भस्रिका प्राणायाम

August 1952

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(ले.—श्री गिरीश देव वर्मा, बहराइच)

भस्रिका प्राणायाम एक आश्चर्य जनक प्राणायाम है। इसे वासुकी प्राणायाम भी कहते हैं। इस क्रिया को करने में न कोई अड़चन है, न कठिनाई, न किसी आसन को सिद्ध करने की जरूरत है और ने अन्य कोई बाधा ही है। इस क्रिया में अन्य प्राणायामों की तरह आसन, बन्ध, मुद्रा, रेचक, पूरक का अनुपात, आहार-विहार की नियमितता आदि की पाबन्दी नहीं है। इसमें किसी प्रकार की हानि होने की भी आशंका नहीं है।

लाभ :- इस क्रिया से अधिकाँश रोग दूर होते हैं। शरीर में कहीं भी रोग हो प्राणायाम से बिजली जैसा धक्का वहीं लगता है और बार-बार के प्रहार से वहाँ के रोग कीटाणु नष्ट हो जाते हैं। दिल की धड़कन के लिये यह प्राणायाम रामबाण है। धड़कन का दौरा होने पर भी यह क्रिया विधिपूर्वक करने से तुरन्त आराम होता है। खून खराबी, फोड़े-फुन्सी, दाद, खाज, खुजली, जिगर बढ़ जाना, तिल्ली, पित्ताशय, मूत्राशय, अण्डकोश आदि रोगों में इस क्रिया में बड़ा लाभ होता है। पेट की तमाम बीमारियों के लिये यह प्राणायाम एक चूरन है। खाना न पचता हो, भूख कम लगती हो, कब्ज रहती हो, अग्नि कम हो गई हो तो इस क्रिया से बढ़ जाती है। जुकाम, खाँसी, पेट का भारीपन, सिर दर्द, कमर दर्द आदि में भी इसका अच्छा असर होता है।

गले के रोगों के लिये भी यह क्रिया लाभदायक सिद्ध हुई है। इससे स्वर बड़ा मधुर हो जाता है। बहुत से मनुष्य थोड़ा सा भी शारीरिक या मानसिक परिश्रम करने पर थक जाते हैं। यदि वे इस क्रिया को करने लगें तो थकावट का अनुभव नहीं करेंगे। मेरे कार्यालय के अनेक व्यक्ति दिन भर काम करने के बाद शाम को बड़ी थकावट मालूम करने लगते थे। मैंने उनसे थोड़े दिन यह प्राणायाम कराया। उनको अभूतपूर्व लाभ हुआ। फिर तो चाहे जितनी देर शाम को या रात में काम करना पड़े वे हतोत्साह नहीं होते थे। इस क्रिया से आलस्य, सुस्ती, ढीलापन, दीर्घसूत्रता नहीं रह जाती है।

हमारे आयु की माप वर्षों में नहीं होती है। बल्कि श्वासों की संख्या पर निर्भर है। मान लीजिए कि एक मनुष्य की आयु पचास लाख श्वांस है। वह चाहे तो इसको 50 वर्ष में लेले या 100 वर्ष में लेले या जल्दी-जल्दी श्वास लेकर 20 ही वर्ष में कुल संख्या पूरी कर ले। साधारण स्वस्थ मनुष्य को एक मिनट में 12-14 श्वास लेना चाहिए। यदि इससे अधिक लेते हैं तो आपकी आयु कम है और यदि 12-14 से भी कम लेते हैं तो आप दीर्घजीवी होंगे। जो प्राणी जल्दी-जल्दी श्वास लेते हैं वह थोड़े ही जीते हैं। योगी लोग श्वासों की मात्रा कम करके दीर्घजीवी हो जाते हैं। यों योगी अधिकतर समाधि में रहता है उसकी श्वास उतनी देर तो चलती नहीं और उसकी उतने समय की आयु बढ़ जाती है। इस भस्रिका प्राणायाम द्वारा श्वास-प्रश्वास की गति बहुत थोड़ी हो जाती है। कभी-कभी तो 10-12 श्वास प्रति मिनट से भी कम हो जाती है। इसके साथ योग की कुछ गुप्त क्रियायें की जाती हैं जिससे श्वास-प्रश्वास की गति 3-4 प्रति मिनट हो जाती है। इस भस्रिका प्राणायाम से बढ़ी हुई श्वास की गति सामान्य स्तर पर आ जाती है और यही कारण है कि मनुष्य की आयु बढ़ जाती है।

हमारे मकान पर एक पण्डित जी रहते थे वे गीता व रामायण के बड़े भक्त थे और बड़े अनासक्त भाव से रहते थे। एक बार उनको बुखार आने लगा और फिर खाँसी भी शुरू हो गई। उन्होंने दवा लेना अस्वीकार कर दिया। दो मास बीत गए वे रात भर बैठे खाँसा करते। लोग कहते थे कि पण्डित जी को यक्ष्मा हो गया है। धीरे-धीरे वे कमजोर होने लगे, मगर किसी के आग्रह पर भी औषधि का प्रयोग नहीं किया। उनका कहना था कि वनस्पतियों में भी जान होती है और एक जीवन की रक्षा के लिए दूसरे जीव की हत्या क्यों की जावे।

दैवयोग से उन्हीं दिनों श्री बद्रीनाथ धाम से एक महात्मा पधारे और हमारे यहाँ ठहरे। उन्होंने कहा कि “अच्छा मैं एक क्रिया बताता हूँ। उसका अभ्यास करो, इससे लाभ भी होगा और किसी की हत्या भी न होगी।” उन्हीं महात्मा ने यह विचित्र प्राणायाम बतलाया और इसका लाभ बताया। पण्डित जी ने इसका अभ्यास शुरू कर दिया। दिन में चार बार यह क्रिया करते। धीरे-धीरे वे स्वस्थ होने लगे और एक मास में किसी रोग का नाम नहीं रहा। उनका वजन काफी बढ़ गया। फिर तो यह क्रिया दैनिक क्रिया हो गई।

लेखक ने भी यह क्रिया बहुत दिनों तक करके अपूर्व लाभ उठाया है। शरीर के मल की शुद्धि के साथ-साथ रोगी से मुक्ति को पा लिया है। लेखक के मठ पर जो लोग साधना के लिये आते हैं, उनको यह प्राणायाम अवश्य करना पड़ता है।

एक बार एक महाशय आये। उनका रक्त दूषित हो गया था। बदन भर में दाने निकला करते थे। उन्होंने एलोपैथी, होम्योपैथी, वैद्यक आदि सभी का इलाज किया मगर कोई लाभ नहीं हुआ। उनको मैंने यह प्राणायाम बताया और नमक बन्द करा दिया। दो दिन में ही दानों का रंग बदल गया। एक सप्ताह में रोग भागने लगा और इक्कीसवें दिन वे बिलकुल स्वस्थ हो गये।

हमारा जिला हिमालय की तराई में बसा है और जंगली प्रान्त है। यहाँ का जलवायु अति दूषित है। अधिकतर मनुष्य पेट की बीमारियों से पीड़ित रहते हैं पर इस प्राणायाम से आहार-विहार में कुछ गड़बड़ी होने पर भी कोई नुकसान नहीं होता। शरीर में सदैव फुर्ती बनी रहती है।

यह प्राणायाम कुछ लोगों के लिये वर्जित भी है। जो लोग यक्ष्मा के दूसरे स्टेज में पहुँच गये हैं और जिनका श्लेष्मा रोग कीटाणु युक्त हो गया है, उनको यह क्रिया नहीं करना चाहिए। यह क्रिया उनके रोग को और बढ़ाती है। इसी तरह रक्त पित्त, तीव्र ज्वर, वमन आदि के लक्षणों में यह क्रिया नहीं करनी चाहिये। जो लोग अति रति क्रिया करते हैं और संयम से नहीं रहते उनको भी यह क्रिया नहीं करनी चाहिये। रजस्वला व गर्भिणी स्त्रियों को भी यह क्रिया नहीं करनी चाहिये।

अब इस प्राणायाम की विधि देखिये

विधि :-

एक बड़ी चटाई, दरी या कम्बल बिछाकर मुर्दे की तरह चित्त लेट जावो। जमीन या तख्त पर ही लेट जाना चाहिये। चारपाई पर नहीं, हाथ दोनों बगल में आराम से पड़े रहें।

शरीर को बिलकुल ढीला कर दो। कहीं भी किसी तरह का तनाव न रहे।

अब नाक से धीरे-धीरे साँस खींचो। पहले फेफड़े के निचले भाग को हवा से भरो। यह ऐसे होगा कि पेट व छाती के बीच वाले परदे से काम लो और उसके द्वारा नीचे के पेट के अवयवों पर थोड़ा दबाव डालो जिससे पेट आगे को थोड़ा निकल आवेगा। फिर उसी सिलसिले में जिसमें तार न टूटे, फेफड़े के मध्य भाग को भरा, जिससे निचली पसलियाँ, छाती की हड्डी और छाती बाहर को फैल जाये। फिर उसी साँस में फेफड़े के ऊपरी भाग को भरो जिससे छाती का ऊपरी भाग थोड़ा आगे निकल आये और छाती ऊपरी छः या सातवें जोड़ी पसलियों के साथ ऊपर उठ जाये। अन्तिम गति में पेट का निचला भाग कुछ थोड़ा सा भीतर दब जायगा। साँस खींचने के अन्त में कन्धा को थोड़ा ऊपर उठा देना अच्छा रहेगा, इसमें हँसली की हड्डी उठ जाती है। और दाहिने फेफड़े के ऊपर वाली ललरी में भी हवा घुस जाती है। इसी छोटी ललरी में ही कभी-कभी ट्यूबर क्लोसिस (क्षय) नामक बीमारी हो जाती है।

इस प्राणायाम को करने वाला पुरुष हो या स्त्री, क्षय रोग तथा फेफड़े के अन्य रोगों से निर्भय हो जाता है। क्षय रोग शरीर का जीवट कम होने से होता है और जीवट कम हवा प्राप्त होने से हो जाता है। अस्तु।

उपरोक्त बताये गये साँस में अलग अलग तीन गतियाँ नहीं है इसलिए हिचक-हिचक कर मत साँस लो। लगातार धीरे-धीरे बढ़ाना चाहिए और साँस की वह पूरक क्रिया जितनी लम्बी हो सके उतनी लम्बी करनी चाहिए। अभ्यास परिपक्व हो जाने पर उसमें तीव्रता लाई जा सकती है।

साँस को अन्दर मत रोको। जैसे ही पूरी साँस भर जावे बाहर निकालने की क्रिया शुरू कर दो। साँस मुँह से धीरे धीरे निकालना चाहिए। जिस तरह साँप फुंसकार छोड़ता है उसी तरह ओठों को मिलाकर फूँ-फूँ करते हुए साँस छोड़ो। जिस क्रम से साँस भरी गई है उसी क्रम से साँस निकलेगी अर्थात् पहिले फेफड़ों के ऊपरी हिस्से से, फिर नीचे से, फिर पेट से। साँस के निकलने वाली इस रेचक क्रिया को भी यथाशक्ति लम्बी करो। पूरक में जितना समय लगा था, उससे दुगना रेचक में लगाना चाहिए। यदि इतना न हो सके तो रेचक व पूरक में बराबर समय लगाना चाहिए। पूरी-पूरी साँस निकाल देने पर तुरन्त पूरक शुरू कर दो।

इस प्राणायाम में केवल पूरक व रेचक हैं। कहीं कुम्भक नहीं है। साँस को न भीतर रोकना चाहिए और न बाहर। जिस तरह लोहार की धौंकनी बराबर एक गति से चला करती है उसी तरह पूरक व रेचक होते रहना चाहिए। नाक से साँस लेना व मुख से निकालना यही भस्रिका प्राणायाम है।

इस क्रिया को 10-12 मिनट तक करने के बाद शरीर व मस्तिष्क में स्थित कार्बन जलना शुरू हो जायगा और घबराहट मालूम होने लगेगी। जी चाहेगा कि इस क्रिया को छोड़ दिया जावे। आराम करने को जी चाहेगा। मगर इस घबराहट से मत डरो, थोड़ी आत्म शक्ति लगाकर क्रिया को जारी रखो।

दो तीन मिनट के बाद घबराहट कुछ कम हो जायगी और शरीर में बिजली दौड़ने लगेगी। हाथ-पैरों में झुंझलाहट मालूम पड़ेगी। शरीर का जो अंग रोगी होगा, वहाँ विद्युत के झटके अधिक तीव्रता से मालूम होंगे। किसी-किसी के हाथ पैरों में इतनी विद्युत भर जाती है कि वे अंग काँपने लगते है। यह लक्षण डराने वाले नहीं हैं। इनसे शरीर का मल जलता है और नवीन शक्ति प्राप्त होती है।

शरीर में विद्युत उत्पन्न हो जाने के बाद दो-तीन मिनट तक यह प्राणायाम करते जाओ, अर्थात् कुल 20 मिनट तक यह क्रिया करो। उसके बाद बन्द कर दो। आँखों को मूँद लो और उसी तरह 3-4 मिनट तक पड़े रहो। यह जरूरी है। उसके बाद उठ जाओ।

बीस मिनट तक प्राणायाम करने के बाद जब क्रिया बन्द कर दी जाती है तब शरीर शिथिल हो जाता है। उठने का जी नहीं चाहता। मन आनन्द लोक में चला जाता है। जिस तरह मधुर संगीत सुनने के बाद मनुष्य आनन्द में बेसुध हो जाता है उसी तरह इस क्रिया के बाद एक अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव होता है। कभी-कभी अभ्यासी सो जाता है। लेखक तथा उसके मित्रों का अनुभव है कि बहुधा इस क्रिया के बाद नींद आ जाती है। यदि कोई जगावे नहीं तो कभी-कभी दो तीन घण्टे की गाढ़ी निद्रा आ जाती है। उसके बाद उठने पर शरीर में हल्कापन, फुर्ती और उत्साह मालूम होने लगता है।

इस क्रिया को सुबह व शाम खुली हवा में करना चाहिए। विशेष रोगों में अन्य समय भी किया जा सकता है। भोजन के बाद तीन घण्टे तक यह क्रिया नहीं करनी चाहिए। मगर क्रिया के आध घण्टे बाद भोजन किया जा सकता है।


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