अमर्यादित इच्छाएं ही त्याज्य हैं।

June 1951

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अध्यात्मशास्त्र में स्थान पर तीन ऐषणाओं की बहुत निंदा की गई है। वित्तेषणा, पुत्रेषणा, लोकेषणा यह तीनों इच्छाएं भौतिक, त्याज्य एवं बन्धन में बाँधने वाली बताई गई हैं। वित्तेषणा का अर्थ है- धनलोलुपता। पुत्रेषणा का तात्पर्य है-सन्तानोत्पादन में काम सेवन में असंयम। लोकेषणा का भावार्थ है- सस्ती वाह-वाही लूटने की मूर्खता।

यों धन, सन्तान और यश तीनों ही आवश्यक हैं इनका उचित उपार्जन आवश्यक एवं प्रशंसनीय है परन्तु जब मर्यादा का उल्लंघन होता है तो यह इच्छाएं, ऐषणाएं कहलाने लगती है। और उनकी निन्दा की जाती है। इन्हें त्यागने का अर्थ है इनकी अति का, अमर्यादा का, अनौचित्य का परित्याग करना। आइए, इन तीनों इच्छाओं के सम्बन्ध में विशेष ध्यान देकर विचार करें।

शरीर यात्रा, बौद्धिक विकास एवं सुस्थिर जीवन के लिए जिन वस्तुओं की आवश्यकता है वे सम्पत्ति कहलाती हैं। उन्हें उचित मात्रा में, उचित रीति से, उपयोग के लिए कमाना एक अत्यावश्यक कर्तव्य है। परन्तु अधिकाधिक संचय की तृष्णा अनुचित मार्ग से अनीतिपूर्वक कामना अनुपयुक्त कार्यों में धन का उपयोग, धन को ही सुख का केन्द्र मानकर उसी की अभिलाषा में निरन्तर डूबे रहना, यह वित्तेषणा में निमग्न हो सकती है और कोई धन कुबेर भी राजा जनक या बादशाह नसीरुद्दीन की तरह अपने को उसका ट्रस्टी मानता हुआ उस पर अधिकार रख सकता है। मामाशाह धनपति थे पर उसने राष्ट्र की आवश्यकता पर राणा प्रताप को अपना सारा खजाना सौंपते हुए तनिक भी संकोच न किया। धन की मात्रा की न्यूनाधिकता का कुछ महत्व नहीं। उसकी तृष्णा, बेचैनी एवं लालसा ही वित्तेषणा कहलाती है, कारण यह है कि अधिक लालच के कारण जीवन की अन्य आवश्यकताओं पर ध्यान देना कठिन हो जाता है। अत्यन्त आवश्यक आत्मिक विकास की उपेक्षा की जाती है। और अनीति से उपासना करते हुए पाप का भय भी नहीं लगता इन कारणों से सम्पत्ति के उपार्जन का ‘कर्तव्य’ ‘वित्तेषणा’ को ‘अकर्तव्य’ बताया है। इस बारीकी को न समझने वाले परिश्रमपूर्वक रोटी कमाने को छोड़कर भीख टूक माँग खाने के लिए उतर पड़ते है। और भ्रमवश अपने मिथ्याचार को वैराग्य मान बैठते हैं। वैराग्य का अर्थ मन का राग रहित निर्लोभ, होना है। कर्तव्य का परित्याग तो किसी प्रकार भी वैराग्य नहीं कहा जा सकता।

ऐश्वर्य और में विलासिता भारी अन्तर है इन्द्रियों की सरलता का निर्माण, जीवन की नीरसता एवं जड़ता को हटाकर उसमें आनन्द एवं जागरुकता भर देने के लिए हुआ है पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ अपने सात्विक भोगों को उपलब्ध करके आत्मा के आनन्द को बढ़ाती है और जीवन को सुविकसित एवं प्रफुलित बनाने में सहायक होती है। ऐसी एक भी इन्द्रिय शरीर नहीं है। जो स्वभावतः पतन का कारण हो। पर जब उनका अविवेकपूर्वक अनावश्यक कार्यों में दुरुपयोग किया जाता है। तो वे आतिशबाजी की तरह अपनी शक्ति का नाश होते समय कुछ मनोरंजन तो अवश्य करती है। पर वह विनाश अन्ततः बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण और दुखदायी सिद्ध होता है सात्विक, सरस स्वादिष्ट भोजन की इच्छा उचित है, समान चित्त का दाम्पत्य जीवन एक बड़ी अपूर्णता को पूर्ण करता है। नेत्रों से, कानों से नाक से, वाणी से हमारी ज्ञान वृद्धि होती है। उनकी सहायता से उन्नति का मार्ग प्रशस्त होता है। रूपवान् नर नारियों, बालक बालिकाओं को देखकर, प्रकृति के सौंदर्य का निरीक्षण करके आत्मा के आन्तरिक उल्लास में असाधारण अभिवृद्धि होती है। यदि इन्द्रियाँ नष्ट हो जाय तो वृक्ष, वनस्पति आदि की तरह जड़ संज्ञा में पहुँच जायेगा। यह दस इन्द्रियाँ ही हैं। जो अविकसित होने के कारण मानव प्राणी को सृष्टि का मुकुटमणि और सुख सौभाग्य का निर्झर बनाती हैं। इन्द्रिय-निग्रह इन्द्रिय-दमन आदि का अर्थ-उनका ‘सदुपयोग करना’ ही है। पुत्रेषणा के शिष्ट शब्द में काम सेवन की ओर ऋषियों का संकेत है। इन्द्रिय विकारों में चटोरापन और कामुकता प्रधानतः दो ही दोष हैं। इनको सुव्यवस्थित संतुलित रखा जाये और अन्य इन्द्रियों से समुचित आनन्द लाभ किया जाये तो यह ऐश्वर्य उचित भी है। और आवश्यक भी। अनुचित अमर्यादित विषय लोलुपता को ही निन्दित ठहराया गया है। ऐश्वर्य में इन्द्रियों के सदुपयोग द्वारा आनन्द लाभ में, कुछ भी दोष नहीं उलटा अपूर्णता एवं नीरसता हटा कर पूर्णता एवं सरसता की ओर अग्रसर होने का लाभ ही है।

लोकेषणा और आत्मा तुष्टि में भी ऐसा ही आकाश-पतला का अन्तर है। धन, जायदाद, रूप, सौंदर्य, फैशन अमीरी, बल पद आदि साँसारिक वस्तुओं की चतुरताओं की, वाहवाही लूटने के लिए जो प्रदर्शन, आडम्बर, विज्ञापन किया जाता है वह लोकेषणा है। विवाह शादियों में, का रज त्योहार, में, उत्सवों में, प्रीति भोजों में, अनाप-शनाप खर्च करके अपनी शान जमाने और अमीरी प्रकट करने का आडम्बर अनेक लोग किया करते हैं। कितने ही व्यक्ति अपना खर्च आवश्यकता से बहुत अधिक बढ़ाये रहते हैं। बड़े जमींदार, सेठ साहूकार, रईस अमीर कहलाने वाले लोगों के यहाँ, मोटर, गाड़ी नौकर-चाकर, सामान, वस्त्र-आभूषण आदि का इतना बड़ा खर्च होता है जितनी कि वस्तुतः आवश्यकता नहीं होती। एक-दूसरे की होड़ करके अधिक खर्च करने में अपनी प्रतिष्ठा अनुभव करते हैं। गरीब लोग अमीर बनने की इच्छा इसलिए भी करते हैं कि वे भी बड़े आदमी होने की प्रशंसा प्राप्त करें। कई आदमी अपनी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होने के लिए बड़े आतुर रहते हैं। और झूठी वाहवाही करने वाले, खुशामदी चापलूसों द्वारा उल्लू बनते रहते हैं। इसी लोकेषणा की निन्दा की गई है क्योंकि यह भी धन लिप्सा एवं इन्द्रिय लोलुपता भाँति बन्धनों में बाँधने वाली है। कई आदमी तो किसी अनुचित भयंकर एवं दुस्साहसपूर्ण काम कर डालते हैं। कई आदमी साधु सन्त बनने का कष्ट साध्य आडम्बर भी इसी लालच से ओढ़ते हैं।

आत्म निर्माण, लोकेषणा से भिन्न वस्तु है। अपने सद्गुणों के कारण प्रतिष्ठा प्राप्त करना, अपने उच्च, आदर्श जीवन, परमार्थ साधना एवं लोक सेवा द्वारा यश प्राप्त करने की आकाँक्षा आत्मा, की भूख है। इसे प्राप्त करने से आन्तरिक सन्तोष प्राप्त होता है। और अन्तरात्मा में उत्साह, आनन्द एवं उल्लास की अभिवृद्धि होती है। इस प्रोत्साहन से, सफलता से मनोबल बढ़ता है। और आगे अधिक उत्साह से, ऐसे पुण्य कार्य, सतोगुणी आचरण करने की इच्छा होती है जो अपना लोक परलोक सुधारने, पुण्य संचय करने के लिए आवश्यक है। आत्म गौरव, आत्म सम्मान, आत्म कल्याण, आत्म आनन्द, आत्म प्रतिष्ठा, आत्म सन्तोष प्राप्त करके मनुष्य की अन्तरात्मा संतुष्ट होती है। इसलिए उसके लिए प्रयत्न करना सब प्रकार उचित एवं आवश्यक है। स्वर्ग के, मुक्ति के, आत्म सम्मान के, यश के निमित्त भी यदि सद्विचार और सत्कार्यों का आयोजन हो तो यह सात्विक अभिलाषा प्रशंसनीय ही कही जायेगी। यह लोकेषणा नहीं आत्मतुष्टि है। यह निन्दनीय नहीं स्वागत योग्य है। ऐषणाओं की अति की निन्दा की गई है अपने सात्विक रूप में यह तीनों ही इच्छाएँ मानव जीवन में उपयोगी एवं श्रेयष्कर सिद्ध होती हैं।


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