ईश्वर की उपासना

June 1951

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(श्री स्वामी रामतीर्थ जी)

उपासना- जिन लोगों के हृदय में शिव रूप त्याग और वैराग्य बसा है, ऐश्वर्य, धन , सौभाग्य उनके पास स्वयं आते हैं और जिन लोगों के अन्तःकरण लक्ष्मी, धन दौलत की लाग में मोहित हैं वे दरिद्र के पात्र रहते हैं जैसे जो कोई सूर्य की तरफ पीठ मोड़ कर अपनी छाया को पकड़ने दौड़ता है, तो छाया उससे आगे बढ़ती जाती है। कभी काबू में नहीं आती है। और जो कोई छाया से मुँह फेर कर सूर्य की और दौड़े तो छाया अपने आप ही पीछे भागती आती है, साथ छोड़ती ही नहीं।

कौन प्रार्थना अवश्य सुनी जाती है? जिससे हमारा स्वार्थों इतना कम हो कि मानो वह सत्य स्वभाव ईश्वर का अपना ही काम है यह तो रही अति उत्कृष्ट उपासना। उपासना की जरा न्यून स्थिति बच्चे की सी श्रद्धा और विश्वास है, और यह निष्ठा भी क्या प्यारी और प्रबल है। बच्चा अपने माता-पिता को अनन्त शक्तिमान मानता है। और उनके बल को अपना बल समझ कर माता की गोद में बैठा हुआ शाहनशाही करता है, रेल को भी धमका लेता है। पवन और पक्षियों पर भी हुकुम चलाता है, दरिया को भी कोसने लगता है और कोई चीज असम्भव जानता ही नहीं। धन्य हैं वे पुरुष उच्च भाग्य वाले जिनका इस जोर का विश्वास सचमुच सर्व शक्तिमान पिता में जम जाए।

दुःखी दुष्ट में और रंगीले मतवाले मस्त में फर्क सिर्फ इतना ही है। एक के चित्त में कामना अंश ऊपर है भक्ति अंश नीचे। दूसरे के चित्त में राम ऊपर है और काम नीचे। एक यदि साक्षर है। तो उलट पलट से दूसरा राक्षस है।

माँगना दो प्रकार का है, एक तो तुच्छ “मैं” (अहंता, ममता) को मुख्य रखकर अपनी वृद्धि और दूसरा ज्ञान-प्राप्ति, तत्व-दर्शन, हरि सेवा को परम प्रयोजन ठान कर आत्योन्नति माँगनी। प्रथम प्रकार की प्रार्थना तो मानो ईश्वर का तुच्छ नाम रूप (जीव) का अनुचर बनाना है। अपनी सेवा की खातिर इर्नाश्वर को बुलाना है, उलटी गंगा बहाना है। द्वितीय प्रकार की प्रार्थना सीधी बाट पर जाना है।

आत्मा में चित्त के लीन होते समय जो भी संकल्प होगा सत्य तो अवश्य ही हो जायगा, परन्तु यदि वह संकल्प अज्ञान, अधर्म और स्वार्थमय है तो काँटेदार विष भरे अंकुर की नाई उगकर दारुण परिणाम का हेतु होगा। अहंता, ममता और भोग कामना सम्बन्धी ईश्वर से प्रार्थना करना मैले ताँबे (ताम्र) के बर्तन में पवित्र दूध को भरना है। दुःख पाकर जो सीखोगे तो पहिले ही अपवित्र वासना को क्यों नहीं त्याग देते। अशुभ भावना में औरों का भी बुरा होता है और अपनी भी खराबी। शुभ भावना, पवित्र भाव, ज्ञान, विज्ञान की प्राप्ति में न केवल अपना ही कल्याण होता है वरन् परोपकार भी। मन में सत्वगुण, शान्ति, आनन्द और शुद्धि हो तो हमारे काम स्वयं ईश्वर के काम होते हैं। पूरे होते देर लग ही नहीं सकती।

आज पहले ही नहीं समझ जाओ, अभी समझ लो, तो मारोगे ही नहीं मरने के वक्त गीता तुम्हारे किस काम आयेगी? अपनी जिन्दगी को ही भगवान की गीत बना दो। मरते वक्त दीपक तुम्हें क्या उजाला करेगा। हृदय में हरि ज्ञान प्रदीप अभी जला दो।


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