दीर्घ जीवन का रहस्य

August 1952

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(श्री युगलकिशोर जी चौधरी, एन.डी.)

बाईबल में लिखा है कि जब प्रभु ने आदम और ईव को ईदन के बाग में भेजा तो यह उपदेश दिया कि “भोजन बड़ा ही महत्व रखता है, उन्हें पृथ्वी फली फूली रखना और पूर्ण रखना होगा और सृष्टि उत्पन्न करने के लिए ही मैथुन करना होगा।”

प्रभु ने यह भी आदेश दिया कि “उन्हें पृथ्वी पर उगने वाला हर एक कन्दमूल फल खाना चाहिए, हरे साक, सात्विक अन्न, हर एक फल आदि खाना चाहिए जिसमें कि बीज भी हों।”

प्रभु के इस उपदेश में आग से पकाने का कोई जिक्र न था, शायद आग उस समय थी भी नहीं और सभी मनुष्य ऐसे भोजन पर नीरोग दीर्घजीवी रहते थे। ऐसा कहा जाता है कि अग्नि के आविष्कार के साथ ही दुनिया में रोग, अकाल मृत्यु व पाप उत्पन्न हुए हैं। आज हमारी भोजन प्रणाली को उस समय के सतयुगी आनन्द काल से मिलाइए। हमारा कैसा अधःपतन हो गया है और अग्नि की सहायता से हम कैसी खराब, मुर्दा, सार रहित खुराक खाकर अल्पजीवी, रोगी व पापी हो गए हैं। माँस, मदिरा आदि भी आग के कारण ही खाना-पीना सम्भव हो सका है। हमारे पुराणों में लिखा है कि सतयुग में आयु हजार वर्ष की, त्रेता में 500 वर्ष की, द्वापर में 200 वर्ष और कलियुग में केवल 100 वर्ष की आयु होती है।

परन्तु आज 100 वर्ष तब कितने भाग्यवान जीवित रहते हैं, अधिकाँश तो 50 वर्ष के भी नहीं हो पाते। क्यों? इसलिए कि हमारे शरीर खराब आग से पके खराब भोजन से दिन-दिन खराब हो गये हैं और हमें सच्चे स्वास्थ और दीर्घायु का ज्ञान ही नहीं है। इसलिए आइए और दृढ़ चित्त होकर आरोग्य और दीर्घ जीवन के लिए कोशिश कीजिए। इसके लिए प्रचलित आदतों को छोड़कर स्वाभाविक कच्चे, बिना पकाये फल, कन्द, शाक, कच्चा दूध, मेवे पर रहना शुरू करें, अर्थात् जो चीज जिस हालत में जमीन से पैदा हो वह उसी हालत में खाई जावे, कोई तब्दीली न की जावे, ऐसा करने से शीघ्र शरीर में नया ताजा खून दौड़ने लगेगा। रोग, शोक, विकार भाग जायेंगे और एक अपूर्व आनन्द व सुख का अनुभव होने लगेगा, जो जीवन भार स्वरूप था वही आनन्दमय हो जायगा।

अगर हम संसार में रहते हुये भोजन में कुपथ्य करने से बचे रहें, फलों का सेवन यथाशक्ति करते रहें, भूख-प्यास के अनुसार खाना-पीना रखें, शुद्ध वायु सेवन व उचित व्यायाम करते रहें, कब्ज दूर करके आंतें साफ रखें, जल व मिट्टी से दूर न रहें, तो आरोग्य हमारी मुट्ठी में रहेगा।

वास्तव में आयु है क्या? यह वर्षों पर निर्भर नहीं है बल्कि शारीरिक योग्यता पर निर्भर है। बहुधा देखा जाता है कि एक आदमी जवानी में ही बूढ़ा सरीखा हो जाता है और दूसरा बड़ी आयु वाला होने पर भी जवान सरीखा दिखाई देता है।

हजारों लाखों ऋषि, मुनि, योगी, तपस्वी बहुत बड़ी आयु वाले हो चुके हैं। कई-कई तो मृत्यु पर विजय प्राप्त कर चुके थे। सैकड़ों-हजारों वर्ष की आयु के प्रमाण हमारे इतिहास और पुराणों में मिलते हैं। सैकड़ों वर्षों की आयु वाले तो कई आज भी हमारे देश में जिन्दा हैं। इतनी बड़ी आयु वाले यह ऋषि-मुनि लोग केवल कन्द, मूल, फलों व पत्तों या दूध पर रहते थे, जंगलों में रह कर तप करते थे, उपवास करते थे, यही उनके दीर्घ जीवन का रहस्य था।

इसके विपरीत शहरों में रह कर नाना प्रकार के पकवान, मिठाइयाँ, नमकीन पदार्थ, रोटी दाल आदि खाने वाले लोग बहुत कम ऐसे देखे गये हैं जिन्होंने दीर्घ आयु पाई हो। राजा गोपीचन्द की माता ने गोपीचन्द को उपदेश दिया था कि बेटा तुम बहुत ही अल्पायु हो, यदि तुम इसी विलासी जीवन, प्रकृति विरुद्ध आहार, ऐश-आराम में शहर में रहोगे तो तुम्हारे पिता की भाँति शीघ्र मृत्यु तुम्हें घसीट ले जायगी, इसलिये तुम जंगल में रहो, योग साधन करो, कन्द-मूल फल खाओ, पृथ्वी पर सोओ और वस्त्रों का त्याग करो इन उपायों से तुम मृत्यु को निश्चय ही जीत सकोगे। निदान गोपीचन्द ने ऐसा ही किया और मृत्यु पर विजय प्राप्त की।

हमने अनेक रोगियों की, उनके खान-पान आदि की खूब जाँच करके यह पता लगाया कि वे ही रोगी सदा बीमार बूढ़े सरीखे नजर आये जिनके शरीर में क्षार व विजातीय द्रव्य अधिक मात्रा में भरे हुए थे।

जल्दी बूढ़े होने के यही चिन्ह हैं, नसों का मुरझाना, खाल पर झुर्रियाँ पड़ना, बाल सफेद होना, दाँत गिर जाना, जोड़ों का कमजोर होना, कमर झुकना आदि और इन चिन्हों वाले शरीर में क्षार की अधिकता पाई जाती है।

वास्तव में तो क्षार की अत्यधिक मौजूदी मुख के द्वारा जानी जा सकती है, मसूड़े फूलना, जीभ पर काँटे होना, दाँतों में मवाद आना, जीभ सफेद रहना ही बहुत अधिक क्षार या मैल शरीर में भरा होना जाहिर करते हैं।

और इन्हीं चिन्हों से परीक्षा हो सकती है कि अमुक व्यक्ति कहाँ तक मलाच्छादित क्षार युक्त है और कहाँ तक उसके शरीर को बुढ़ापे ने घेर लिया है। वास्तव में बुढ़ापा ही दुःखदायी है और सभी इससे बहुत घबराते हैं। बूढ़ों की इच्छाएँ मर जाती हैं, थकान हर वक्त बनी रहती है, ताकत नष्ट हो जाती है, भोजन का स्वाद-आनन्द जाता रहता है और कफ खाँसी रात दिन तंग करती है। इसे ही हम बुढ़ापा कहते हैं।

जैसे हम पुराने कपड़े फेंक कर नये पहनते हैं वैसे यह आत्मा पुराने जीर्ण शरीर को छोड़ कर नये में प्रवेश करता है इसका अर्थ यह है कि जब तक शरीर जीर्ण नहीं होता जवान बना रहता है प्राणों का अन्त तब तक नहीं होता जब तक कि खास कारण न हो।

वास्तव में आज जो हीन दशा हम बूढ़े लोगों की देख रहे हैं उसका मूल कारण यही है कि खराब खानपान द्वारा उनके शरीर का हर एक भाग मैल गन्दगी से बहुत ज्यादा भर गया है और इसीलिए शरीर रूपी मशीन जर्जर होकर निकम्मी पुरानी हो गई है इन लोगों की दयनीय दशा देखकर हर एक मनुष्य का प्रधान कर्त्तव्य है कि वह अपना आहार जहाँ तक हो सके प्रकृति के अनुकूल, सात्विक, उत्तेजना रहित बनावे ताकि शरीर में गन्दगी न भरे। और हम दीर्घ काल तक निरोग एवं बलवान रह सकें।


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