समझ जाता है और उसे उस भूल को सुधारे बिना चैन नहीं मिलता। प्रत्येक मनुष्य संसार को धोखा भले ही देता हो वह अपने आपको धोखा नहीं दे सकता, दुराचारी का आत्मा उसे सदा कोसता रहता है। यदि दुराचारी मनुष्य अपने दुराचार को नहीं छोड़ता तो धीरे-धीरे वह एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है जहाँ से मुक्त होना असम्भव हो जाता है। उसका एक-न-एक दिन विनाश निश्चित है।

देखा गया है कि झूठे और मक्कार व्यक्ति को झूठे और मक्कार ही साथी खोजने पड़ते हैं। जब उसे ऐसे लोग नहीं मिलते तो वह भले लोगों की नीच प्रवृत्तियों को ही उभारा करता है, जिसमें दूसरे लोग उसकी बुराइयों का संसार में प्रदर्शन न करें। वह दूसरों की बुराइयों को सहता है, उनमें भी स्वार्थ-बुद्धि का प्रचार करता है, किन्तु इस प्रकार का व्यवहार अन्त में उसको विनाशोन्मुख बना देता है।

यह समझना बड़ा ही कठिन है कि प्रत्येक छल और कपट का कार्य हमें आध्यात्मिक हानि पहुँचाता है। जिस प्रकार चोर सभी लोगों से डरता रहता है, इसी प्रकार मक्कार मनुष्य का मन सदा उद्विग्न रहता है। उसकी धार्मिकता की ओट उसे आन्तरिक शान्ति नहीं देती। संसार के सभी पदार्थ मन की शान्ति के लिये हैं। मिथ्याचारी को संसार की और वस्तुएँ क्यों न मिल जाय, मन की शान्ति कदापि नहीं मिलती। उसका हृदय आन्तरिक ज्वाला से सदा संतप्त रहता है। जब इस तरह दिन प्रतिदिन के व्यवहार से उसका आध्यात्मिक बल नष्ट हो जाता है, तो फिर उसका बाह्य जगत् में भी पतन हो जाता है। जैसे-जैसे वह ऊँचा चढ़ता है वैसे ही उसकी तृष्णा भी बढ़ती जाती है। साथ ही उसमें ईर्ष्या, क्रोध, द्वेष आदि की दिनोदिन अधिकता होती जाती है। फिर वे उसके संसार में पतन के कारण बन जाते हैं।

अस्तु! सचाई का पुरस्कार अदृश्य है। यह ज्ञान की दृष्टि से जाना जा सकता है। सच्चा मनुष्य प्रायः दूसरों के द्वारा ठगा जाता है। पर उसे वे मानसिक यन्त्रणाएँ नहीं होती, जो ठगने वाले चतुर व्यक्ति को होती हैं, उसे तस्कर की भाँति सबसे डरते नहीं रहना पड़ता। उसका मन शान्त रहता है। वह शीघ्र ऊँचे पद पर नहीं पहुँचता, पर कालान्तर में उसका उत्थान अवश्य होता है जिसे कोई रोक नहीं सकता। धूर्तों की उन्नति अस्थायी होती है, सच्चों की स्थायी। सच्चा अपनी अवनत अवस्था में भी स्वर्गीय सुख का अनुभव करता है, परन्तु धूर्त ऊपर से उन्नत दीखता हुआ भी अन्दर नारकीय यन्त्रणा भोगता है।


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