ईश्वरानुभूति से ब्रह्मानंद का रसास्वादन

June 1951

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(श्री मनोहरदास जी अग्रवाल, उम्मेदपुरा)

अनुभूति का क्षेत्र बुद्धि नहीं है मन और बुद्धि तो दृश्य जगत के सम्बन्ध में सिर्फ तर्क कर सकते हैं। तर्क अनुभूति में सहायक भले ही हो जावे पर अनुभूति करा ही देगा यह निश्चित नहीं है। इसीलिए हमारे शास्त्रकारों का कहना है-

अचिंत्या खलु ये भावाः,

न ताँस्तु तर्केण चिन्तयेत्।

जिन भावों को मन और बुद्धि ग्रहण नहीं कर सके तो उनका निर्णय तर्क द्वारा नहीं करना चाहिए। इसीलिए तर्क के स्थान पर आचरण को महत्व दिया गया है। क्योंकि हो सकता है जिसे तर्क सिद्ध कर दे वह आचरण की कसौटी पर ठीक न उतरे और तर्क के द्वारा जिसे सिद्ध न किया जा सके उसकी आचरण द्वारा अनुभूति मिल जाय।

अनुभूति रूपी फल तो आचरण रूपी कार्य का है। इसे जानते हैं और ऐसी अनेकों अनुभूति है। जिनका वर्णन शब्दों द्वारा हो ही नहीं सकता रसानुभूति की बात ले ली जावे। खट्टा, मीठा, तीखा, कड़वा कसैला एवं नमकीन इस प्रकार छः रस है। क्या कोई भी व्यक्ति इनके स्वाद को सिद्ध कर सकता है और सो भी तर्क द्वारा? कदापि नहीं। बल्कि इन रसों को बतलाने के लिए इनका उपयोग कराया जाता है। वस्तु दी जाती है खाने को, स्वाद लेने पर कहा जाता है यह खट्टा है, मीठा है आदि। उस अनुभूति को प्राप्त करने के अनन्तर क्या कोई व्यक्ति इसके बारे में कि यह अमुक रस ही है, सिद्ध कर सकता है, सिर्फ तर्क के आधार पर? नहीं। इसके लिए भी अनुभूति का ही रसास्वादन किया जाता है। मान लो कि गुड़ क्षारीय होता है। मान लो कि एक कहता है कि गुड़ मीठा होता है और दूसरा कहे कि क्षारीय होता है। मीठे और क्षारीय पदार्थों के साथ कर्तृत्व के साथ सिद्ध करना चाहे, तो एक स्थल ऐसा आ जाता है जहाँ यह कहने को मजबूर होना पड़ता है कि यदि विश्वास न हो तो चख कर देख लो। अतः आचरण बिना तर्क यहाँ निस्वत्व हो जाता है।

तब ईश्वर के अस्तित्व को तर्क के आधार पर सिद्ध करने से उसकी अनुभूति हो ही कैसे सकती है। उसकी सिद्धि के लिए या तो-उसकी अनुभूति के लिए या तो स्वयं साधना करने की आवश्यकता होती है।

इस बात की तो सबको अनुभूति है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने किसी कार्यक्रम के आधार पर रहा है। यहाँ तक उस निश्चित कार्यक्रम के विपरीत जब कोई भी व्यक्ति अपना कदम उठाना चाहता है तो उसे सफलता नहीं मिलती, विफलता ही हाथ आती है जब कि निश्चित कार्यक्रम के आधार पर ही व्यक्ति संचालित हो रहा है।

तब स्वभावतः यह प्रश्न हो सकता है कि कौन है इसका संचालक। और उसका अवश्य यह उत्तर मिलता है कि अवश्य कोई न कोई इसका संचालक है। और वह संचालक हमारा कहीं बाहर से संचालन नहीं करता बल्कि अन्दर प्रविष्ट होकर वह हमारी क्रिया शक्ति को प्रेरणा देता है, संचालित करता है। संचालक शक्ति हमारे अन्दर है और अज्ञात प्रेरणाओं द्वारा हमें चला रहीं है, यहाँ तक उन प्रेरणाओं से हम बन्धे से हैं।

सभी कोई कुछ न कुछ करते हुए दिखाई देते हैं। लेकिन प्रेरणाओं की अनुभूति सबको नहीं होती इसीलिये क्षोभ दुःख और वेदनाओं की भरमार है। जिस समय व्यक्ति अपनी वृत्तियों को अंतर्मुखी कर लेता है उसे कार्य की संचालक प्रेरणाओं की अनुभूति होना आरम्भ हो जाती है और इस अनुभूति के बाद वे तमाम कार्य करते रहने के बाद भी, उसे शोक, दुःख, क्षोभ आदि से भी छुटकारा मिल जाता है। तब उसके अन्दर की वृत्ति जागृत होती है और सुखानुभूति बढ़ जाती है फिर तो जो प्रेरणा उसे अज्ञात अवस्था में मिलती थीं वे उसे प्रत्यक्ष होने लगती है। वह समझने लगता है कि भगवान या ईश्वर उसके साथ बात करते हैं उसे रास्ता बतलाते हैं और उस पर साथ-साथ ले चलते है। एक अटूट श्रद्धा से भरा हुआ वह व्यक्ति अपने चारों ओर प्रकाश देखता है वह अपने एकाकीपन को भूल जाता है, अपनी सामर्थ्य और अपनी शक्ति का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। मानव जीवन की चरम सिद्धि अनुभूति है। अनुभूति के साथ श्रद्धा का संमिश्रण रहता है। श्रद्धा विश्वास के साथ चलती है। या अनुभूति के। क्योंकि बिना अनुभूति विश्वास नहीं होता और बिना विश्वास के अनुभूति नहीं होती पर असल में देखा तो ईश्वर की अनुभूति प्रत्येक मानव में होती है। जब तक व्यक्ति की वृत्तियाँ बहिर्मुखी रहती हैं तब तक अनुभूति प्रत्यक्ष नहीं होती, मन और बुद्धि अपना कार्य वाह्य जगत में ही करते रहते हैं लेकिन जैसे-जैसे इनकी दिशा बाहर से भीतर की ओर बदलती जाती है वैसे- वैसे ही अप्रत्यक्ष से अनुभूति प्रत्यक्ष होती जाती है। और यही ईश्वर दर्शन या भगवत्प्राप्ति है।

जैसा कि पहले कहा गया कि अनुभूति के लिए आचरण की आवश्यकता होती है। यह आचरण बहिर्मुखी वृत्तियों को अन्तर्मुखी करने के लिए है जिससे प्रेरणा स्त्रोत जोकि अन्दर है।

मन, बुद्धि और चित्त का उसके साथ सम्बन्ध स्थापित हो जावे। और ये तीनों अर्थात् मन-बुद्धि-चित्त उस सम्बन्ध को न केवल स्थापित कर लें बल्कि प्रेरणाओं का जो स्त्रोत है उससे प्रेरणाएं भी ग्रहण करना आरम्भ कर दें।

प्रेरणाएं अन्दर से आती हैं लेकिन ग्रहण करने की क्षमता न होने के कारण उनकी प्रथम अनुभूति नहीं हो पाती। अन्तर्मुखी वृत्ति हो जाने से मनुष्य में प्रेरणाओं को ग्रहण करने की क्षमता बढ़ती हैं क्षमता के साथ-साथ अनुभूति बढ़ती है और प्रशंसा का क्षेत्र विस्तृत होता जाता है।

अनुभूति जितनी गहरी होती है जीवन में उतनी ही मात्रा में रस की वृद्धि होती है। जहाँ अनुभूति हीनता में मानव जीवन से उकता कर उसे नष्ट करने की ओर बढ़ता या कदम उठाता है वहाँ अनुभूति पाते ही वह जीवन को अपने अन्दर अधिक से अधिक भर लेने के लिए उत्सुक रहता है। उत्सुकता या प्रफुल्लता का यह चिन्ह भगवान प्राप्ति का ही निदर्शक है।

आचरण के लिए श्रद्धा और विश्वास की आवश्यकता है लेकिन ये दोनों तर्क पर प्रतिष्ठित नहीं होने चाहियें। यह बतलाया जा चुका है कि यह ज्ञान अप्रत्यक्ष अनुभूति का ही एक हिस्सा है। उसे बढ़ाने के लिए तर्क के साथ सम्बन्ध स्थापित न करके श्रद्धा के साथ नाता जोड़ना चाहिए। वृत्तियों को अन्तर्मुखी करने की साधना का यहीं से श्रीगणेश होता है। और यहीं से प्रकाश की किरणें मानस पर उतरना या दिखाई देना प्रारम्भ हो जाती हैं।


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