सर्वश्रेष्ठ ज्ञान यज्ञ

June 1951

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(श्री स्वामी ज्योतिर्मयानन्द पुरी, बम्बई)

वेदों में का मुख्य विषय यह है। यज्ञ के सम्बन्ध में बहुत से वाक्य मिलते हैं जिस प्रकार “उदिते सूर्ये प्रातर्जुहोति” “वसंते ब्राह्मणोकग्निना दधीत’ का. औ. सूत्रं ‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः ‘ऋतं च स्वाध्याय प्रवचनेन च’ भगवद्गीता में भी यज्ञों का वर्णन बहुत मिलता है। परम कृपालु भगवान् कृष्णचन्द्र आनन्दकन्द ने तृतीय अध्याय में अर्जुन को कर्म योग का मार्ग बतलाते हुए यज्ञों की सृष्टि और आवश्यकता भली भाँति बतला दी है, भगवान् ने अर्जुन से कहाः-

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरावाच प्रजापतिः।

अनेन प्रसिविष्यध्वमषवीस्त्विष्टकामधुक्॥ 3-10

प्रजापति ब्रह्मा ने सृष्टि के प्रारम्भ में प्रजाओं के साथ ही साथ उन प्रजाओं की कल्याणार्थ यज्ञों की भी सृष्टि की। और पिता जिस प्रकार अपनी सन्तानों के हित के लिये सन्मार्ग का उपदेश देते हैं उसी प्रकार पितामह ब्रह्माजी ने भी सन्तानों के प्रति उनके अभ्युदय के लिये उपदेश देते हुए कहा है- तुम्हारे सामने मैं यज्ञों को भी रख देता हूँ। इन श्रोत तथा स्मार्त यज्ञों को यथारीति संपादन करके देवताओं की प्रीति उत्पादन करो। श्रद्धा के साथ किए हुए इन यज्ञों से भी तुम लोगों को अभीष्ट फल मिलेगा।

आगे जड़ात्मक यज्ञ किस प्रकार प्रजाओं का हित सम्पादन करेंगे इस प्रकार के सन्देश को दूर करने के लिये ब्रह्म ने फिर अपनी प्रजाओं से कहा -

देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु धः।

परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ॥ 3-11

तुम लोग इन यज्ञों द्वारा देवताओं को सन्तुष्ट करो। सन्तुष्ट हुए देवता भी तुम लोगों को अभीष्ट वस्तु प्रदान कर सन्तुष्ट करेंगे। इसी प्रकार परस्पर के सद्भाव से तुम लोगों का भला होगा।

तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुं ् तेस्तेन एव सः। 3।12

जो देवताओं को यज्ञों द्वारा चरु पुरोडाशादि न देकर केवल अपना शरीर पुष्ट करने के लिये ही भोजन करता है। वह देवताओं की दृष्टि में चोर होता है।

इस प्रकार भगवान् कृष्णचन्द्रजी ने प्रजापति ब्रह्मा के मुख से यज्ञों की सृष्टि तथा आवश्यकता बतलाकर आगे चतुर्थ अध्याय के पच्चीस श्लोक से तीस श्लोक तक द्रव्य आदि चौदह यज्ञों का वर्णन किया है। और इन चौदह यज्ञों में ज्ञानयज्ञ को सर्वश्रेष्ठ बतलाया है-

श्रेयान् द्रव्यमयाद्यज्ञाद् ज्ञानयज्ञः परंतप।

सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञानेपरिसमाप्ते॥4।32

हे परंतप द्रव्यमय यज्ञों से ज्ञान-यश श्रेष्ठ होता है, क्योंकि ज्ञान में श्रोत स्मार्त तथा लौकिक सभी कर्म परि समाप्त हो जाते है। समुद्र पार जाने वाले पुरुष को पार पहुँचने पर जैसे और कोई कर्तव्य नहीं रहता है उसी प्रकार ज्ञान की प्राप्ति होने पर सच्चित्, आगामी, प्रवृत्त, अप्रवृत्त सभी कर्म नष्ट हो जाते है। इसीलिए ज्ञान-यज्ञ सर्व श्रेष्ठ यज्ञ है।

इस ज्ञान-यज्ञ का दूसरा नाम ब्रह्मयज्ञ है, यह यज्ञ परमात्मा-सम्बन्धी यज्ञ है। इसका स्वरूप भगवान् ने गीता के चतुर्थ अध्याय में 24 वे तथा 25 वें श्लोक में बतलाया है-

“ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणाहुतम।

ब्रह्मैष तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥”4-24

“ब्रह्माग्न वपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुहव्ति।” 4-25।

चमसादि सर्वक्षोपकरण वस्तुओं में ब्रह्म मात्र बुद्धि करके अथवा’-सत्य ज्ञान स्वरूप ब्रह्म में सोपाधिक आत्मा को निर्विशेष स्वरूप ब्रह्म के अभिन्न बोध करके दर्शन करना ही ब्रह्म-यज्ञ है। इस यज्ञ का फल महान् है। इससे सब पाप-ताप नष्ट हो जाता है। सब कर्म बन्धन छूट जाता है। हृदय की ग्रन्थि छूट जाती है।

“भिद्यते हृदयग्रन्थिः च्छिद्यन्ते सर्व संशयाः।

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टि परावरे॥”

गीता में भी भगवान् ने कहा-

अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पोपकृत्तमः।

सर्व ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं सन्तरिष्यसि॥ 4।36

“यद्यपि तू सब पापियों में महा पापी भी क्यों न हो तथापि ज्ञान-रूपी नौका से समय पाप की नदी को भली-भाँति तर जायगा।” इसका तात्पर्य यह है कि ज्ञान ही मनुष्य को समस्त पाप-ताप कीक सीमा के पार ले जाता है।


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