ईश्वर भक्ति का व्यवहारिक रूप

June 1951

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(श्री भैरवप्रसाद जी ‘विशारद’)

प्रकृति का सर्वप्रथम सर्वोत्कृष्ट नाटककार वह परम परमेश्वर ही है। जिसने इस संसार रंग-मंच पर भाँति-भाँति के सुंदरतम अनुपम और मनोहर पर्वतीय, सामुद्रिक, नदिया, जंगल और आकाश सम्बन्धी विभिन्न रंगों और रूपों से विभूषित दृश्यों की अवतरण की, भिन्न-भिन्न पशु−पक्षियों, कीड़ों-मकोड़ों और नर-नारियों के सुन्दर-असुन्दर, हिंसक तथा अहिंसक मैले और बुरे रूपों में पात्र तथा पुत्रियों की सजीव और यथार्थ कल्पना की, पशु-पक्षियों की भयंकर गर्जना तथा सुमधुर कलरव एवं मानवों की विभिन्न भाव प्रवाहहीन ध्वनियों, द्वारा कर्ण-प्रिय मृदु संगीत तथा भावना भरे संवादों को जन्म दिया और जिसने इन विभिन्न जीवधारियों के आपस के जीवन संघर्ष एवं उसका प्रकृति के साथ सामंजस्यकारी चरित्रों का गढ़न किया।

नाटक के एक नाटककार के लिए जिस प्रकार उसका उच्च, अप्रतिम चरित्रवाहक नायक प्रिय तथा अत्यावश्यक होता है। ठीक उसी प्रकार क्षुद्र तथा नीच तथा नीच प्रकृति और वृत्ति का पात्र भी उसे प्रिय तथा आवश्यक होता है। वह इन दोनों को साथ लेकर चलता है, एक के बिना उसका नाटक सम्पूर्ण हो, ही नहीं सकता और इसलिए वह इन दोनों को ही समान दृष्टि से देखता है, यदि नाटककार ऐसा न होकर कुछ और ही निराली वस्तु हो जाता है। और वह नाटककार के पद से च्युत हो जाता है। वह महाप्रभु कोई साधारण नाटककार है कलाकार है और इसीलिए वह अपने उच्च एवं क्षद्राति क्षुद्र पात्रों को समदृष्टि से देखता है, यदि वह एक को प्यार करता है, तो दूसरे को भी, यदि वह एक को दंडित करता है, तो दूसरे को भी उसका न्याय तो सबके लिये बराबर है, एक है। और इसीलिए ऋषियों ने उसे समदृष्टि के नाम से स्मरण किया है।

संसार के रंग-मंच पर वह महाप्रभु अपने पात्रों विभिन्न गुणों, तथा भाँति-भाँति के कलेवरों में भेजता है। भेजते समय वह अपने पात्रों से आशा रखता है कि वे उसके दत्त गुणों एवं शक्तियों का उपयोग कर अपना-अपना अभिनय सफलतापूर्वक दर्शन का प्रयत्न करें इस प्रयत्न में जो पात्र सफल होते हैं, पुरस्कृत होता है और जो असफल होता है वह दंडित। कर्म शुभाशुभ फलों का संकेत इसी पुरस्कार और दंड से तो है।

किन्तु इस संसार में आ कर, माया के जाल में फँस उस परमात्मा के दत्त गुणों एवं शक्तियों का दुरुपयोग जितना यह मानव करता है। उतना अन्य प्राणी नहीं। मानव की इसी दशा को तो देख मैथिलीशरण गुप्त की कंत आत्मा चीख उठी--

करते हैं हम पतित जनों में,

बहुधा पशुता का आरोप।

करता है पशुवर्ग किन्तु क्या,

निज निसर्ग नियमों का लोप?

ये पंक्तियाँ किस मानव का सिर न झुका देंगी? आज मानव संसार का जो वीभत्स दृश्य हमारी आँखों के सामने विद्यमान है, उसकी कल्पना मात्र से ही हमारा हृदय विदीर्ण हो जाता है, नेत्र घृणा एवं आत्मिक वेदना से बन्द हो जाते हैं। आज मानव के रक्त का प्यासा हो अपनी पाशविक वृत्ति का जो परिचय दे रहा है, उसे देख क्या हम यह कहने का साहस कर सकते हैं कि द्वेष, ईर्ष्या तथा स्वार्थ के वशीभूत हो जो नरपिशाच आज रण चण्डी का आह्वान कर करोड़ों निरीह प्राणियों को यम-लोक भेज रहे हैं। हजारों कलामय ऐतिहासिक प्रसादों एवं धर्म स्थानों को ध्वंस कर रहे हैं तथा करोड़ों के गाढ़े परिश्रम की कमाई शस्त्रीकरण में व्यय कर बम्ब के धुओं में उड़ा लाखों को भूखों मार रहे हैं। उनको देख क्या कोई भी मानव यह कह सकता है कि कविवर पंत ने ये पंक्तियाँ उन्हीं मानवों को लक्षित कर लिखी थी-

“सुन्दर है विहग, सुमन सुन्दर,

मानव तुम सब से सुंदरतम।

कदापि नहीं। सचमुच आज का मानव-मानव न रहकर राक्षस बन गया है- भयंकर रक्त-पिचासु रीछ या व्याघ्र बन गया है।

अब आइये तनिक विचार करें कि आखिर उस देव दुर्लभ मानव शरीर की ऐसी स्थिति क्योंकर प्राप्त हुई? इसका एक मात्र उत्तर यही होगा कि मानव भूल गया अपने सृजनहार को, भूल गया उस नाटककार को जिसने उसे इस संसार में अपना पार्ट अदा करने भेजा था, भूल गया उस शक्ति स्त्रोत को जिसने उसे कार्य करने की शक्ति प्रदान की, भूल गया उस महाप्रभु की सत्ता को जिसने उसे अस्तित्व का रूप दिया, भूल गया उस जगदाधारा कृपालु भगवान की करुणाधार को जिससे संसार में उसके सौंदर्य और सुख की अनुपम कल्पना को जिसने सारे ब्रह्माण्ड को जन्म दिया तथा जो सारे प्राणियों का पुत्रवत् पालन पोषण करता है। यदि ऐसा न होता, मानव का विश्वास उस परमपिता परमात्मा में यथावत् बना रहता, यदि वह उसकी सारी सृष्टि को अपनी अहंकारता तथा स्वार्थ की वस्तु न जान, उसे उस प्रभु की ही जानता तो भला कैसे उस परमात्मा की प्यारी वस्तु को आघात पहुँचाता, वह उसे भी उतनी ही प्यारी क्यों न होती जितनी स्वयं वह उसके सृजनहार कल्याणकर भगवान् को है।

वह दूसरे मानव को भाई क्यों न समझता, वह दूसरे प्राणी को अपने ही जीव की भाँति क्यों न मानव, दूसरे के सुख-दुख से सुखी और दुःखी क्यों न होता? दूसरों के क्षत-विक्षत शरीरों को छटपटाते देख वह काल की तरह क्यों ठहाका मारता हँसता है? दूसरों को सुख में देख वह जलकर राख क्यों होता? उसे तो प्राणिमात्र के दुःखों से हार्दिक सम्वेदना और सहानुभूति होती, उनकी पीड़ाओं से उसका मर्म फट पड़ता। अधिक मानव। तुझसे भी कृतघ्न कोई होगा?

साँसारिक सुख-दुःख प्रकाश-अन्धकार उत्थान-पतन की अबूझ पहेलियों के झिलमिल परदे की आड़ से एक चैतन्य आत्मा उस सतत प्रवाहहीन शक्तिधारा का दर्शन करती है, क्योंकि वह सोचती है कि जब तक एकीकरण नहीं हो जाता तब तक साँसारिक दुःखों से उसकी मुक्ति नहीं इसी एकीकरण की साधना का नाम भक्ति है। इसी भक्ति से नशे में झूमकर ऋषि को आत्मा पुकार उठती है- ‘अहं ब्रह्म’

जब वही प्रभु कण-कण में पुष्प-पुष्प में, प्राण-प्राण में विद्यमान है। तो वह ईश्वर का वाहक कैसे किसी पुष्प को तोड़ सकता है, कैसे किसी प्राणी को किंचित् मात्र भी कष्ट पहुँचा सकता है? वह समझता है ऐसा करने से उसके प्रभु के अन्तर को चोट लगेगी। प्रभु को भला वह दुःखित कर सकता है? वह प्रभु को प्रसन्न रखने के लिए संसार की समस्त वस्तुओं और प्राणियों को अपने प्रभु का ही प्रतीक समझ उनसे प्रेम करने लगता है- उन्हीं के प्रेम की सीढ़ी पर चढ़ वह ‘घट-घट रमैया’ तक पहुँचना चाहता है और यही होती है उसकी साधना।

प्रभु-भक्त किसी प्रकार भी दूसरों के हृदय को कष्ट नहीं पहुँचा सकता। फिर उसे शस्त्र की आवश्यकता ही क्यों हो? उसके पास तो ‘प्रभु-भक्ति’ का अमोघ शस्त्र है, जो न केवल उसकी ही रक्षा करता है, बल्कि दूसरों की रक्षा करता है। कष्ट उससे किसी को मिल ही नहीं सकता। तुलसीदास जी के शब्दों में सुनिये- रावण ऐसा महापराक्रमी वीर योद्धा से श्री रामचन्द्र जी युद्ध करने जा रहे हैं। रावण रथ पर आरुढ़ है और रामचन्द्र जी रथ हीन हैं यह देख कर विभीषण अधीर हो गए। श्री राम के प्रति अधिक प्रीति होने से मनोगत भय को रोक न सके। प्रभु के चरणों में वन्दना कर प्रेम के साथ वे श्री राम से बोले-

‘नाथ न रथ नाहीं पदत्राना।

केहि विधि जी रिपु बलवाना॥’

इनमें कितनी मार्मिकता है। अपने प्रिय की कल्याण भावना की कितनी सुन्दर व्यंजना है। श्री रामचन्द्र जी उनकी बात समझ गए। अपने मित्र के भय को दूर करने के लिये उन्होंने अपने अमोघ रथ और शस्त्र का वर्णन यों किया-

सुनहु सखा कह कृपा निधाना।

जेहि जय होइ सो स्यन्दन आना॥

सौरज, धीरज तेहि रथ चाका।

सत्य-शील दृढ़ ध्वज पताका॥

बल विवेक दम परहित घोरे।

छमा-कृपा समता रजु जोरे॥

ईश-भजन सारथी सुजाना।

विरति चर्म सन्तोष कृपाना॥

दान परसु बुद्धि शक्ति प्रचण्डा।

बर विज्ञान कठिन को दण्डा॥

अमल अचल मन त्रोन समाना।

समजम नियम सिली मुख नाना॥

कवच अभेद विप्र पद पूजा।

एहि सम विजय उपाय न दूजा॥

सखा धर्म-भय अस रथ जाके।

जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताके॥

महा अजय संसार रिपु जीत सकइ सो वीर।

जाके अस रथ होय दृढ़, सुनहु सखा मति धीर॥

यही अमोघ शस्त्र है न? प्रभु भक्त इसी शस्त्र के बल पर अपने इने-गिने शत्रुओं पर ही नहीं, एक समाज, देश या भूखंड पर नहीं, बल्कि सारे संसार पर सर्वकालिक विजय प्राप्त करता है। और वह भी विजित के शरीर को बन्दी बनाकर नहीं बल्कि उनके हृदय पर स्थायी और चिर अधिकार जमा कर। उसे हवाई जहाज, टैंक, बम के गोलों और विषैली गैसों की आवश्यकता ही क्यों पड़े? न तो वह किसी के अधिकार को आत्मघात करना चाहता है, न ही किसी से उसकी शत्रुता है, न किसी से वैर। वह सबको उसी प्रभु का पुत्र समझता है जिसका वह स्वयं प्यारा लाडला पुत्र है।

यहीं प्रभु भक्ति अपनी चरमोत्कृष्टता को प्राप्त हो जाती है। ईश्वर-भक्ति की अमृत धारा में स्नान करने से भक्त आत्मा का द्वेष, ईर्ष्या और क्रोधित दुर्गुणों का पंक धुल जाता है, वह अलौकिक ज्योति से प्रदीप्त हो संसार को, विश्व प्रेम को प्रेम का प्रकाश देता है। वह अनन्त पंथ का जानकार बन चिर सुन्दर सन्देश संसार को सुनाता है। वह मसीहा बन संसार के दुःखों को दूर करने का अमोघ मंत्र बताता है, और सच तो यह है कि वह अपनी वाणी, चरित्र कार्य तथा प्रत्येक अंग परिचालन तक से संसार का कल्याण करता है, क्योंकि वह समझता है-लोक सेवा ही प्रभु सेवा है- सच्ची प्रभु भक्ति है।


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