अवसान की वेला (kavita)

June 1951

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डाल पर मुरझाता फूल, गीत की शोभा हुई मलौम!

सुरभि का संचित सारा कोष, हो गया किस दुनिया में लीन!!

जगत की आँखों का था बिन्दु, लदा था सिर पर शोभा भार!

निछावर थे कितने अलिवृन्द, छलकता था मोहकता सार!!

कभी था वह स्वर्गीय विकास, सुनाता था आकर्षण तान!

झुलाता था प्रिय मलय समीर, सुरभि का था करके प्रिय दान!!

धरती पर गिरकर हुआ अधीर, बिखर जाता है मंजुल गीत!

हृदय में पी करके विष घूँट, बिलखता अपना देख निपात!!

टूटकर पंखुड़ियों का बृन्द, देखती है डाली की ओर!

मर रहा था लम्बी उछवास, उदासी का फैला व्यापार!!

खिलाती थी करुणा ले गीत, पिन्हा करके मूर्छा का हार!!

धूल में मिल करके अब ज्योति, जगत की नश्वरता का गान!!

बहाकर हग से अश्रु प्रवाह, सुनाती सुन लो देकर कान!!

भभक निकला आहों का शोर, काल पूरा कर ले अरमान!

नहीं मुझको कुछ भी परवाह, एक दिन होना था अवसान!

(श्री “अरविन्द”)


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