आस्तिकता से आत्म कल्याण

August 1951

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(कुँ.बादाम सिंह गौर, चाँचोड़ी)

मानवता का सुखद आभास आज किन्हीं विरलों को अपने जीवन में प्राप्त होता है। इसका कारण हमारी संदिग्ध आस्तिकता है। कहने भर को तो हम आस्तिक हैं, किन्तु क्रियात्मक रूप में आस्तिकता का प्रभाव जीवन में अंश मात्र होता है। अच्छी आस्तिकता का लक्षण यह है कि हम ईश्वर में दृढ़ विश्वास करें, उसका सर्व व्यापकता, नियामकता, दिव्यता को पल भर भी विस्मृत न होने दें।

यदि हम सर्वकाल में उस परम पिता की ओर देखते हुए उसके आदेशानुसार कर्म में प्रवृत्त रहें तो हमसे कभी कोई अकर्म बन ही नहीं सकता और हमारा जीवन शुभ कर्म के फल स्वरूप सत्यं शिवं सुन्दरम् की दिव्यता से मुखरित हो उठे। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में हम प्रभु की सेवा में कर्त्तव्य कर्मों द्वारा संलग्न रहें। कोई भी कर्म क्यों न करते हों, सबमें ईश्वरीय आदेश की अनुभूति रहे तो मानवोचित धर्म, सत्य, सदाचार, संयम, नियम का पालन हमारे द्वारा स्वाभाविक रूप से होता रहेगा, क्योंकि शासक रूप से परमात्मा हमारे समक्ष उपस्थित रहेगा तो हम अकर्म नहीं कर सकेंगे। कुकर्म में मनुष्य तभी प्रवृत्त होता है, जबकि वह शासन से अपने को निर्भय समझता है।

जल प्रवाह की भाँति मानव जीवन का प्रवाह उस परम दिव्यताति दिव्य परमेश्वर की ओर प्रवाहित हो रहा है। प्रभु ने मानव जीवन का परम ध्येय ही यह निर्मित किया है कि हम उसके द्वारा प्रतिपादित मार्ग में प्रतिष्ठित रहें, यही हमारा कर्त्तव्य कर्म है। मानव शरीर ईश्वर प्रदत्त विशेष कृपा है। इस शरीर द्वारा शुभ कर्म ही हमें अभीष्ट हैं। भारत में योग भोग का अनुपम सादृश्य है, किन्तु भारतीय मानवता हमें संयम पूर्वक जीवन यापन का आदेश करती है। अनियमित जीवन दुख का हेतु है। भोग भोगने के लिए अवश्य है, पर उसका दुरुपयोग किसी भी दशा में वाँछनीय नहीं है। प्रमाद और आलस्य जीवन के भयंकर शत्रु हैं। उनके चंगुल में पड़कर मानव पशुवत हो जाता है। समस्त आपदाएं उसे अपना निवास स्थान बना लेती हैं। व्यर्थ भोग, व्यर्थ व्यवहार इनकी देन है, जिनसे अन्तःकरण में कुत्सित विचार एवं निष्क्रियता उत्पन्न होती है। यदि ईश्वर की उपासना करते हुए भी अंतःकरण में विशिष्ट दिव्यता का आभास नहीं हुआ, तो आस्तिक कहने का हम दावा नहीं कर सकते। इसके साफ माने हैं कि जिन नियमों के पालन करने से मनुष्य में दैवी गुणों का प्रादुर्भाव होता है, हमने उन नियम का पालन नहीं किया।

भारत में सब नहीं तो अधिकाँश में प्रत्येक गृह का एक सदस्य तो अवश्य ही अपनी कुल गत विधि अनुसार ईश्वरोपासना करता है, किन्तु अधिकाँश व्यक्तियों में उस दिव्य आभा का आभास प्राप्त नहीं होता, जिसका वर्णन हमने अपने धर्म ग्रंथों में पढ़ा है। इसके मूल में अनिश्चित धारणा असंयमित आचार एवं आलस्य ही कारण है। यदि हमको मानव बनना है तो सर्वप्रथम अन्तःकरण में यह दृढ़ विश्वास सदैव, सब काल के लिए धारणा करना होगा कि परम प्रेमी परमात्मा, जो सबका प्रभु है, सब जगत में, सब काल में ओतप्रोत है, वह हमारी प्रत्येक गतिविधि को हजारों नेत्र से देख रहा है। वह परम दिव्य है, सबका हितैषी है, सबमें व्यापक है, संसार का समस्त व्यापार उसी में निहित है, संपूर्ण जगत उसी के प्रकाश से प्रकाशित है एवं उसके द्वारा प्रतिपादित शुभ कर्म एवं शुभ भाव में ही हमें प्रवृत्त रहना है। इस धारणा को मूर्त रूप से अन्तःकरण में प्रतिष्ठित करना होगा। हमारे शरीर द्वारा कोई भी कार्य ऐसा न हो जिसे अधार्मिक अथवा अनियमित कहा जा सके। हमारी इन्द्रियों के द्वारा कोई भी अग्राह्य विषय ग्रहण न किया जावे। प्रत्येक कर्म करने के शुरू में विचारपूर्वक उसकी औचित्यता पर बुद्धि द्वारा निर्णय प्राप्त होने पर ही उसे किया जावे। आरंभ में तो कुछ दिक्कत सी प्रतीत होगी किन्तु अभ्यास वश शनैः शनैः यह दिक्कत स्वाभाविकता में परिवर्तित हो जायेगी।


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