चित्त शुद्धि की आवश्यकता

June 1951

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री स्वामी कृष्णानन्जी, केकड़ी)

नायं जनो में सुखदुःख हेतुः,

न देवता··त्मा ग्रह कर्म कालः।

मनः परं कारणमामनन्ति,

संसार चक्रं परिवर्तयैषत्॥

(श्री. भा. 11। 23। 43)

मनुष्य, देव, आत्मा, ग्रह, कर्म काल ये कोई भी मेरे सुख दुःख के हेतु नहीं हैं। मन ही इन सुख दुःख का सच्चा कारण है, जो इस संसार चक्र को चलाया करता है। ऐसा वेदों ने कहा है।

मनुष्य मात्र सुख प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते रहते हैं। इस सुख के नित्य और अनित्य, ये दोनों भेद है। इन्द्रिय और विषय के सम्बन्ध से जो सुख मिलता है। वह क्षणिक होने से अनित्य है। विषय भोग जन्य सुख क्षणभर रहता है, फिर सुख अदृश्य हो जाता है, सुतराँ वह दुःख की प्रथमावस्था है। जिस सुख का अन्त दुःखमय हो, उसको यथार्थ सुख नहीं कह सकेंगे। ऐसे सुख की पाशव वृत्ति वाले पामर या निमीलित नेत्र वाले विषयी लोग ही करते हैं। बुद्धिमान जिज्ञासु ऐसे सुख की चाह नहीं रखते।

जिस सुख की प्राप्ति में दुःख का लेश न हो, उसको नित्य सुख कहते हैं। यह अनित्य सुख की कामनाओं का त्यागा करने के पश्चात ही मिल सकता है। परोपकार, दया, भक्ति, विश्व प्रेम, स्वदेश सेवादि कार्य निष्काम भाव से दीर्घ काल पर्यन्त किया जाय, तभी चित्त शुद्ध होकर सुख का मार्ग प्रतीत होने लगता है। फिर आत्मज्ञान दृढ़ होने पर अविचल नित्य सुख की प्राप्ति होती है।

मोहादि दुर्दमनीय पाशव-वृत्तियों का दमन और चित्त-संशोधन कर दैवी सम्पत्ति का जितने अंश में विकास किया जाय एवं धर्म का जितने अंश में पालन किया जाय उतने ही अंश में व्यक्ति और समाज को सुख मिल सकता है। किन्तु जब तक मन में विश्व धर्म की कल्पना नहीं आ सकती। उस विश्व धर्म का पालन या मानसिक उन्नति अवनति का आधार चित्त की शुद्धि अशुद्धि है।

मनुष्य सर्व व्यापक विश्व धर्म के अनुकूल प्रतिकूल जो-जो कर्म करते हैं, उनके अनुरूप अन्तःकरण में शुभाशुभ संस्कारों को धर्म और पुण्य कहते हैं, अशुभ संस्कारों को अधर्म और पाप कहते हैं। इन संस्कारों में से अधर्म के संस्कार चित्त शुद्धि में से अंतराय रूप है। अतः इनको नष्ट करने की पूर्ण आवश्यकता है।

जैसे वस्त्र पर रंग, मैल और तैलादि के दाग पड़ते हैं, या ग्रामोफोन की प्लेट पर शब्द संस्कारों का प्रवेश हो जाता है, वैसे मन पर शुभाशुभ कर्तव्यों के संस्कार पड़ते हैं। यद्यपि इन संस्कारों को बाहर से कोई नहीं देख सकते। तथापि उन्नति-अवनति इन संस्कारों से ही होती रहती है। जैसे मलिन वस्त्र पहनने के अभ्यासी को मैले वस्त्र की दुर्गन्ध से घृणा नहीं होती, दुर्गंध युक्त स्थान में निवास करने में वह दुःख नहीं मानता, किन्तु वह कुछ काल में अपनी सुगन्ध और दुर्गन्ध सम्बन्धी परीक्षण शक्ति को गुमा देता है, वैसे ही मलिन मन वाले मनुष्य को पाप कार्य से, पाप विचार से या पापी के सहवास से घृणा नहीं होती, तथापि वह अपने मन का अधः पतन करा देता है।

जैसे एक ब्राह्मण ने कुसंग दोष से अपने समाज और कुटुम्ब से छिपकर शराब पीना प्रारम्भ किया, पहले उसको भ्रम से उत्साह की वृद्धि का अनुभव होता था। जिससे शास्त्र वचन और वृद्धों की शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकता था। फिर व्यसन दृढ़ होने पर पक्का शराबी बन गया, तब धन हानि, बुद्धि की मलिनता, विचारों की अशुद्धि, मन की निर्बलता, पुनः पुनः शराब पीने की चाह, फुफ्फुस, हृदय, मस्तिष्क, और अंत्रादि अवयवों की शक्ति का क्षय, तथा, समाज में निंदादि हानि का अनुभव करने लगा। फिर भी सदुपयोग को धारण नहीं कर सका। उल्टा दुष्टों के संपर्क से झूठ, माँसाहार, व्यभिचार, चोरी चालबाजी आदि दुराचार में ही प्रवृत्ति की। किं बहुना उसने अशुभ संस्कारों के हेतु से अपनी अत्यन्त अवनति कर, महादुःख भोग इस संसार से विदा ली। इस रीति से अशुभ कार्य करने वाले सभी का अधः पतन हो जाता है।

इससे विपरीत वस्त्र पर इत्र लगाने से या कस्तूरी आदि सुगन्धित पदार्थों का संपर्क होने से वस्त्र में सुगन्ध आने लगती है। ऐसे वस्त्रों के धारण से मन प्रसन्न होता है। वैसे ही पुण्य कर्म करने से मन में शुभ संस्कारों की उत्पत्ति होती है, और पुनः पुनः परोपकारादि शुभ कर्तव्य करने की अंतर प्रेरणा मिलती रहती है तथा जैसे स्वच्छ वस्त्र धारण करने के अभ्यासी को मलिन पहिनना, मलिन वस्त्र धारियों का सहवास करना या मलिन स्थानों में जाना असह्य हो जाता है, वैसे ही पुण्यात्मा को पापी विचार, पापात्मा का सहवास या दूषित स्थानों में जाना दुःखदायी ही हो जाता है।

इन शुभाशुभ मानसिक भावनाओं का परिणाम मनुष्य के स्वास्थ्य और आयु पर भी होता है। यद्यपि अनेक पापी मनुष्य बलवान, धनवान् और बड़ी आयु वाले दृष्टिगोचर होते हैं, तथा अनेक पुण्यात्मा निर्बल, निर्धन और छोटी आयु में ही मरण, मरणोन्मुख प्रतीत होते हैं। तदपि वे बलवान् पापी यद्यपि पाप में प्रवृत्ति नहीं करते, पुण्यकर्मों में प्रीति रखते तो वे और अधिक बलवान रहते। एवं पुण्यात्माओं में जो निर्बल या दुःखी हैं, उसका हेतु पुण्यकर्म नहीं है, किन्तु पूर्व जन्मों का पाप ही हेतु है।

मनुष्य से अनेक वृक्षों की दृढ़ता और आयु ज्यादा प्रतीत होती है। वृक्षों पर दुःख का असर बहुत कम होता है। तथा ज्ञान की दृष्टि से वृक्ष की अपेक्षा मनुष्य जीवन ही श्रेष्ठ है। एवं मनुष्य से वनचर व्याघ्रादि पशुओं में शरीर बल बहुत अधिक रहता है। चिन्ता और जवाबदारी मनुष्यों की अपेक्षा बहुत कम होती है। अपनी इच्छानुसार जंगलों में विचरते रहते हैं। पापात्मा का जीवन भी पशुतुल्य ही माना जाता है। अतः इस पशु जीवन की प्राप्ति की चाह कोई बुद्धिमान् नहीं करता। संसार के समस्त स्तर प्राणियों की अपेक्षा मानव जीवन उत्तम माना गया है। इस दृष्टि से क्षुद्र पापी के जीवन से विशाल अन्तःकरण वालों की जीवन निर्धनता आदि कष्ट होने पर भी श्रेष्ठ है। पापी मनुष्य ऊपर से कदाचित सुखी प्रतीत हो, फिर भी उसके मन की ओर दृष्टि डालने से वह महा दुःखी है, ऐसा अवगत हो जाता है।

थोड़े वर्षों पहले बम्बई के एक व्यापारी ने एक दुकान खोली थी। उस दुकान के माल का दश हजार रुपये का बीमा कराया था। दुकान प्रारम्भ करने के 2-3 मास पश्चात भागीदारों में मत भेद हो जाने से दो भागीदार अलग हो गये। जिससे दुकान का नाम बदल लिया। परन्तु बीमा कम्पनी से नया बीमा कहीं उतराया । 6-8 मास बाद, अकस्मात् चारों ओर की दुकान में आग लग गई, उस समय अग्नि बुझाने वालों से थोड़ा पानी इसमें डाला गया, जिससे माल भीग कर पाँच सौ रुपये की हानि हुई। किन्तु उस दुकान के मालिक ने दुकान के चालू नाम से बीमा न होने पर भी प्रपंच कर पहले के नाम से बीमा कम्पनी से पाँच हजार की रकम प्राप्त की। परिणाम में मरण पर्यन्त लगभग 15 वर्ष तक हृदय से दुःखी और भयभीत रहता था। सर्वदा उसकी दृष्टि समक्ष यह चित्र दिखाई देता था, कि यदि कोई दुश्मन खड़ा हो जायेगा, और बीमे के पाखंड की बात प्रकाशित कर देगा। तो अपकीर्ति और धन की हानि होगी। तथा सजा भी भोगनी पड़ेगी। ऊपर से तो यह धनिक सुखी देखने में आता था, परन्तु यथार्थ में वह दुःखी था। यदि इसने इस पाप में प्रवृत्ति नहीं की होती, तो जीवन चिंतातुर नहीं रहता, अपने व्यापार में अधिक लाभ उठा सकता था, एवं 10-20 वर्ष अधिक या ईश्वर निर्मित और पूर्ण आयु तक जीवित रह सकता था, अकाल मृत्यु के मुख में नहीं गिरता।

एक समय एक पल्टन के कैप्टन से मेरा वार्तालाप हुआ था। वह ईस्वी सन्-1911-12 में विलायत गया था। उसने कहा था, कि शाहनशाह 7 वें एडवर्ड को चिन्ता ने खा लिया है। हिन्दुस्तान और इतर देशों के लिये राज्य सचिवों के अनेक जुल्मी कार्यों से वे सर्वदा असन्तुष्ट और चिन्तातुर रहने से रोगाक्रान्त हो गये हैं। वाह्य दृष्टि से चक्रवर्ती सम्राट होने से किसी भी बात की कमी नहीं है, तथापि विचार दृष्टि से देखने पर वे तन-मन से सुखी नहीं हैं। अन्त में केवल 6 वर्ष ही राज्यकर इस चिन्ता में ही आपने इस संसार से विदा ली थी।

मनुष्य जो शुभाशुभ कर्तव्य करते हैं, उनमें से कर्तव्यानु रूप शुभाशुभ वासना और सुख-दुख देने वाले मानस संस्कारों की उत्पत्ति होती है। इनमें से वासनाओं से पुनः 2 उसके समान विषय सेवन की चाह होती रहती है और संस्कारों के परिपाक काल में सुख अथवा दुःख रूप फल मिलते रहते हैं। राजा से रंक तक या ब्रह्म से चिंटी तक को जो सुख मिलता, वह शुभ कर्म का फल और जो दुःख मिलता है। वह अशुभ कर्म का फल है। जब तक चित्त अशुद्ध होता है, तब तक दुष्ट वासनाओं का उद्भव होकर दुष्ट कार्य में प्रवृत्ति होती रहती है। और जब चित्त शुद्ध हो जाता है। तब निष्काम प्रवृत्ति होने लगती है। और पापी विचार या पाप कार्य में से प्रीति हट जाती है। जिससे भावी जीवन सुखमय बन जाता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118